मायावती और मुलायम सिंह यादव अपनी पुरानी अदावत भूल कर 24 साल बाद गुरुवार को एक मंच पर आए। दोनों ने एक दूसरे की तारीफ़ की। मायावती ने नेताजी को पिछड़ों का असली प्रतिनिधि क़रार दिया तो मुलायम सिंह ने उस मंच पर आने के लिए बहन जी के प्रति आभार जताया। यह ऐसा अद्भुत नज़ारा था, जिस पर कुछ महीने पहले तक कोई यक़ीन नहीं कर सकता था। लेकिन 24 साल पहले क्या हुआ था, जिसने वंचितों के इन दो दिग्गज प्रतिनिधियों के बीच ऐसी खाई बना दी कि दोनों एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गए?
सपा-बसपा की जोड़ी
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मसजिद को ढहाए जाने के बाद सांप्रदायिकता की राजनीति को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने 1993 में हाथ मिला लिया। उस साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव दोनों दलों ने एक साथ चुनाव लड़ा। एसपी ने 256 और बीएसपी ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा। एसपी को 109 तो बीएसपी को 67 सीटों पर कामयाबी मिली थी। बीएसपी ने बाहर से समर्थन दिया, सपा की सरकार बनी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने।
भारतीय जनता पार्टी ने सपा-बसपा जोड़ी को तोड़ने की रणनीति बनाई और 1995 में बीएसपी को प्रलोभन दिया कि वह सरकार से समर्थन वापस ले ले, बीजेपी उसकी सरकार को बाहर से समर्थन देगी।
क्या हुआ था गेस्ट हाउस में?
इसकी भनक मुलायम सिंह को लग गई। 2 जून 1995 को लखनऊ स्थित गेस्ट हाउस में बीएसपी की बैठक हुई, जिसमें सरकार से समर्थन वापस लेने पर भी विचार हुआ। सपा समर्थकों ने वहां जमकर हंगामा किया और उन्होंने बसपा विधायकों से मारपीट की।
लेखक-पत्रकार अजय बोस ने अपनी किताब ‘बहन जी’ में उस दिन के घटनाक्रम के बारे में लिखा कि सभा ख़त्म होने के बाद मायावती कुछ चुने हुए विधायकों को साथ लेकर चर्चा के लिए अपने कमरे में चली गईं। बाकी विधायक कॉमन हॉल में ही बैठे रहे। शाम चार बजे के बाद करीब सपा विधायकों और कार्यकर्ताओं के समूह ने गेस्ट हाउस पर धावा बोला। उस भीड़ में दो सौ से ज़्यादा लोग थे।
मारपीट
वे चिल्ला रहे थे, नारे लगा रहे थे। खुल्लम-खुल्ला बसपा विधायकों और उनके परिवार को घायल या खत्म करने की धमकियाँ दे रहे थे। बसपा विधायकों ने मुख्य दरवाज़ा बंद कर दिया। बाहर से आई भीड़ ने उसे तोड़ दिया गया। मारपीट शुरू हो गई।
कुछ विधायकों को को पीटते हुए घसीट कर गाड़ी में डाल कर मुख्यमंत्री निवास भेज दिया गया। उनसे सपा सरकार को समर्थन देने वाले शपथ पत्र पर दस्तख़त कराए गए। मारे डर के इनमें से कुछ ने तो कोरे कागज पर भी दस्तख़त कर दिए।
गेस्ट हाउस में हो रहे पूरे हंगामे के बीच बसपा प्रमुख मायावती को दो पुलिस अफसरों की हिम्मत ने बचाया। हजरतगंज स्टेशन के एसएचओ विजय भूषण और वीआईपी के एसएचओ सुभाष सिंह बघेल ने किसी तरह मायावती और बीएसपी के दूसरे लोगों को बचाया। इन दोनों ने कुछ सिपाहियों के साथ बड़ी मुश्किल से भीड़ को पीछे धकेला। फिर सब गलियारे में लाइन बनाकर खड़े हो गए ताकि कोई उन्हें पार न कर सके। इस सब के बाद जब लखनऊ के ज़िला मजिस्ट्रेट मौके पर पहुंचे तब हालत पर काबू पाया गया। उन्होंने एसपी के साथ मिलकर भीड़ को नियंत्रित किया।
क्या मायावती की जान को ख़तरा था?
मायावती ने कुछ विधायकों के साथ दो कमरों के सेट में शरण ले रखी थी। उन्होंने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था। अंदर मेज और पलंग दरवाजे से सटा कर लगा दिए गए थे ताकि छिटकनी टूटने पर दरवाजा न खुले। लेकिन बाहर का मंजर कुछ और था। अजय बोस अपनी किताब ‘बहन जी’ में लिखते हैं।
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(जातिसूचक शब्द) औरत को उसकी मांद से घसीट कर बाहर निकालो, भीड़ की दहाड़ बाहर सुनाई दी, जिसमें कुछ विधायक और थोड़ी सी महिलाएँ भी शामिल थीं। दरवाजा पीटने के साथ-साथ चिल्ला-चिल्ला कर यह भीड़ गंदी गालियाँ देती हुई ब्योरेवार यह व्याख्या कर रही थीं कि एक बार घसीट कर बाहर निकालने के बाद मायावती के साथ क्या किया जाएगा।
अजय बोस की किताब 'बहन जी' का एक अंश
इस आधार पर बाद में यह कहा गया कि मायावती की आबरू लूटने की योजना थी। समाजवादी पार्टी ने इस आरोप समेत तमाम आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया था।
बीजेपी विधायक ने बचाई मायावती की जान
ठीक उसी समय वहाँ बीजेपी के विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी आ गए। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में रह चुके थे और लाठी भांजने में निपुण थे। उन्होंने लाठी लेकर उस उन्मत्त भीड़ का सामना किया और मायावती को बचा कर पिछले दरवाजे से निकाल बाहर ले गए। माया उन्हें आजीवन अपना भाई बताती रहीं, उनके ख़िलाफ़ कभी अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। उनकी हत्या हो जाने के बाद वह उनके घर गईं थीं और रो पड़ी थीं।इस कांड के बाद सपा-बसपा में एक दीवार बन गई। दोनों पार्टियाँ एक दूसरे की विरोधी हो गईं और दोनों शीर्ष नेता एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गए।
लोकसभा चुनाव के पहले जब मायावती और अखिलेश यादव ने साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस किया तो उसमें मायावती ने कहा था कि बहुजन और पिछड़ों को एक साथ लाने के लिए वह गेस्ट कांड को नज़रअंदाज कर रही हैं। गुरुवार की रैली में दोनों दलों का एक मंच पर आना इस मामले में भी अहम है कि माया और मुलायम ने राजनीतिक मजबूरियों से ही सही, पुरानी अदावत को पीछ छोड़ दिया, कड़वाहट को छोड़ा और दोनों ने एक दूसरे की तारीफ़ की।
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