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प्रतीकात्मक तसवीर

मुसलिम उम्मा : आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना 

शिक्षाविद प्रो. इश्तियाक अहमद के मुसलिम उम्मा पर क्या विचार हैं? उम्मा को अंग्रेजी में नेशन कह सकते हैं, कौम भी कह सकते हैं। तो इस मुसलिम उम्मा की गुत्थी को सुलझाने के लिए पूर्व पुलिस अधिकारी व हिंदी के मशहूर साहित्यकार विभूति नारायण राय ने इश्तििियाक अहमद , जावेद आनंद और फैयाज अहमद फैजी से बातचीत की है। पेश है बातचीत का पहला अंश...
विभूति नारायण राय

देश के विभाजन और भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर शिक्षाविद प्रो. इश्तियाक अहमद और पूर्व पुलिस अधिकारी व हिंदी के मशहूर साहित्यकार विभूति नारायण राय की दिलचस्प और रोचक बातचीत जिसे सत्य हिंदी डाटकॉम पर सुना और देखा गया। पिछली बार विभाजन को लेकर तथ्यों के कुछ नए दरवाजे इश्तियाक अमहद ने खोले हैं और इतिहास के बहुत से ऐसे तथ्यों से हमे अवगत कराया जिनकी जानकारी हममें से बहुतों को नहीं रही होगी। देश के विभाजन के साथ-साथ भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तेरह सौ सालों के बीच पनपे रिश्तों को लेकर भी नई जानकारियाँ मिलीं। बातचीत के इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए सत्य हिंदी पर इस बार मुसलिम उम्मा पर चर्चा हुई। चर्चा के सूत्रधार हैं पूर्व आईपीएस अधिकारी व साहित्यकार विभूति नारायण राय। चर्चा में पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश इतिहासकार इश्तियाक अहमद, पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता जावेद आनंद और पसमान्दा मुसलमानों के भाष्यकार फैयाज अहमद फैजी ने हिस्सा लिया। पेश है इस बातचीत का पहला अंश - 

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विभूति नारायण राय: आज की चर्चा का जो हमारा विषय है देखने में तो बहुत सीधा-साधा लगता है, उसका अर्थ भी बहुत आसान लगता है लेकिन उसमें बहुत सारे पेंच दर पेंच छुपे हुए हैं। उम्मा को आप अंग्रेजी में नेशन कह सकते हैं, कौम भी कह सकते हैं। मुसलिम उम्मा खुद के अंदर बहुत बड़ा फ़िलोसोफ़िकल कनोटेशन है। तो इस मुसलिम उम्मा की गुत्थी को सुलझाने के लिए हम बातचीत करेंगे। मेरी अपनी समझ यह है कि नेशन स्टेट्स वाली जो अवधारणा है इसे उन्नीसवीं व बीसवीं सदी में मज़बूत नींव मिली। खासतौर से 1920 वाली दहाई में जब पासपोर्ट और वीजा का चलन शुरू हुआ और जब राष्ट्र मज़बूती के साथ अपने नैरेटिव बना रहे थे और वीजा के प्रावधानों की वजह से आने-जाने पर पाबंदियाँ लग रही थीं तो नेशन स्टेट्स की एक खास तरह की तसवीर हमें दिखाई देती है। जब मोहम्मद साहेब के जमाने में मुसलिम उम्मा की बात हो रही थी तब इस तरह की कल्पना भी किसी ने नहीं की थी कि इजिप्ट से सीरिया जाने के लिए पासपोर्ट की ज़रूरत पड़ेगी या सऊदी अरब से तुर्की आने के लिए वीजा की ज़रूरत पड़ेगी। तो उस समय मुसलिम उम्मा थोड़ी सिंपिलिफाइड थी लेकिन अब ऐसा नहीं है।

