भाजपा का प्रभाव
यूपी की चुनावी गाथा में भाजपा आज भी मोदी लहर पर सवार लगती है। लेकिन इस लहर के बावजूद पिछले दो चरणों में मतदान प्रतिशत गिरा है। हालांकि भाजपा नेताओं का कहना है कि मतदान प्रतिशत में कमी का असर अकेले भाजपा के खाते में क्यों राजनीतिक विश्लेषक डाल रहे हैं। क्या दूसरे दलों का इसका नुकसान नहीं हुआ होगा। बहरहाल, दिल को बहलाने के गालिब ये ख्याल अच्छे हैं। भाजपा ने 2014 में इन 10 में से सात सीटों पर जीत हासिल की और 2019 में अपनी सीटों को आठ तक बढ़ा दिया। तो इसे एक बेहतरीन प्रदर्शन माना जाएगा। लेकिन 2024 में क्या होगा। 400 पार नारे के लिए उसे कम से कम ये 10 सीटें और नहीं तो कम से कम 9 सीटें तो जीतनी होंगी। संभल, मैनपुरी, बदांयू और फिरोजाबाद समाजवादी पार्टी के असर वाली सीटें हैं।यादव और मुस्लिम समीकरणः एटा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, बदायूँ और संभल जैसे लोकसभा क्षेत्रों में यादव मतदाता एक मजबूत समूह हैं। जो अक्सर मुस्लिम मतदाताओं के साथ मिलकर चुनावी तूफान या महत्वपूर्ण वोट बैंक बन जाते हैं। दूसरी ओर, मुस्लिम मतदाता संभल, बरेली, आंवला और बदायूँ के साथ-साथ एटा, मैनपुरी, फ़तेहपुर सीकरी, आगरा और फ़िरोज़ाबाद में पर्याप्त प्रभाव रखते हैं, जिनका अनुपात 5.7% से 12.6% तक है। लेकिन यहां यह बताना जरूरी है कि मुस्लिम मतदाताओं को पिछले दो चुनावों से इतना परेशान किया जाता है कि वो वोट नहीं डाल पाते हैं। कई बार उनके नाम मतदाता सूची से गायब कर दिए जाते हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि रामपुर में विधानसभा उपचुनाव ऐसे ही हथकंडे अपनाकर जीता जा चुका है। इस बार सपा और कांग्रेस ने मतदाता सूची पर कितनी मेहनत की है, इसका पता 7 मई को चल जाएगा, जब वोट डाले जाएंगे। एटा में लोध मतदाता निर्णायक भूमिका के रूप में उभरे हैं, जबकि काछी/शाक्य/मुराव समुदाय का एटा, बदायूं और मैनपुरी में प्रभाव है। लेरिन इन इलाकों में भी मुस्लिम मतदाताओं के साथ इनका तालमेल ही किसी पार्टी को फायदा पहुंचा सकता है। मसलन बदायूं और आंवला सीटों पर बिना मुस्लिम वोट हासिल किए काछी और शाक्य के वोट इतने असरदार नहीं होते।
संभल की स्थिति
संभल यादवों का पुराना गढ़ है। संभल ने सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव को 1998 और 1999 में दो बार और सपा के एक अन्य दिग्गज राम गोपाल यादव को 2004 में एक बार लोकसभा भेजा। बसपा ने 1996 और 2009 में दो बार यह सीट जीती। यहां कमल भी एक बार 2014 में खिला था। जबकि कांग्रेस ने आखिरी बार 1984 में यह सीट जीती थी। 2019 में सपा के दिग्गज नेता शफीकुर रहमान बर्क ने जीत हासिल की थी। बर्क साहब अब नहीं रहे। मौजूदा सांसद के निधन के बाद सपा ने उनके पोते जिया-उर-रहमान बर्क को मैदान में उतारा है। बीजेपी ने सीट दोबारा हासिल करने के लिए अपने पुराने उम्मीदवार पर भरोसा किया है। लेकिन बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवार सौलत अली को मैदान में उतारा है, जिससे मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। लेकिन यह मुकाबला कागज पर लगता है। बसपा अब उस स्थिति में नहीं है कि जाटव वोटों के दम पर संभल में कोई करिश्मा कर पाए। क्योंकि मुस्लिम और ओबीसी वोट सपा-कांग्रेस के पास है।हाथरस की स्थिति: 1991 से हाथरस भाजपा का गढ़ रहा है। यह अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है, जहां भाजपाको लगातार जीत मिली है। सपा और बसपा को यहां पैठ बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। 2009 में, आरएलडी ने भाजपा के चुनाव पूर्व सहयोगी के रूप में यह सीट जीती थी। कांग्रेस यहां आखिरी बार 1971 में जीती थी, जबकि एसपी और बीएसपी कभी नहीं जीतीं। 