रविवार की सुबह उत्तराखंड में चमोली ज़िले के उच्च हिमालयी इलाक़े में मौजूद ऋषि गंगा नदी में अचानक आई बाढ़ का सैलाब धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों तक हर तरफ तबाही के निशान छोड़ अब गुज़र चुका है। लेकिन इस भयानक घटना ने लोगों के दिलों में जो दहशत फ़ैलाई है वह अब भी बरक़रार है।
रैणी गाँव के ग्राम प्रधान भवन सिंह राणा कहते हैं, ''सुबह के वक़्त हम रोज़ की तरह काम-काज के लिए तैयार हो रहे थे, कुछ लोग खेतों की तरफ जा रहे थे, कुछ लोग सौदा-पानी के लिए जोशीमठ बाज़ार की तरफ जाने की तैयारी कर रहे थे कि तभी ऊपर की तरफ़ से धमाके की आवाज़ आई और हमने देखा कि ग्लेशियर की तरफ़ से नदी के साथ धुंध का गुबार नीचे की ओर बढ़ता आ रहा है और नदी तबाही फैलाती हुई शोर मचा रही है।''
बहा ले गई नदी
राणा आगे कहते हैं कि बारिश का नामोनिशान नहीं था। धूप खिली थी, लेकिन फिर भी नदी में भयानक बाढ़ का सैलाब उतर आया था। ''हमने देखा नदी सब कुछ तबाह करती हुई आ रही थी। गाँव के निचले छोर पर नदी की ओर एक वृद्ध महिला अकेली रहती थी। हम उन्हें बचाने नीचे की तरफ़ दौड़ पड़े। देखा नदी, किनारे बने महाकाली के एक मंदिर को साथ बहा कर ले गई।''उत्तराखंड में चमोली ज़िले के रैणी गाँव का यह वही इलाक़ा है जो मानव इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरण आंदोलन में शुमार 'चिपको' का गवाह रहा है। गाँव के ठीक नीचे ऋषिगंगा नदी पर 13.12 मेगावॉट की ऋषिगंगा हाइड्रोपावर परियोजना का निर्माण चल रहा था।
नदी के साथ पानी का जो सैलाब तेज़ी से नीचे उतर रहा था, उसने इस परियोजना और रैणी गाँव को जोड़ने वाले पुल को ध्वस्त कर दिया।
सैलाब नीचे उतरा जहाँ यह धौलीगंगा पर बन रही 520 मेगावॉट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना से टकराया और उसे तबाह कर दिया।
लापता लोग
सैलाब के गुजरने के बाद प्रोजेक्ट की पूरी साइट मलबे के नीचे दबकर सपाट हो गई और दोनों ही परियोजनाओं में सुरंगों में काम कर रहे तक़रीबन 150 से अधिक मज़दूर लापता हो गए। इधर, आपदा के तुरंत बाद से ही ज़िला प्रशासन, एसडीआरएफ़, आईटीबीपी, सेना और एनडीआरएफ़ की टुकड़ियाँ दुर्घटना क्षेत्र में राहत और बचाव कार्यों में लगी हुई हैं। बचावकर्मियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती परियोजना के लिए बनाई जा रही वे सुरंगें हैं, जहाँ सैकड़ों मज़दूर काम कर रहे थे। चमोली ज़िले के आपदा प्रबंधन अधिकारी नंद किशोर जोशी ने बताया है, 'अब तक इन सुरंगों और क्षतिग्रस्त इलाक़ों से 18 शवों को बाहर निकाला जा सका है और 25 लोगों को सुरक्षित बचाया जा सका है।'' इस दुर्घटना में सैकड़ों मवेशियों के भी मारे जाने की ख़बर है।तपोवन प्रोजेक्ट साइट में चल रहे बचाव कार्य को आशंकाओं और टूटती उम्मीद भरी निगाहों से निहार रहे सहारनुपर निवासी मुकेश पेटवाल सवाल पूछने पर रुआंसे हो जाते हैं। प्रोजेक्ट साइट पर काम कर रहे उनके भाई विक्की से पिछले रोज़ सुबह में उन्होंने विडियो चैट की थी।
लेकिन कुछ देर बाद जब ख़बरों में उन्हें इस तबाही का पता चला तब से उनके भाई का फ़ोन स्विच ऑफ़ आ रहा है। वह बिलखते हुए कहते हैं, ''सुबह में विडियो कॉल पर बात हुई थी फिर जब ख़बर देखी उसके बाद से उसका फ़ोन नहीं मिल रहा। एक और लड़का था, उससे बात हुई है, वह ज़िंदा है। लेकिन मेरे भाई का कोई पता नहीं चल पा रहा।''
ऋषि गंगा नदी के पुल के ध्वस्त हो जाने से नदी के दूसरी ओर बसे तक़रीबन एक दर्जन गाँवों से संपर्क पूरी तरह कट गया है।
क्या कहना है प्रभावित हुए लोगों का?
