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“एकल-परीक्षा मेरिट” के पंजे में फंसा गवर्नेंस

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड ने दलित आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने वाले एक बहुमत (6-1) फैसले में लिखा कि किसी एक परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त करना प्रशासन में भी उच्च दक्षता की गारंटी नहीं है और अगर कोई व्यक्ति निर्धारित न्यूनतम अंक प्राप्त कर लेता हो तो वह प्रशासनिक दक्षता सुनिश्चित करने के लिए काफी है”. जाहिर है उनके मन में भी इस निर्णय तक पहुँचने के पीछे सबसे पुख्ता तर्क यही रहा होगा कि दक्षिण के राज्यों में दलित और बैकवर्ड आरक्षण की सीमा लगभग 70 प्रतिशत सात दशकों से है लेकिन उत्तर भारत के राज्यों से वहाँ के गवर्नेंस में प्रशासनिक दक्षता हमेशा बेहतर रही है.  
दुर्भाग्यवश भारत के संविधान निर्माताओं ने जिन संवैधानिक संस्थाओं को शीर्ष अफसरशाही के चुनाव के लिए बनाया उन्होंने किसी एक परीक्षा में पास करना मेरिट मानते हुए कम अंक पाने वाले को अपेक्षाकृत न्यून दक्षता का भी मान लिया. याने “मेरिट” को एक खास किस्म की प्रतियोगी परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाना माना और इसके जरिये एक शाश्वत “ह्युब्रिस ऑफ़ मेरिट” (मेरिट का अहंकार) वाला वर्ग तैयार किया. संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) हो या राज्यों के लोक सेवा आयोग, सबने इसी पैटर्न को अपनाया. नतीजतन आल इंडिया सर्विस का आईएएस हर मर्ज की दवा बना. 
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जब 1970 के आसपास भारत अपने पैरों पर खड़ा हो कर खाद्य संकट से उबरने लगा और बजट का बड़ा हिस्सा विकास कार्यों के लिए खर्च करने की ओर अग्रसर हुआ तो इन चालाक अफसरों से अपने प्रशानिक दक्षता वाले चोले के ऊपर तत्काल “डेवलपर” का चोला पहन लिया. 23-25 साल का दो साल की सेवा वाला युवा अफसर जिले का मुख्य विकास अधिकारी बन जाता है और सिंचाई से लेकर महिला कल्याण तक हर गतिविधि का “अप्रतिम एक्सपर्ट” भी बन गया. यही अफसर 14 साल की नौकरी के बाद ऑटोमेटिक आयुक्त-सह-सचिव बन कर कभी एक-दो साल राज्य की बिजली उत्पादन से लेकर वितरण जैसी टेक्निकल व्यवस्था का सबसे बड़ा विशेषज्ञ बन जाता है और फिर कभी कृषि-उत्पादन का “क” भी न जानते हुए कृषि उत्पादन आयुक्त (एपीसी) और फिर कभी खुद दस बीमारियों की जद  में रहते हुए चिकित्सा का सर्वेसर्वा. याने इसे एक परीक्षा में अन्य प्रतियोगियों से ज्यादा नंबर लाने के एवज में “अद्वैतवाद से अवमूल्यन” तक सभी ज्ञान का स्वामी करार दिया जाता है. 
लेकिन आज विकास हीं नहीं पूरा गवर्नेंस भी काफी टेक्निकल हो गया है और तकनीकी के बदलाव की रफ़्तार भी काफी तेज है. एक 58 साल के केंद्र के कृषि या पाली विषय से परीक्षा पास किये किसी वित्त सचिव को न तो जेनेटिक साइंस मालूम होता है ना हीं अर्थशास्त्र के मल्टी-वेरिएबल कर्व्स कहाँ पर ओब्सोलेसंस में जायेंगें और कहाँ “नार्थ” का रुख लेंगें, पता रहता है.      
अगर एक युवा राष्ट्रीय- या राज्य-स्तर पर आयोजित सिविल सेवा की प्रतियोगी परीक्षाओं में लीनियर अलजेब्रा, क्वांटम फिजिक्स के सवाल या अकबर के शासन काल में टोडरमल द्वारा चलाये गए “दह्सला” भू-राजस्व सिस्टम या प्रसाद के आंसू की कठिन हिंदी खंड-काव्य की व्याख्या कर लेता है तो इसकी क्या गारंटी है कि वह गवर्नेंस में भी आसक्ति व निष्ठा से काम करेगा या अधिकार पाने के बाद लालच के वशीभूत अनैतिक नहीं होगा. 
31 साल की आईएएस सेवा वाला अधेड़ चीफ सेक्रेटरी गैंग रेप में गिरफ्तार होता है जबकि 21 साल में इस परीक्षा में 26 वां रैंक पा कर “वन ऑफ़ द यंगेस्ट ऑफिसर्स” से नवाजी गयी आइएएस अधिकारी 22-23 साल की सेवा के बाद भ्रष्टाचार में जेल जाती है. इसी स्टील फ्रेम के शिकंजे में 70 साल से फंसा भारत न केवल अ-विकास, या स्लो विकास का शिकार रहा बल्कि भयंकर भ्रष्टाचार से कराहता रहा.
गलती सिर्फ आजाद भारत के शासकों द्वारा नहीं हुई. ब्रितानी प्राइम मिनिस्टर लॉएड जॉर्ज के 1927 में हाउस ऑफ़ कॉमन में इंडिया अफेयर्स पर बोलते हुए भारत में ब्रिटिश अफसरशाही, जिसमें भारतीय भी शामिल होने लगे थे, को “स्टीलफ्रेम” इसलिए कहा था कि ब्रिटिश मंसूबों को अंजाम देने के लिए इससे मुआफिक और भरोसेमंद कोई तंत्र नहीं है. सरदार पटेल ने हालांकि कभी भी भारत की अफसरशाही को “स्टीलफ्रेम” नहीं कहा था (हालांकि उनकी नाम पर यह चस्पा किया जाता है) लेकिन वे भी इससे प्रभावित जरूर थे. 
नतीजतन संविधान के अनुच्छेद 311 में इन अफसरों खासकर आईएएस कैडर को सुरक्षा कवच दिया. कई सदस्यों के जब इस पर ऐतराज जताया तो सरदार का संविधान सभा में कहना था “इन्हें सुरक्षा कवच इसलिए दिया जा रहा है ताकि ये अपने राजनीतिक आकाओं के सामने तन कर खड़े हो कर कह सकें कि वे केवल संविधान-सम्मत आदेश मानेंगें”. लेकिन 70 साल में ये राजनीतिक आकाओं के तलवे चाटकर अपनी सारी “प्रतिभा” मलाईदार पोस्टिंग में लगाने लगे.    
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पिछले दस सालों में क्या एक भी स्टीलफ्रेम अफसर तन कर मोदी मॉडल के गवर्नेंस में कह पाया है कि ईडी, सीबीआई या आईटी से वह काम न करवाएं जो राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित न हो. उसे डर है कि पोस्ट-रिटायरमेंट असाइनमेंट से महरूम कर दिया जाएगा. हाँ करेगा तो चुनाव आयोग सहित राज्यपाल जैसे महिमामंडित पदों पर बुढ़ापे में भी ऐश करेगा. इसके विरोध करने या नैतिकता पर टिके रहने के जींस तो सिस्टम कब के ख़त्म कर चुका होता है.  

(वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं)

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