बीजेपी ने क्या उत्तर प्रदेश में ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव में 825 सीटों में से 600 से ज़्यादा सीटें जीतकर बड़ी जीत हासिल नहीं की है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस जीत के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उदार भाव से तारीफ़ ‘ज़रूरत से ज़्यादा तारीफ़’ है? ज़िला पंचायत अध्यक्ष पदों पर 75 में 67 सीटों पर जीत के बाद ब्लॉक प्रमुख चुनाव में मिली जीत क्या सिर्फ़ सत्ता का दुरुपयोग या संयोग कही जा सकती है?
ये वो सवाल हैं जिनका जवाब उत्तर प्रदेश में ग़ैर बीजेपी दलों के नेताओं को देना होगा।
यह सच है कि चुनाव के दौरान हिंसा हुई। पुलिस लाचार भी नज़र आयी और सत्ताधारी दल के सामने नतमस्तक भी। लोभ, लालच, सत्ता का दुरुपयोग सारे आरोप भी अगर सच मान लिए जाएँ तो क्या इससे यह पता नहीं चलता कि उत्तर प्रदेश में विपक्ष ने प्रतिकार करने का सामान्य स्वभाव भी छोड़ दिया है? निश्चित रूप से इस सवाल का जवाब स्पष्ट रूप से ‘हां’ नहीं हो सकता क्योंकि कई जगहों पर कम से कम समाजवादी पार्टी के नेताओं ने प्रतिकार भी दिखाया है और जुल्म भी सहे हैं। मगर, व्यापक पैमाने पर उत्तर ‘हां’ ही है।
निर्विरोध जीत क्यों नहीं रोक सका विपक्ष?
ब्लॉक प्रमुख के पदों के लिए हुए चुनाव में 825 सीटों के लिए 75,255 वोटर हैं। ये वोटर क्षेत्र पंचायत सदस्य या बीडीसी होते हैं और इनका निर्वाचन 29 अप्रैल तक संपन्न हुए चुनाव में हो चुका था। अब चूँकि 825 सीटों में से 476 सीटों पर ही वोट डाले गये क्योंकि बाक़ी 349 सीटों पर निर्विरोध चुनाव हो चुके थे, इसलिए क़रीब 43.5 हजार बीडीसी वोटरों ने ही मतदान में हिस्सा लिया। ब्लॉक स्तर पर बीजेपी इन वोटरों को अपने प्रत्याशियों की जीत सुनिश्चित करने के मक़सद से इकट्ठा करने में कामयाब रही। ऐसा कैसे संभव हुआ?
क़रीब 300 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार निर्विरोध जीत गये। समाजवादी पार्टी के महज 17 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गये। एक तिहाई से ज़्यादा सीटों पर बगैर मतदान के निर्विरोध जीत समाजवादी पार्टी समेत समूचे विपक्ष की साझा हार है। इसका मतलब यह हुआ कि एक तिहाई से ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने तक के लिए उम्मीदवार खड़े नहीं किए जा सके। लोभ-लालच और डराना-धमकाना एक वजह ज़रूर हो सकता है लेकिन इससे निपटने के लिए रणनीति का अभाव समानांतर रूप से बड़ी वजह थी। मैक्रो लेवल पर ऐसी स्थिति से निपटने के लिए विपक्ष की तैयारी बिल्कुल नहीं दिखी।
बीजेपी के मुक़ाबले क्यों नहीं दिखे दो प्रत्याशी भी?
