अगर यह कहा जाए कि मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान करके उन अति दलित और अति पिछड़ी जातियों को भी अपने विरुद्ध कर लिया है, जिन्हें बीजेपी का समर्थक माना जाता था, तो ग़लत न होगा। अब ये जातियाँ सपा-बसपा गठबंधन के पक्ष में वोट डालकर आगामी लोकसभा चुनावों में बीजेपी का खेल बिगाड़ सकती हैं। क्या ऐसा होगा?
सपा-बसपा गठबंधन अभी घोषणा में है, जो सीटों के बँटवारे के बाद अमल में आएगा। पर, आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के आरक्षण के मुद्दे को लेकर दोनों का मत एक-दूसरे के विपरीत है। जहाँ सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इसका विरोध किया है, वहीं बीएसपी मुखिया मायावती इसकी माँग करती रही हैं और राज्यसभा में उसके सांसदों ने उसके पक्ष में मतदान किया है। इसलिए यदि यह गठबंधन होता है, तो सपा को फ़ायदा होगा और बीएसपी को नुक़सान हो सकता है। इसका कारण यह है कि सपा के साथ यादव और मुस्लिम वोटों का बड़ा ज़खीरा है। इसके विपरीत बीएसपी वोट बैंक दलित जातियों में केवल जाटव और चमार जाति तक सिमटा हुआ है। उसके साथ न मुसलमान है, और न पिछड़ी जातियाँ हैं। मायावती ने न कभी मुसलमानों और पिछड़ी जातियों के मुद्दे उठाए और न उनके हक़ के बारे में बात की है। इसलिए इन चुनावों में मायावती को ज़्यादा फ़ायदा होने वाला नहीं है।
एक बात मायावती के सम्बन्ध में और है।
मायावती पलटी मारने में मशहूर हैं। कब उनका बीजेपी-प्रेम जाग जाए और पलटी मार जाएँ, कोई नहीं जानता। मुसलमानों और पिछड़ों को उन पर अब भी भरोसा नहीं है। वह आशंकित हैं कि अगर बीजेपी ने उन पर दबाव बनाया, तो सीबीआई के डर से वह गठबंधन होने से पहले भी पलटी मार सकती हैं, और उसके बाद भी।
और यह भी हो सकता है कि वह चुनाव बाद भी बीजेपी के साथ चली जाएँ। उनकी शंका निराधार नहीं है, क्योंकि वह अतीत में तीन बार बीजेपी से गठबंधन करके सरकार बना चुकी हैं। दूध का जला छाछ भी फूँक कर पीता है, इसलिए मुसलमान के लिए अखिलेश के मुकाबले मायावती भरोसेमंद नहीं हैं।
क्या मायावती सचमुच बीजेपी के ख़िलाफ़ हैं? इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ समय से वह बराबर बीजेपी के ख़िलाफ़ बोल रही हैं, जिससे उन्हें ठीक ही बीजेपी-विरोधी समझा जा सकता है। पर जो उनके स्वभाव को जानते हैं, वे अभी भी उनको बीजेपी विरोधी नहीं समझते हैं। उनका तर्क है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी वह बीजेपी के विरोध में बोल रही थीं, पर सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़कर उन्होंने बीजेपी की ही मदद की थी। उस चुनाव में बीएसपी का सफ़ाया हो गया था, जो होना ही था। लेकिन बीजेपी के साथ वह उनका अंदरखाने समझौता ही था। किन्तु, 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा के साथ गठबंधन करने का क्या कारण है? कुछ जानकारों का कहना है कि ऐसा करना उनकी मज़बूरी है।
- अगर मायावती 2014 की तरह 2019 के लोकसभा चुनावों में भी अकेले लड़ने का निश्चय करेंगी, तो उसके वही नतीजे आयेंगे, जो 2014 के चुनावों के आए थे। इससे पार्टी के ख़त्म होने की सम्भावना भी हो सकती है, और उन्हें अपने वोट बैंक की बग़ावत का सामना भी करना पड़ सकता है। इसलिए गठबंधन मायावती की ज़रूरत भी है, और मज़बूरी भी।
निश्चित रूप से समाजवादी पार्टी सामान्य बनाम सवर्ण आरक्षण को चुनावी मुद्दा बना सकती है, पर मायावती जी ऐसा नहीं कर सकतीं, क्योंकि वह इसके समर्थन में हैं और शुरू से सवर्णों की बात करती आई हैं।
कांग्रेस से किनारा क्यों?
एक बड़ा सवाल यह है कि सपा-गठबंधन में कांग्रेस को शामिल न करना एक बड़ी राजनीतिक भूल होगी, जिसकी गंभीरता को अभी न अखिलेश समझ रहे हैं और न मायावती, पर इसके संभावित परिणाम इन दोनों के लिए घातक हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में बीएसपी के पूर्व प्रदेश सचिव धीरज कुमार शील का कहना है कि अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ती है, तो सपा-बसपा दोनों का नुक़सान होना तय है। उनका कहना है कि यह इसलिए होगा, क्योंकि जिन लोगों को इन दोनों दलों में टिकट नहीं मिलेगा, वह बाग़ी होकर कांग्रेस के टिकट पर लड़ने की कोशिश करेगा। इससे वह कहते हैं कि कांग्रेस सपा-बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब हो सकती है। श्री शील यह भी बताते हैं कि कांग्रेस इस समय राष्ट्रीय राजनीति कर रही है, और जिस तरह राहुल गाँधी विपक्ष की सार्थक भूमिका निभा रहे हैं, उससे कांग्रेस की ज़मीन मजबूत हुई है, और जनता का नज़रिया भी बदला है। इससे अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पहले जैसी स्थिति नहीं रह गई है। इसलिए वह कहते हैं कि सपा-बसपा के लिए कांग्रेस की उपेक्षा करना अक़्लमंदी नहीं है।
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