मंडल आंदोलन के बाद से ही उत्तर प्रदेश की सियासत में हाशिए पर चल रहे ब्राह्मण एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति में अहम होते दिख रहे हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों को ख़ूब टिकट देने का दांव चल चुकी बीएसपी फिर से ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन कर रही है। 2007 में उसे इस दांव का फ़ायदा मिला था और प्रदेश में पहली बार उसने अपने दम पर सरकार बनाई थी।
बीएसपी के अलावा एसपी, कांग्रेस और बीजेपी के बीच भी ब्राह्मण वोटों को लेकर मारामारी मची हुई है और इस वजह से उत्तर प्रदेश की सियासत गर्म है।
पिछले विधानसभा चुनाव में बीएसपी का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा था और उसे 19 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन आज पार्टी के पास सिर्फ़ 7 विधायक ही बचे हैं। इसलिए बीएसपी की मुखिया मायावती इस बात को जानती हैं कि दलित-ब्राह्मण की सोशल इंजीनियरिंग पार्टी के लिए इस ख़राब वक़्त में कितनी ज़रूरी है।
बहरहाल, बीएसपी के ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत की है और 2007 में भी मिश्रा ने ही यह काम किया था। यह सम्मेलन पूरे प्रदेश के जिलों में कई चरणों में आयोजित किया जाएगा।
ब्राह्मण सम्मेलन को लेकर मायावती इतनी गंभीर हैं कि वह ख़ुद इन सम्मेलनों की मॉनीटरिंग करेंगी। पिछले हफ़्ते उन्होंने ब्राह्मणों से अपील की थी कि वे बीजेपी के बजाए बीएसपी को वोट दें।
विकास दुबे एनकाउंटर
कानपुर के बिकरू कांड के कुख्यात बदमाश विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों के ब्राह्मण समुदाय के नेताओं ने बीजेपी को निशाने पर ले लिया था। 24 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में करीब 12 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। इसलिए सभी दल अब इस समुदाय को रिझाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय का नारा देने वालीं मायावती अपनी सोशल इंजीनियरिंग के इस सियासी तीर से बीजेपी को बेहाल कर सकती हैं। इसलिए बीते दिनों बीजेपी के नेताओं ने जोर-शोर से कहना शुरू किया है कि ब्राह्मण समुदाय फिर से मायावती के साथ नहीं जाएगा।
एसपी-बीएसपी की जंग
पिछले साल जब एसपी ने एलान किया था कि वह लखनऊ में 108 फुट की और हर जिले में भगवान परशुराम की प्रतिमा लगवाएगी तो मायावती ने तुरंत बयान जारी कर कहा था कि बीएसपी की सरकार बनने पर एसपी से ज़्यादा भव्य भगवान परशुराम की प्रतिमा लगाई जाएगी।
कई बार उत्तर प्रदेश की हुकूमत संभाल चुकीं मायावती की कोशिश प्रदेश के 23 फ़ीसदी दलित मतदाताओं और 12 फ़ीसदी ब्राह्मण मतदाताओं के दम पर एक बार फिर सूबे की सियासत में नीला झंडा फहराने की है।
ग़ायब हो गई धमक
उत्तर प्रदेश की राजनीति में आज़ादी के बाद से 1989 तक ब्राह्मण समाज का दबदबा रहा। इस समाज के कई लोग मुख्यमंत्री बने। इनमें गोविंद बल्लभ पंत से लेकर सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी का नाम प्रमुख है। लेकिन तिवारी के बाद से यानी 1989 के बाद से अब तक कोई भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना।
कांग्रेस की भी है नज़र
उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस पाने को बेकरार कांग्रेस की निगाह काफी पहले से ब्राह्मणों पर है। पार्टी ने अलग-अलग क्षेत्रों में अपने ब्राह्मण नेताओं को सक्रिय किया है। कांग्रेस विधायक दल की नेता के रूप में आराधना शुक्ला मोना को जगह दी है तो संगठन में भी ब्राह्मण समाज के नेताओं को अहम जगह दी गई है। कांग्रेस लंबे वक़्त तक दलित-ब्राह्मण और मुसलिम गठजोड़ के चलते ही सत्ता में रही थी।
किस ओर जाएंगे ब्राह्मण?
ब्राह्मणों और सवर्णों को खुश करने के लिए बीजेपी ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण में कमजोर आर्थिक लोगों के लिए 10 फ़ीसदी जगह देने का दांव चला था। लेकिन देखना होगा कि बीजेपी का परंपरागत वोटर माने जाने वाले ब्राह्मण किस राजनीतिक दल की नाव को सहारा देते हैं और क्या बहुजनों की राजनीति से सर्वजन की राजनीति पर आने वालीं मायावती के साथ ब्राह्मण फिर से खड़े होंगे।
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