2019 में बीजेपी के राजवीर सिंह दिलेर ने एसपी के रामजी लाल सुमन को हराया। 2024 में बीजेपी ने अनूप वाल्मिकी को मैदान में उतारा है जबकि एसपी और बीएसपी ने क्रमश: जसवीर वाल्मिकी और हेमबाबू धनगर को टिकट दिया है। दिलेर की पिछले सप्ताह दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। हालांकि दलित मतदाताओं में भाजपा की छवि हाथरस कांड की वजह से प्रभावित हुई लेकिन भाजपा ने समय रहते डैमेज कंट्रोल भी कर लिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई नेताओं ने हाथरस के लगातार दौरे किए हैं। लेकिन भाजपा प्रत्याशी नया चेहरा होने की वजह से मोदी की छवि के आधार पर दावा कर रहा है। उसे अपनी उपलब्धियां गिनाने या बताने के लिए कुछ नहीं है।
आगरा की स्थिति
भाजपा ने आगरा आरक्षित सीट पर 1991 से पांच बार जीत हासिल की है, 2009 से लगातार तीन बार। 2019 में बीजेपी के केंद्रीय राज्य मंत्री एसपीएस बघेल ने आगरा सीट जीती थी। बीजेपी ने इस बार भी उसी उम्मीदवार को दोहराया है। एसपी ने सुरेश चंद्र कर्दम को चुना है जबकि बीएसपी ने पूजा अमरोही को मैदान में उतारा है। एसपी प्रत्याशी कर्दम आगरा के लोकल कारोबारी भी हैं और यहां जुड़े हुए हैं। सपा ने इस सीट से दलित प्रत्याशी काफी रणनीति से उतारा है, जबकि भाजपा प्रत्याशी केंद्र में लंबे समय से मंत्री हैं लेकिन उनके पास आगरा इलाके में अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए कुछ नहीं है। जनता उनसे उपलब्धियों का हिसाब मांग रही है। बसपा प्रत्याशी कुछ जाटव वोट काट सकती हैं लेकिन उससे भाजपा भी प्रभावित होगी, अकेले सपा नहीं। लेकिन दलितों में संविधान और आरक्षण का मामला गरमाया हुआ तो ऐसे में दलित और मुस्लिम मिलकर नया गुल खिला सकते हैं। दोनों समुदायों की सपा नेताओं ने संयुक्त बैठकें कराई हैं।फ़तेहपुर सीकरी की स्थितिः इस सीट पर 2019 और 2014 में दो बार बीजेपी और 2009 में बीएसपी ने जीत हासिल की है। 2019 में बीजेपी के राज कुमार चाहर ने कांग्रेस के राज बब्बर को हराकर यह सीट जीती। चाहर को 64.23% वोट मिले। बीजेपी ने राजकुमार चाहर को बरकरार रखा है और कांग्रेस ने रामनाथ सिकरवार को मैदान में उतारा है। बसपा ने ब्राह्मण उम्मीदवार रामनिवास शर्मा पर भरोसा जताया है। दिखने में यह त्रिकोणीय मुकाबला लग रहा है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है। बसपा के ब्राह्मण प्रत्याशी का कोई लाभ उसे नहीं मिलने जा रहा है, क्योंकि ब्राह्मण मतदाता स्पष्ट तौर पर या तो भाजपा के साथ हैं या फिर उनके कुछ प्रभावशाली गुट कांग्रेस के साथ भी हैं। चूंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ओबीसी प्रत्याशी उतारे हैं, इसलिए असली लड़ाई उन्हीं में हैं। लेकिन इस सीट में संतुलन मुस्लिम मतदाता बना रहे हैं जो करीब 8 से 10 फीसदी हैं। लेकिन इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि कौन सी पार्टी जीत सकती है। लेकिन स्पष्ट रूप से कांग्रेस प्रत्याशी फिलहाल मजबूत स्थिति में है।
फ़िरोज़ाबाद की स्थिति
यादव लैंड का यह एक अहम हिस्सा है। इस सीट ने 2009 में सपा प्रमुख अखिलेश यादव और 2014 में उनके चचेरे भाई अक्षय यादव को चुना। 2009 में उपचुनाव में कांग्रेस के राज बब्बर ने सपा की डिंपल यादव को हराया। 2024 के लिए, भाजपा ने विश्वदीप सिंह की घोषणा की है जबकि सपा ने अक्षय यादव को अपना उम्मीदवार बनाया है। अक्षय यादव के पास यादव और मुस्लिम मतदाताओं का मजबूत वोट बैंक है। कांग्रेस का समर्थन हासिल है। इसलिए इस सीट पर इंडिया गठबंधन की स्थिति मजबूत लग रही है। भाजपा प्रत्याशी को राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ना पड़ रहा है लेकिन जनता की दिलचस्पी स्थानीय मुद्दों और उनके समुदाय के प्रत्याशी में है।मैनपुरी की स्थिति
