इस साल आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी एआई कुछ वैज्ञानिक करिश्मों का सबब बन सकती है। इसकी झलक 2024 के नोबेल पुरस्कारों में देखने को मिल गई थी, जब भौतिकी का नोबेल अमेरिकी और कनाडाई भौतिकशास्त्रियों जॉन जे. हॉपफील्ड और ज्यॉफ्री हिंटन को एआई और आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (एएनएन ) में बुनियादी काम के लिए हासिल हुआ। रसायनशास्त्र का हाल भी वैसा ही रहा। वहाँ नोबेल का आधा हिस्सा अमेरिकी वैज्ञानिक डेविड बेकर को मिला, कंप्यूटेशनल मॉडलिंग के ज़रिए ऐसे प्रोटीन तैयार करने के लिए, जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। बाकी आधा गूगल डीपमाइंड से जुड़े दो ब्रिटिश वैज्ञानिकों डेनिस हैसबिस और जॉन जंपर में बराबर-बराबर बँटा, जिन्होंने एआई के ही इस्तेमाल से 20 करोड़, यानी लगभग सारे ही ज्ञात जैविक प्रोटीनों की पूरी बनावट उधेड़ कर रख दी थी।
मेडिकल साइंस में एआई के कमाल, डॉक्टर न जो कर पाए वो कर दिखाए!
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- 7 Jan, 2025

एक्स-रे, एमआरआई, और सीटी स्कैन की रिपोर्ट का विश्लेषण क्या डॉक्टरों से ज़्यादा बेहतर एआई कर सकती है? जिन एक्सरे में डॉक्टर रीढ़ में कोई परेशानी नहीं देख पाए, उसको एआई ने कैसे पहचान लिया?
आम आदमी की ज़िंदगी में कृत्रिम बुद्धि का दखल सर्च इंजनों और मोबाइल फोनों के ज़रिये पिछले दस-पंद्रह सालों से होता आ रहा है, लेकिन चैटजीपीटी, बिंगचैट, गूगल जेमिनी आदि के रूप में इंसानी भाषा के दायरे में सक्रिय इसके रूप का विश्वव्यापी प्रभाव पहली बार 2023 में महसूस किया गया। इस जलजले की शुरुआत अमेरिका में थोड़ा पहले हो गई थी। लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) पर कुछ समय तक अकेले ही काम करने वाली कंपनी ओपेन एआई ने अपने पहले प्रोडक्ट चैटजीपीटी को नवंबर 2022 में बाजार में उतारा था और उस साल के बीतने तक, यानी सिर्फ दो महीने के अंदर कुल दस करोड़ लोग इसे काम की चीज मानकर इसपर हाथ आजमाने लगे थे।