योगी सरकार की यह कैसी सियासत है कि एक ओर तो वह मुज़फ़्फ़रनगर दंगों से जुड़े आपराधिक मामलों को वापस ले रही है, वहीं दूसरी ओर 34 साल पुराने सिख विरोधी दंगों की जाँच के लिए एसआईटी का गठन कर उन मुक़दमों की भी जाँच कराने के लिए कह रही है जिनमें आरोपियों को कोर्ट से राहत मिल चुकी है।
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एसआईटी दंगों के दौरान कानपुर में हुई हिंसा के मामलों की जाँच करेगी। इस एसआईटी का कार्यकाल 6 महीने का होगा और यह टीम दंगों के दौरान दर्ज़ की गई एफ़आईआर की भी जाँच करेगी। बताया जा रहा है कि सिख दंगों के दौरान हुए गंभीरतम अपराधों की सबसे पहले जाँच की जाएगी। सवाल यह है कि सिख विरोधी दंगों की जाँच कराने की यह याद सरकार को लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ही क्यों आई जबकि सरकार में आए उसे दो साल का वक़्त हो चुका है।
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दूसरी ओर, मुज़फ़्फ़रनगर दंगों को लेकर योगी सरकार शुद्ध ‘राजनीति’ कर रही है। 'सबका साथ सबका विकास' की बात करने वाली बीजेपी मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के मामले में तो आरोपियों को ग़रीब बताकर उन्हें क्लीन चिट दे रही है लेकिन दूसरी ओर सिख विरोधी दंगों की वह फिर से जाँच करा रही है।
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बता दें कि योगी सरकार ने 2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगों से जुड़े 38 आपराधिक मुक़दमे ख़त्म करने की सिफ़ारिश की है। इन दंगों के दौरान 60 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी और हज़ारों लोग बेघर हो गए थे। इन मामलों में डकैती, आगजनी से जुड़े मुक़दमे शामिल थे। दंगों के वक़्त राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। इन दंगों में बीजेपी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान, विधायक सुरेश राणा, संगीत सोम अभियुक्त हैं।
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बीजेपी ने योगी सरकार के फ़ैसले का पूरी तरह बचाव करते हुए कहा है कि ये मुक़दमे बेहद ग़रीब लोगों पर दर्ज़ किए गए थे। यूपी सरकार ने कहा है कि इन लोगों को झूठे मुक़दमे में फंसाया गया था।
बीजेपी पर यह आरोप लगता रहा है कि उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी ज़मीन मज़बूत करने के लिए ही उसने जानबूझकर यह दंगे करवाए थे। इन दंगों के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बड़े पैमाने पर मतों का ध्रुवीकरण हुआ था और बीजेपी को अकेले दम पर यूपी की 80 में से 71 सीटों पर जीत मिली थी।
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