आख़िरी दो चरणों में उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनाव भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राजनीति के लिए बहुत अहम हैं। औद्योगिक रूप से पिछड़े हुए इस इलाक़े के लोग खेती किसानी बर्बाद होने के बाद इस इलाक़े के लोग नौकरियों पर निर्भर हो गए हैं। साथ ही पिछले 3-4 दशक में इन इलाक़ों के कुटीर उद्योगों ने दम तोड़ दिया है, जिसकी वजह से लोग नौकरी की तलाश में बड़े शहरों में जाते हैं।
गोरखपुर शहर का उदाहरण लें तो यह ज़िला चर्म उद्योग, शहद पालन और हथकरघा का बड़ा केंद्र माना जाता था। ग्रामीण इलाक़ों में आज भी तमाम घरों में गाँधी चरखे रखे हुए मिल जाते हैं। अब उनका इस्तेमाल नहीं होता है। क़रीब 4 दशक पहले घर की महिलाएँ सूत कातकर गाँधी आश्रम खादी भंडारों को देती थीं और उन्हें वहाँ से सूत कातने के लिए रुई और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़ा मिल जाता था। इसी दौर में गोरखनाथ फ्लाईओवर से लेकर सूरजकुंड स्टेशन तक सड़क किनारे जानवरों की खाल सूखते हुए मिलती थी और उसी से सटे चमड़ा क़ारोबारियों का मकान होता था, जहाँ चमड़े के जूते और चप्पल बनाए जाते थे। इनकी आपूर्ति पूरे पूर्वांचल में होती थी और ब्रांडेड जूते चप्पलों का असर कम था।
मंदिर के आसपास के इलाक़े में बड़ी संख्या में मुसलिम आबादी है। यहाँ के हैंडलूम क़ारोबार पर मुसलिम दुकानदारों व कलाकारों का कब्ज़ा रहा है। तीन दशक पहले हैंडलूम की कई दर्जन थोक व खुदरा दुकानें हुआ करती थीं। अब हथकरघा की खट-खट धीमी पड़ गई है और हैंडलूम की थोक दुकानों की जगह ब्रांडेड कपड़ों ने ले ली है। गोरखपुर शहद उत्पादन का बड़ा केंद्र था। शहर के प्रसिद्ध विंध्यवासिनी पार्क में अब भी सरकार थोड़ा बहुत शहद उत्पादन का काम कराती है, लेकिन आम लोग शहद उत्पादन का काम छोड़ चुके हैं।
अब हथकरघा, खादी, शहद उत्पादन, चमड़े का कारोबार कहीं नज़र नहीं आता है। अगर 3 दशक पहले की जनरल नॉलेज की किताबें कहीं आलमारी में दबी हुई मिल जाएँ तो उसमें लिखा हुआ मिल जाता है कि पूर्वांचल में कभी यह उद्योग हुआ करते थे।
उद्योगों के ख़त्म होने और रेलवे मुख्यालय का आकार छोटा होने के बाद विस्थापन और तेज़ हुआ है। बड़े पैमाने पर लोग दिल्ली-एनसीआर और मुंबई गए हैं। यह विस्थापन कई स्तरों पर हुआ है, जिसमें टेक्नोक्रेट से लेकर पेंटर, चमड़ा उद्योग में काम करने वाले, रिक्शा चालक तक शामिल हैं। इसके अलावा थोड़ी अच्छी आर्थिक स्थिति वाले लोगों के बच्चे तकनीकी और रोजगारपरक शिक्षा हासिल करने के लिए भी महानगरों की ओर विस्थापित हुए हैं।
युवाओं को दिखाए 'अच्छे दिन' के सपने
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर थी। बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी ने उस समय ख़ुद को कांग्रेस के बेहतर विकल्प के रूप में पेश किया और बेहतर रोज़ी-रोज़गार और शिक्षा के सब्जबाग दिखाए। रोज़गार और बेहतर शिक्षा के लिए महानगरों में संघर्ष कर रहे युवाओं ने सपना देखा कि 'अच्छे दिन' आएँगे। यह विस्थापित तबक़ा अपने परिवार की रोज़ी-रोटी का ज़रिया होने की वजह से परिवार का ओपिनियन मेकर होता है, इसलिए यह वर्ग बीजेपी को वोट डलवाने में सफल रहा है।
