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गांधी भगत सिंह को बचाने में क्यों कामयाब नहीं हुए?

लाहौर की सेंट्रल जेल में फांसी के फंदे पर भगतसिंह सहित तीन नौजवान 23 मार्च 1931 की शाम को हंसते-हंसते झूल गये और कुछ देर थरथराने के बाद शांत हो गए। कई बार लगता है कि इन तीन की तुलना में हम करोड़ों लोग कितने बौने हैं! आज पाकिस्तान के लाहौर में सेंट्रल जेल में भगतसिंह नहीं हैं! वहाँ एक बड़ा सा मॉल बन गया है और एक बड़ी सड़क बन गयी है जिस पर रात दिन गाड़ियाँ दौड़ती रहती हैं। आज अगर ये तीन सपूत बोल सकते और वे हमसे पूछते कि ‘हम भारत के लिए शहीद हुए या पाकिस्तान के लिए’, तो इस प्रश्न का न आपके पास कोई जबाव है न मेरे पास।

इतिहास लाहौर से चला और क़रीब 17 साल बाद 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस पहुँच गया। यहाँ एक 78 साल के बूढ़े आदमी को प्रार्थना के समय जाते हुए सामने से आकर कोई गोली मारता है। दिल्ली के बिड़ला हाउस में आज गांधी नहीं हैं। वहां गांधी की यादें रह गयी हैं।

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शाहिर लुधियानवी से माफी मांगते हुए यह पक्तियां प्रस्तुत हैं- 

'ये जश्न मुबारक हो फिर भी यह सदाकत है,

हम लोग हकीकत के अहसास से तारी हैं।

गांधी हों या भगतसिंह इतिहास की नज़रों में

हम दोनों के क़ातिल और दोनों के पुजारी हैं।'

गांधी और भगतसिंह दोनों भारत की स्वाधीनता के लिए लड़े और अंतिम सांस तक लड़े। भगतसिंह, गांधी के प्रति पूरा सम्मान प्रदर्शित करते हैं। भगतसिंह खुद स्वीकार करते थे कि क्रांति का मतलब बम और पिस्तौल नहीं है और इस तरह की पटाखेबाज़ी से क्रान्ति या बदलाव नहीं आ सकता। वह एक गम्भीर व्यक्तित्व वाले नौजवान थे जो चिंतन और विचार-विमर्श को अधिक महत्व देते थे। उन्होंने कहा भी कि जब वे महात्मा गांधी के अहिंसक तरीक़े का विरोध कर रहे हैं तो वे इसका विरोध इसलिए कर रहे हैं कि उनको लगता है कि महात्मा गांधी एक अत्यंत असंभव आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं और भारतीय समाज अभी अहिंसा के लिए तैयार नहीं है! लेकिन वे गांधी के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि महात्मा गांधी ने लोक जागरण का जो महान कार्य किया है उसके लिए उन्हें कोटि कोटि सलाम न किया जाये तो उनके प्रति बहुत बड़ा अन्याय होगा।

गांधी और भगतसिंह दोनों के ही रास्ते, दोनों के कार्यक्रम, दोनों के संगठन, दोनों के लक्ष्य अलग-अलग थे। दोनों ही अपने विचारों से एक इंच भी सरकने को तैयार नहीं थे। फिर भी एक प्रश्न उठता है कि गांधी की भगतसिंह को बचाने की कोशिश कामयाब क्यों नहीं हुई?

महात्मा गांधी इंग्लैंड से बैरिस्टरी पढ़कर आये थे। वे जानते थे कि सारे सबूत भगतसिंह के ख़िलाफ़ हैं और अंग्रेजी क़ानून के दायरे में उन्हें फांसी से बचाना मुश्किल है। गांधी यह भी जानते थे कि वाइसराय इरविन को भी फांसी को रद्द करने के अधिकार नहीं। ब्रिटेन की संसद ही वाइसराय की सिफारिश पर इसे रद्द कर सकती थी।

सभी ऐतिहासिक दस्तावेज पब्लिक डोमेन में हैं, लेकिन सत्य से किसे लेना देना है और कौन इतना पढ़ेगा कि दरअसल गांधी ने भगतसिंह की फांसी को लेकर कितनी बहस वाइसराय से की। अंग्रेज, गांधी से कहते थे कि हम सिर्फ़ इतना कर सकते हैं कि लाहौर कांग्रेस होने तक फांसी न दें।

आशुतोष की बात में देखिए, भगत सिंह की फांसी और गांधी का सच! 
shaheed bhagat singh hanging and mahatma gandhi  - Satya Hindi

गांधी वाइसराय से कहते थे कि देखिये या तो आप भगतसिंह की फांसी को हमेशा के लिए रद्द करें और फांसी रद्द नहीं कर सकते तो फिर मुझे कोई राहत न दें। मैं झेलूंगा जो मुझे झेलना है। लेकिन मैं आप से कोई घूस लेना नहीं चाहता हूँ। अब आप गांधी की सैद्धांतिक दृढ़ता को देखिए। वे कहते हैं कि मुझे बीच का कोई रास्ता नहीं चाहिए। फांसी का मुझ पर एक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा लेकिन मैं उसको झेलने के लिए तैयार हूँ लेकिन मैं आपसे कोई गुप्त समझौता नहीं करना चाहता।

भगत सिंह को बचाने के लिए 23 मार्च 1931 को वाइसराय को लिखी उस चिट्ठी में गांधीजी ने जनमत का हवाला देते हुए लिखा कि ‘जनमत चाहे सही हो या ग़लत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है। ...मौत की सजा पर यदि आप यह सोचते हैं कि फ़ैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूँगा कि इस सजा को आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें।’

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जब गांधी कराची कांग्रेस में पहुँचते हैं तो भारत सभा के युवकों ने काले कपड़े से बनी फूलों की माला गांधीजी को भेंट की। स्वयं गांधीजी ने कहा कि ‘मैं यहाँ अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया? मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया। समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आज़माई।’ 

आज जब भी चर्चा भगत सिंह की छिड़ती है तो वह गांधी तक ही जा पहुंचती है? लेकिन जब हम दोनों शख्सियतों को देखते हैं तो ऐसी चर्चाएँ मात्र 23 साल के भगत सिंह की अद्भुत शहादत का गुमान और एक बूढ़े गांधी द्वारा उसे बचाए न जा सकने की शिकायत एक साथ मौजूद रहती है।

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आज न तो भगतसिंह हमारे बीच हैं और न ही गांधी। हम भारतमाता के दोनों सपूतों को नमन करते हैं। आज जब इंटरनेट के युग में सब कुछ पब्लिक डोमेन में है। किसने क्या भूमिका निभाई? भगतसिंह की डायरियों, तत्कालीन पुस्तकों में और अदालतों के अभिलेखों में सभी की भूमिकाएँ दर्ज हैं। उन्हें हम चाहकर भी बदल नहीं सकते।

शहीद भगतसिंह को सादर नमन!

(नोट- प्रस्तुत लेख में कुछ अंश गांधी शांति प्रतिष्ठान के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुमार प्रशांत के भाषण से लिये गए हैं।)

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निर्मल कुमार शर्मा
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