जाहिर है कि अब जटिल दुनिया है, हम सभी तरह की जटिलताएँ देख रहे हैं। यहाँ मैं सिर्फ़ यह याद दिला दूँ कि दुनिया में दो मज़बूत फिलॉसफी हैं, एक मार्क्सिज़्म और दूसरे इस्लाम। ये दोनों नेशन स्टेट्स को नकारते हैं। मार्क्सवादियों का यह सपना रहा और बल्कि यह कहते भी थे कि दुनिया के एक मुल्क में समाजवाद नहीं आ सकता। समाजवाद आएगा तो सभी मुल्कों में आएगा। नेशन की सीमाएँ अप्रासंगिक हो जाएंगी और वह अंतरराष्ट्रीयतावाद की बात करते थे। इस्लाम भी राष्ट्र राज्य को स्वीकार नहीं करता। 
इक़बाल ने पहले कहा कि ‘हिंदी हैं हम, हिंदोस्तां हमारा’ लेकिन वही इक़बाल बाद में कहते हैं कि ‘मुसलिम हैं हम, सारा जहाँ हमारा’। इस तरह की बातें उन्होंने कीं। तो दोनों फिलॉसफी नेशन स्टेट्स को नकारती हैं। लेकिन हमारा अनुभव यह बताता है कि जब किसी राष्ट्र में कम्युनिस्ट या इस्लामी सरकारें बनीं तो वे सबसे ज़्यादा मज़बूत राष्ट्रवादी हुए। सोवियत रूस में आपने सुना होगा कि लेनिन के ज़माने में राष्ट्रीयताओं पर बहस चली, लेकिन बाद का सोवियत रूस अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बहुत ही मज़बूती से बचाए रखता था, इसकी भी मिसालें हैं हमारे सामने। यही बात मुसलिम उम्मा के साथ भी है। टू नेशन थ्योरी के आधार पर पाकिस्तान वजूद में आया तो मौलाना मौदूदी के बेटे का यह कहना बहुत प्रासंगिक लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान इसके साथ क्यों नहीं जुड़ गया, ईरान क्यों नहीं जुड़ गया, जब पाकिस्तान बन रहा था। तो ये जटिल मुद्दे हैं। हम प्रो. इश्तियाक अहमद से समझने की कोशिश करते हैं कि मुसलिम उम्मा को हम 2021 में कैसे पेश करेंगे।

इश्तियाक अहमदः मैंने ‘कंसेप्ट ऑफ़ ऐन इस्लामिक स्टेट एंड एनालिसिस ऑफ़ आइडियोलोजिकल कंट्रोवर्सी इन पाकिस्तान’ विषय पर पीएचडी की है। तो आपने जो आज सवाल उठाया है वह बहुत मुनासिब है। मुसलमानों में जो एक दुविधा है, रसूलअल्लाह ने जब इस्लाम की दावत दी तो वह तो एक यूनिवर्सल दावत थी। उसके बाद जब ख़िलाफ़त कायम हुई तो ख़िलाफ़त के अंदर भी फ़तूहात हुईं और इसके साथ इस्लाम का विस्तार हुआ। पहले सौ साल में, बनु उम्मैया के दौर तक मुसलिम सेना जिधर भी गई, इस्लाम का विस्तार करती गई। उसके बाद दौर बदला। कई ख़िलाफतें बनीं। ख़िलाफ़त-ए-अब्बासिया, स्पेन में भी एक ख़िलाफ़त बनीं। कैरो (काहिरा) में एक और ख़िलाफ़त बनी जो फ़ातमी कहलाती है। साथ-साथ जो सेंट्रल इंस्टीट्यूशन था ख़लीफ़ा का वह कमज़ोर होता गया। अमीर और सुलतान, जो दूर-दूर इलाक़ों में थे वे अपनी-अपनी सत्ता स्थापित करते चले गए। उस जमाने के जो उलेमा थे स्कॉलर्स या फ़ुक़हा और बाकियों ने यह कहा कि ख़लीफ़ा का होना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, वह सिर्फ़ नॉमिनल हेड ऑफ़ मुसलिम इंटरनेशनल कम्युनिटी है और दूर-दराज के जो अमीर हैं वे ख़लीफ़ा के वर्चस्व को मानते हैं तो उनकी हकूमत अपनी जगह पर कायम रहनी चाहिए। यानी कह सकते हैं कि सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ। सत्ता एक जगह केंद्रित रहने की बजाय, दूर-दराज के इलाक़ों में स्थानीय हुक्मरानों के पास पहुंच गई।

आपने एक और दिलचस्प बात का ज़िक्र किया पासपोर्ट और सीमाओं का। उन्नीसवीं सदी के बाद सीमांकन वगैरह की शुरुआत हुई। उससे पहले फ्रंटियर्स हुआ करते थे। फर्क है दोनों में। फ्रंटियर्स में होता था कि एक बादशाह का इस इलाक़े तक असर है, फिर किसी और का शुरू हो जाता है। लेकिन सरहदों की घोषणा नहीं की जाती थी, तो जेरे असर टेरेटेरी की बात थी। जिस तरह हिंदुस्तान में भी मुगलों की हकूमत थी लेकिन राजपूताना और कई इलाक़ों में राजाओं की अपनी हकूमतें थीं और उनके अपने फ्रंटियर्स हुआ करते थे। उन्नीसवीं सदी में टेरोटेरियल नेशंस की कल्पना वजूद में आई तो ऑटोमन एंपायर के ख़त्म होने के बाद मिडिल ईस्ट में कई टेरोटेरियल स्टेट्स आईं, जैसे कि इराक, जॉर्डन, सऊदी अरब, यमन जैसे देश सामने आए जिनकी अपनी टेरोटेरियल बाउंड्री स्थापित हुईं। 

