भारत के मौलिक नृत्य, संगीत की एक बड़ी समस्या ये है कि वो सैकड़ों साल पुराने, आम तौर पर मिथक कथाओं पर आधारित कहानियों से निकल नहीं पा रही हैं। आज के कलाकार भी शास्त्रीय संगीत और नृत्य की शुद्धता के नाम पर, समय के सरोकार से दूर ही रहते हैं। नयी पीढ़ी का भारतीय नृत्य संगीत से नहीं जुड़ने का एक बड़ा कारण ये भी है।
ऐसे में निहारिका सफ़ाया की नृत्य नाटिका "द कश्मीरी प्रिन्सेस वारियर" ताज़ा हवा के झोंके की तरह है। दिल्ली के कमानी सभागार में प्रस्तुत इस नाटिका ने ये साबित किया कि आज के सरोकारों से जोड़ कर पुरानी नृत्य परंपरा को नयी ज़िंदगी दी जा सकती है। निहारिका की प्रस्तुति में कश्मीर के सुदूर गाँव की एक नायिका आतंक के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती है। वो आतंकवादियों से एक राजनीतिक युद्ध का हिस्सा है। लेकिन प्रस्तुति को राजनीति से दूर रखने के लिए उसे एक मिथक से जोड़ दिया गया है। वो शिव का अंश है। वो एक नायिका है तो उसके साथ एक नायक भी है। अमन और चैन के दुश्मनों से नायिका युद्ध करती है। उन्हें पराजित करके वो अपने नायक की रक्षा करती है और अमन फिर से क़ायम करती है।
नृत्य की त्रिवेणी
कहानी और नृत्य संयोजन ख़ुद निहारिका ने किया। निहारिका कुचिपुडी शैली की कलाकार हैं, लेकिन इस बैले में उन्होंने कुचिपुडी के साथ कथक और छाऊ शैली का शानदार मिश्रण पेश किया। नृत्य की तीन शैलियों को एक साथ जोड़ कर एक नयी शैली विकसित करना एक कठिन काम है। कहानी को इस तरह तैयार किया गया था कि सामान्य दर्शक यह समझ भी नहीं पता कि तीन शैलियों का तिरंगा एहसास कहाँ से आ गया। सबसे ख़ास बात ये है कि कथा के साथ संगीत में भारतीय और पश्चिमी वाद्य यंत्रों का फ़्यूजन मौजूद था।
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