2019 में स्थिति बदल चुकी है। मोदी के 5 साल सत्ता में रहने के बाद रोज़गार की स्थिति से लेकर जीवन स्तर और कठिन हो चला है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने दिल्ली-एनसीआर में आए ख़ासकर पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों ने सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा संभाल रखा है। सैकड़ों की संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो इलाहाबाद और दिल्ली से अपने गाँव पहुँच रहे हैं और वे गाँव के अपने लोगों को रोस्टर प्रणाली की बेइमानियाँ, नियुक्तियों में ओबीसी तबक़े के साथ हो रहे भेदभाव और यहाँ तक कि मेट्रो के बढ़े हुए किराये के बारे में बता रहे हैं। ये युवा बगैर किसी विपक्षी कवायद के बीजेपी के ख़िलाफ़ प्रचार कर रहे हैं।
सरकार से हिसाब माँग रहे हैं युवा
एक ख़ास बात और देखने को मिल रही है। महानगरों में रोज़ी-रोटी के लिए संघर्ष करने वाले युवा जातीय कुंठाओं से मुक्त हैं। ये युवा एक वर्ग में तब्दील हो चुके हैं। इनमें यादव, कोइरी, कुर्मी, कुम्हार, बढ़ई, लोहार, नाई वाला भेदभाव नहीं है। उन्हें यह साफ़ है कि अगर रोस्टर प्रणाली में गड़बड़ियाँ की जाती हैं, डीओपीटी द्वारा ओबीसी प्रमाणपत्र में ख़ामी निकालकर नौकरियाँ पाने से रोका जाता है, सरकारी संस्थानों में स्कॉलरशिप ख़त्म की जाती है तो इसका नुक़सान किसी एक ओबीसी जाति को नहीं, बल्कि ओबीसी में आने वाले सभी लोगों को हो रहा है। सोशल मीडिया से फैली यह जागरूकता अब चुनाव के वक़्त ज़मीनी स्तर पर उतर आई है और युवा अपने गाँवों में जाकर लोगों को 5 साल में सरकार के कामों का हिसाब बता रहे हैं।
वहीं विस्थापित कामगारों में भी ग़ुस्सा है। निजी व सरकारी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर कम हुए हैं। जो पहले से नौकरियाँ कर रहे हैं, उनकी न तो तनख्वाह बढ़ी और न ही नौकरी बदलने का अवसर मिला है।
नौकरियों के अवसर कम होने से तमाम लोगों को महानगरों से नौकरी छोड़कर अपने गाँवों की ओर भागना पड़ा है और जो परिवार उन्हें अपने आर्थिक सहारे के रूप में देख रहा था, वे अपने-अपने घर लौटकर परिवार पर बोझ बन गए हैं।
ऐसे लोगों की संख्या कितनी है, यह आकलन करने का न तो कोई स्रोत है और न ही सरकारी आँकड़े। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि यह मतदाता कितना प्रभावी है और इनकी संख्या कितनी प्रभावी है। सरकार के आँकड़ों के मुताबिक़ बेरोज़गारी 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर है। इसका कोई आँकड़ा नहीं है कि महानगरों में रोज़ी-रोटी की तलाश में आए कितने लोग बेरोज़गार होकर अपने घर वापस लौटे हैं और वह सरकार पर कितने भारी पड़ने जा रहे हैं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि सोशल मीडिया पर चल रहा विरोध पूर्वांचल में ज़मीन पर उतर चुका है।
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