अंतरधार्मिक शादी को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक अहम फ़ैसला दिया है। कोर्ट ने बुधवार को कहा है कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह का नोटिस प्रकाशित करना यानी सार्वजनिक करना अनिवार्य नहीं होगा। यह शादी करने वाले युवक-युवती की पसंद पर निर्भर करेगा कि उस नोटिस को प्रकाशित किया जाए या नहीं। कोर्ट ने कहा कि इस तरह के नोटिस के प्रकाशित करने से 'स्वतंत्रता और गोपनीयता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन' होगा। कोर्ट ने कहा कि ये नोटिस शादी करने वाले जोड़ों के अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता को भी प्रभावित करेंगे। हाई कोर्ट के इस फ़ैसले से अंतरधार्मिक शादी करने वालों को राहत मिलने की उम्मीद है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जिस विशेष विवाह अधिनियम, 1954 को लेकर यह फ़ैसला दिया है उसकी एक धारा में प्रावधान है कि अंतरधार्मिक शादी के मामले में डिस्ट्रिक्ट मैरिज ऑफ़िसर को विवाह की लिखित सूचना देना अनिवार्य है। यह क़ानून कहता है कि इस तरह के नोटिस को आधिकारिक कार्यालय में प्रदर्शित किया जाए। यह इसलिए कि जब भी कोई उम्र, मानसिक स्वास्थ्य और उनके समुदायों के रीति-रिवाज जैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन को लेकर शादी पर आपत्ति करना चाहता है तो वह 30 दिनों के भीतर ऐसा कर सकता है।
कोर्ट का यह फ़ैसला एक हैबियस कार्पस यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर आया है। इस याचिका में आरोप लगाया गया था कि एक वयस्क लड़की को दूसरे धर्म से संबंध रखने वाले अपने प्रेमी से शादी करने की उसकी इच्छा के ख़िलाफ़ हिरासत में लिया गया। उस जोड़े ने अदालत से कहा था कि 30-दिन के नोटिस की अनिवार्यता 'निजता के अधिकार का उल्लंघन है और उनकी अपनी पसंद की शादी में हस्तक्षेप है'।
याचिकाकर्ता एक मुसलिम महिला थी। उसने हिंदू पुरुष से शादी करने के लिए हिंदू धर्म में धर्मांतरण करा लिया था। याचिका में कहा गया है कि उसके पिता उसे अपने पति के साथ रहने की अनुमति नहीं दे रहे थे।
याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस विवेक चौधरी ने कहा कि शादी करने वाले जोड़े अब नोटिस प्रकाशित करने या नहीं प्रकाशित करने के लिए मैरिज ऑफ़िसर को लिखित अनुरोध कर सकते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि किसी परिस्थितिवस वे नोटिस के प्रकाशन के लिए अनुरोध नहीं करते हैं, तो मैरिज ऑफ़िसर इस तरह के नोटिस को प्रकाशित नहीं करेगा या आपत्तियाँ दर्ज नहीं करेगा।
बता दें कि अंतरधार्मिक शादी को लेकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बनाए गए हाल के क़ानून को लेकर भी कई अदालतें ऐसे लोगों की अपनी पसंद की शादी की पक्षधर रही हैं। इस नये क़ानून को ग़ैरक़ानूनी धर्मांतरण क़ानून के रूप में पेश किया गया है। इसी क़ानून को 'लव जिहाद' से जोड़कर देखा जा रहा है। इस क़ानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएँ दायर की गई हैं उनमें भी दावा किया गया है कि वे संविधान के बुनियादी ढाँचे को तोड़ते-मरोड़ते हैं। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में ग़ैरक़ानूनी धर्मांतरण क़ानूनों की वैधता की जाँच करेगा।
हाल ही में कलकत्ता हाई कोर्ट ने कहा था कि यदि अलग-अलग धर्मों के लोगों के विवाह में कोई महिला अपना धर्म बदल कर दूसरा धर्म अपना लेती है और उस धर्म को मानने वाले से विवाह कर लेती है तो किसी अदालत को इस मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में कहा था कि धर्म की परवाह किए बग़ैर मनपसंद व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार किसी भी नागरिक के जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के अधिकार का ज़रूरी हिस्सा है। संविधान जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इसी तरह एक दूसरे मामले में कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी कहा था कि किसी व्यक्ति का मनपसंद व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार उसका मौलिक अधिकार है, जिसकी गारंटी संविधान देता है।
केरल हाई कोर्ट ने तो एक निर्णय में कहा था कि अलग-अलग धर्मों के लोगों के विवाह को 'लव-जिहाद' नहीं मानना चाहिए, बल्कि इस तरह के विवाहों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
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