तपोवन में मौजूद सामाजिक कार्यकर्ता मोहित डिमरी ने बताया कि इन गाँवों में रसद और अन्य चीज़ों की सप्लाई पूरी तरह बाधित है और आपूर्ति सुचारु करने के लिए प्रशासन हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल कर रहा है।
इधर प्रभावित इलाक़ों के ग्रामीणों ने आरोप लगाया है कि उनके इलाक़ों में राहत के काम में देरी और लापरवाही बरती जा रही है। रैणी गाँव की महिलाओं के एक समूह से बातचीत करने पर एक वृद्ध महिला रूणी देवी का कहना था, ''हमारे गाँव की गौरा देवी ने चिपको आंदोलन से दुनिया भर में नाम कमाया। लेकिन आज हमारे लिए कुछ नहीं है। हम इतनी बड़ी आपदा में फंसे हैं लेकिन हमारे लिए कोई नहीं है। आप लोगों को हमारे गांव में चल कर देखना चाहिए कि वहां क्या हालत है।''
रूणी देवी आगे कहती हैं, ''आपदा के बाद से सब लोग कंपनी (जल विद्युत परियोजना) को हुए नुक़सान की ही बात कर रहे हैं, सारा राहत और बचाव का काम भी वहीं चल रहा है। हमारे गाँवों की ओर कोई देखने वाला नहीं है।''
इतना पानी कहाँ से आया?
इधर यह अब तक इस बात की पुख़्ता और आधिकारिक तौर पर कोई जानकारी नहीं है कि नंदादेवी पर्वत श्रृंखला की तलहटी के इस ग्लेशियर से नीचे उतरती नदी में अचानक इतनी भारी मात्रा में पानी कैसे आया? इसकी जाँच के लिए एक विशेषज्ञों का एक दल आज इस इलाक़े का दौरा कर रहा है।
फ़िज़िकल रिसर्च लैबोरेटरी अहमदाबाद से रिटायर्ड वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल दशकों तक हिमालयी ग्लेशियर और भूगोल का अध्ययन करते रहे हैं। बीती 1 फ़रवरी से 6 फ़रवरी तक अपने एक शोध के सिलसिले में वे मलारी और रैणी गाँव के इन इलाक़ों में ही मौजूद थे जो कि अब आपदा के शिकार हुए हैं।
जुयाल कहते हैं,
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''धौली गंगा घाटी उत्तराखंड हिमालय की सबसे अधिक संवेदनशील और अशांत घाटी है। उसकी स्वाभाविक वजह यह है कि इस इलाक़े में दूसरी घाटियों की तुलना में सबसे अधिक ग्लेशियर हैं।"
डॉ. नवीन जुयाल, पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक, फ़िज़िकल रिसर्च लैबोरेटरी
क्या कहना है वैज्ञानिकों का?
जुयाल कहते हैं ''अभी हमारे पास कोई ऐसा डेटा नहीं है, जिससे इस एक्स्ट्रीम इवेंट के बारे में पुख़्ता निष्कर्षों तक पहुँचा जा सके। सेंटीनल का कुछ सेटेलाइट डेटा हमें उपलब्ध हुआ है, लेकिन वह 3 तारीख़ का डेटा है। अब 13 तारीख़ को सेटेलाइट वहाँ से गुजरेगी तो नए डेटा से इसकी तुलना करके हम क़ाफ़ी हद तक सटीक जानकारियाँ पा सकेंगे। लेकिन इतना निश्चित है कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग ने इस दुर्घटना को आकार दिया है।''
जुयाल अनुमान लगाते हुए कहते हैं, ''6 तारीख़ तक ऋषि गंगा नदी में डिस्चार्ज में कोई कमी नहीं थी, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय ऊपर कोई अस्थायी झील बनी हो। मैं उसी पुल पर खड़ा था जो आज बह गया है। अगर पानी का बहाव तब तक रुका होता तो नीचे ऋषि गंगा प्रोजेक्ट में इसका पता चल गया होता। तो यह वाकिया उसके बाद ही हुआ होगा और यह काफ़ी अचानक हुई घटना लगती है।''
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''इस इलाक़े का जो डेटा उपलब्ध है, उसमें इस इलाक़े में छोटे-छोटे ग्लेशियर झील तो देखे गए हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इतनी छोटी झील के टूटने से इतनी बड़ी आपदा आ सकती है। अकेले ग्लेशियर झील के टूटने या हिमस्खलन के चलते यह बाढ़ आई, मुझे यह नहीं लगता।"
डॉ. नवीन जुयाल, पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक, फ़िज़िकल रिसर्च लैबोरेटरी
दिशा-निर्देश ताक पर!
वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि ये कई घटनाएं साथ साथ हुई हैं। कुछ दिन पहले इस इलाक़े में बर्फ़बारी हुई थी और फिर तेज़ धूप ने बर्फ़ को पिघलाया, उसकी भी इसमें भूमिका हो सकती है।''
इधर इस दुर्घटना ने अतिसंवेदनशील उच्च हिमालय के इलाक़ों में बनाई जा रही विकास परियोजनाओं पर फिर सवाल खड़े किए हैं। पर्यावरणविद् और हिमालयी समाज के अद्येता डॉ. शेखर पाठक कहते हैं, ''इस घटना ने फिर बताया है कि संवेदनशील हिमालय के बारे में हमारी जानकारियाँ बेहद सीमित हैं। लेकिन बावजूद इसके हमारी लापरवाहियाँ असीमित हैं।"
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"2013 की आपदा के अध्ययन के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित कमेटी ने साफ़ तौर पर उच्च हिमालयी इलाक़ों में किसी भी क़िस्म की जल विद्युत परियोजनाओं पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी। लेकिन ऐसे सुझावों की हमेशा अनदेखी हुई है और परिणाम हमारे सामने हैं।''
डॉ. शेखर पाठक, पर्यावरणविद
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