एक तिहाई सीटों पर निर्विरोध जीत के बाद बीजेपी के हौंसले बुंलद थे। काम सिमट चुका था। फोकस होकर मतदान की तैयारियों पर पार्टी जुट गयी। यहाँ भी मुक़ाबला बहुत मुश्किल नहीं रहा। सीटें थीं 476 और उम्मीदवार थे 1174। इसका मतलब यह हुआ कि हर सीट पर औसतन ढाई उम्मीदवार भी नहीं थे। कहीं बीजेपी के सामने समाजवादी थे तो कहीं दूसरे दल के समर्थक उम्मीदवार।
आमने-सामने का मुक़ाबला था जिसमें बीएसपी चुनाव से बाहर होकर बीजेपी की मददगार साबित हुई तो जिन जगहों पर कांग्रेस या छोटे-छोटे दलों की मौजूदगी थी वहाँ उनमें जीत को लेकर कोई ललक नहीं थी। ऐसे वोटरों को बीजेपी ने योजनाबद्ध तरीक़े से साध लिया।
क्या विपक्ष एक रणनीति के तहत ऐसी सीटों को चुनकर रणनीति बनाने बैठा? नहीं।
ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव वाली रणनीति ही दोहराई गयी
बीजेपी ने जब ज़िला पंचायत अध्यक्ष के 75 सीटों में से 67 सीटें जीती थीं तब भी रणनीति वही थी। विपक्ष इससे भी सीख ले सकता था। लेकिन, ऐसा दिखा नहीं। बीजेपी के लिए जोड़-तोड़ की रणनीति पर अंकुश लगाने के लिए विपक्ष कहीं मैदान में दिखा ही नहीं। यही कारण है कि जब जनता ने वोट किए तो उसकी पहली पसंद बीजेपी उम्मीदवार नहीं थे। लेकिन, जब जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने वोट किए तो बीजेपी के अलावा दूसरा विकल्प उनके पास नहीं था। विपक्ष ने विकल्प बनने की कोशिश नहीं दिखलायी। इसलिए बीजेपी का काम आसान हो गया।
उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में समाजवादी पार्टी को सबसे ज़्यादा सीटें मिली थीं और बीजेपी दूसरे नंबर पर रही थी। इसी पंचायत चुनाव में निर्वाचित सदस्यों ने जब ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख चुनने के लिए वोट डाले तो नतीजे भगवामय हो गये। 75 ज़िला पंचायत अध्यक्षों में से 67 और 825 ब्लॉक प्रमुखों में से 635 बीजेपी ने जीत ली। यह चमत्कार है और इस चमत्कार की कई वजहों में ख़ुद विपक्ष भी बड़ी वजह बनकर सामने आया।
क्यों नहीं उठा 3000 से ज़्यादा मौत का मुद्दा?
ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में बीजेपी की इस जीत के शोर में जो सबसे बड़ा प्रश्न दब-गया है वो है पंचायत चुनाव के दौरान ढाई हज़ार से ज़्यादा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षकों की मौत। आश्चर्य है कि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष की ओर से यह मुद्दा उठाया तक नहीं गया। कोरोना काल में जबरन ड्यूटी करते हुए इन शिक्षकों की मौत हुई लेकिन इनकी मौत को कोरोना से हुई मौत के तौर पर न तो पहचाना गया है और न ही अब तक मुआवजे के लिए कोई पहल हुई है।
प्राथमिक शिक्षक संघ की सूची के 1621, माध्यमिक शिक्षक संघ की सूची के 500 शिक्षक और राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद के 1000 कर्मचारियों की मौत के दावों को जोड़कर देखें तो पंचायत चुनाव के दौरान 3 हजार से ज़्यादा मौत हो चुकी है।
हालांकि यूपी सरकार ने दावा किया था कि केवल 3 कर्मचारी ही पंचायत चुनाव के दौरान मारे गये थे। हंगामा बरपने पर यह तर्क दिया गया कि चुनाव ड्यूटी के 24 घंटे के भीतर हुई मौत ही पंचायत चुनाव के दौरान हुई मौत मानी गयी है। सही आँकड़े के लिए सरकार ने जांच कराने का भरोसा दिलाया था।
यूपी में पहले स्तर के चुनाव में 3 हज़ार से ज़्यादा मौतें कोरोना की वजह से हुई हों और वह दूसरे या तीसरे स्तर के चुनाव के दौरान मुद्दा न बन सके तो क्या इसके लिए बीजेपी ज़िम्मेदार है? बीजेपी को थाली में परोसकर विपक्ष ने जीत दी है। इसे दूसरे रूप में देखें तो बीजेपी ने विपक्षी दलों को अलग-थलग कर कमजोर बनाया और फिर चुनावों में कुचल दिया।
विपक्ष के लिए आगे चुनौती और बड़ी
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि क्या 2022 के विधानसभा चुनावों में भी ऐसा ही होगा? यह मान लेना बगैर कुछ किए लड्डू की उम्मीद रखना है कि जब जनता सीधे वोट करेगी तो बीजेपी के ख़िलाफ़ वोट करेगी क्योंकि वह दुखी है, पीड़ित है, नाराज़ है। बीजेपी जनता की नाराज़गी के बावजूद जनता के बीच है। यही बात बीजेपी को बाक़ी दलों पर बढ़त दिलाती है। विधानसभा चुनाव में विकल्प के तौर पर खुद को पेश करने का दायित्व विपक्ष का है। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो यह उसकी इतनी बड़ी कमजोरी है कि जनता के लिए बीजेपी ख़ुद विकल्प बन जाएगी।
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