मैनपुरी यादवों का गढ़ है। मैनपुरी ने सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव को कम से कम पांच बार लोकसभा भेजा। इस सीट पर 1996 से सपा जीतती आ रही है। कांग्रेस यहां आखिरी बार 1984 में जीती थी। 2019 में मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी के प्रेम सिंह शाक्य को हराकर जीत हासिल की। 2024 में बीजेपी के जयवीर सिंह सपा की डिंपल यादव को चुनौती दे रहे हैं। डॉ. गुलशन देव शाक्य बसपा प्रत्याशी हैं। यहां से डिंपल यादव आसानी से जीत दर्ज करा सकती हैं। यहां भी यादव और 12 फीसदी मुस्लिम मतदाता इंडिया के पक्ष में माहौल बनाते नजर आ रहे हैं।एटा की स्थिति
एटा में 1989 के बाद से बीजेपी छह बार जीती। इस बीच दो बार एसपी ने इस सीट पर जीत हासिल की। 2009 में कल्याण सिंह ने सपा के समर्थन से निर्दलीय चुनाव जीता था। कल्याण सिंह के बेटे और बीजेपी के राजवीर सिंह ने 2014 और 2019 में इस सीट से जीत हासिल की थी। पार्टी ने उन्हें 2024 में फिर से अपना उम्मीदवार बनाया है। दवेश शाक्य सपा उम्मीदवार हैं। कल्याण सिंह की वजह से ही राजवीर सिंह अभी भी मजबूत उम्मीद बने हुए हैं। लेकिन इसे मुलायम की गलती कहें या अति आत्मविश्वास की उन्होंने एटा को कल्याण सिंह की कर्मभूमि बनने दी। लेकिन इस बार सपा ने अपनी रणनीति बदली है। ओबीसी में शाक्य उपजाति है। भाजपा प्रत्याशी राजवीर सिंह लोध समुदाय से आते हैं। यानी इस सीट पर ओबीसी की दो उपजातियों के बीच जंग है। लेकिन क्या राजवीर के साथ इस बार लोध के अलावा बाकी उपजातियां हैं। शाक्य प्रत्याशी उतारने से सपा ने भाजपा की रणनीति को नाकाम करने की कोशिश की है। 8 से 10 फीसदी मुस्लिम मतदाता इंडिया गठबंधन के साथ जा ही रहे हैं। इसलिए एटा में इस बार सपा लड़ाई में है।बदायूं की स्थितिः इस सीट पर 1996 से 2014 तक लगातार सपा ने जीत हासिल की। लेकिन 2019 में बीजेपी ने यह सीट छीन ली। इस बार बीजेपी ने मौजूदा सांसद संघमित्रा मौर्य की जगह दुर्विजय शाक्य को टिकट दिया है। शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव सपा प्रत्याशी हैं। संघमित्र मौर्य पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी हैं। भाजपा की नजर में स्वामी प्रसाद मौर्य लंबे समय से खटक रहे थे तो उनकी बेटी का टिकट काट दिया गया। लेकिन बदायूं में हमेशा यादव और मुस्लिम वोट निर्णायक साबित होते रहे हैं। सपा के जीतने की वजह यही समीकरण रहा है। ऐसे में शिवपाल के बेटे आदित्य यादव यह सीट आसानी से निकालन सकते हैं।
आंवला की स्थिति
बीजेपी ने 1989 से छह बार इस सीट पर कब्जा किया और 2009 से तीन बार जीत हासिल की। सपा ने दो बार जीत हासिल की है। आखिरी बार कांग्रेस ने 1984 में यह सीट जीती थी। धर्मेन्द्र कश्यप (भाजपा), नीरज मौर्य (सपा) और आबिद अली (बसपा) मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। आंवला सीट पर 2019 में भाजपा के धर्मेंद्र कश्यप ने जीती थी। लेकिन सपा ने मौर्य समुदाय के शख्स को टिकट देकर ओबीसी समीकरण में सेंध लगाने की कोशिश की। आंवला में भी करीब 8 से 10 फीसदी मुस्लिम मतदाता संतुलन बनाते नजर आते हैं। इसलिए भाजपा प्रत्याशी की मजबूत स्थिति होते हुए भी जीत उतनी आसान नहीं है। आंवला में राजपूत मतदाता भी इस बार अलग मन बनाए हुए हैं, जबकि राजपूत भाजपा का परंपरागत वोटर रहा है। लेकिन इस बार स्थिति बदली नजर आ रही है।
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