इसके बाद हम देखते हैं 1950 के आसपास कि दो-तीन कोशिशें हुईं। मसलन, सीरिया और मिस्र ने एक यूनियन बनाई। बाद में मिस्र और लिबिया ने भी यूनियन बनाई लेकिन यह सफल नहीं हो पाए। यानी सीमाओं के साथ राष्ट्रों की कल्पना मुसलमानों में वैसे ही कायम हुई जैसा बाक़ी दुनिया में हुई।
एक और बात मैं कहना चाहता हूँ कि मैं जब लाहौर में बड़ा हो रहा था, तब मिल्लत का कंसेप्ट होता था नेशन का। यह उम्मा एक अरबी का लफ्ज है जिसका बहुत ज़्यादा चलन नहीं था, किताबों में था और सीमित दायरे में था। लेकिन मिल्लत जिसका विचार तुर्कों से आया था, उस पर बात होती थी। इस्लाम के रिवायवल के बाद उम्मा की बात फिर से की जाने लगी है और इसका सार्वभौमिकता पर जोर है। जैसा आपने कहा कि मार्क्सिज्म में सीमाओं की कल्पना नहीं है, सार्वभौमिक एक अपील है। यही मुसलमानों का वैश्विक नज़रिया है कि सारी दुनिया इस्लाम की दावत के लिए खुली हुई है। इसमें दो स्थितियाँ हैं। एक पुरअमन है कि आप दावत देते जाएँ और जितने लोग भी आएँ आप उन्हें मिल्लते-इस्लामिया यानी उम्मा का हिस्सा बना लें। एक दूसरा विचार मौलाना मौदूदी, सैयद क़ुतुब ऑफ़ इजिप्ट और इमाम खुमैनी ने पेश किया। इनमें दो सुन्नी हैं और एक शिया। इन्होंने कहा कि शांतिपूर्ण तरीक़े से दावत तो ठीक है लेकिन अंततः खुदा चाहता है कि पूरी दुनिया इस्लामी शरिया के अंदर आ जाए। इसलिए इस्लाम को फैलाना और बढ़ाना इस्लामिक राष्ट्रों का फर्ज है। लेकिन इसे भी देखा जाए तो ये टेरोटेरियल स्टेट्स नहीं हैं, ये को-टर्मिनेट हैं। यानी सारी दुनिया में इस्लाम की हकूमत होनी चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि पुरानी कानून की किताबों के अंदर दो चीजें थीं- एक थीं दारुल इस्लाम यानी वे इलाके जहां इस्लाम की शरीया लागू होती है और दूसरी है दारुल हर्ब, जहां शरीया लागू नहीं होती और ग़ैर मुसलिमों की हकूमत है। लेकिन अंग्रेज जब यहाँ आए तो एक तीसरा विचार भी आया-दारुल अमन, सैयद अहमद हसन बरेलवी, जो पटना से फौजें लेकर बालाकोट गए, उन्होंने यह कहा कि अंग्रेज इस्लाम पर हमला नहीं करते, सिख कर रहे हैं पंजाब में। तो हमें वहाँ जाकर जेहाद करना पड़ेगा। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ तो जेहाद की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे तो मुसलमानों को अपने अक़ीदे से रोकते नहीं लेकिन जो क्लासिकल डिस्टिंकशन है इस्लामिक कानून के अंदर, वह है दारुल इस्लाम और दारुल हर्ब का। लेकिन बीसवीं सदी में एक तीसरा विचार आया। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर बनने के बाद मुसलमानों में बहुत इसका ज़िक्र हुआ दारुल अमन का। क्योंकि क़रीब बीस मिलियन मुसलमान यूरोप में रहते हैं और अमन से रह रहे हैं। उनकी मसाजिद हैं, उनके इस्लामिक केंद्र हैं, वे अपने इस्लामिक अधिकारों और कानूनों का निजी तौर पर अमल कर सकते हैं। तो लोगों ने कहा कि तीन विचार होने चाहिए, दारुल इस्लाम, दारुल हर्ब (जहां मुसलमानों पर जुल्म हो रहा है) और दारुल अमन। भारत की पहचान दारुल अमन के तौर पर ही बनी क्योंकि जमीयत-उल-उलेमाए हिंद ने तभी कांग्रेस का समर्थन किया जब उनसे कहा गया कि इस्लामी कानून को माना जाएगा। वैसे बाद में जो घटनाक्रम हुए उस पर हम बाद में बात कर सकते हैं। लेकिन देवबंद के उलेमा ने तो कांग्रेस का साथ इसलिए दिया कि यहां इस्लाम पर हमला नहीं होगा और मुसलमान अमन से रहेंगे। पाकिस्तान बनना वह निगेशंस है इन सारे विचारों का। लेकिन वह टेरेटोरियल स्टेट्स का विचार जो यूरोप से आया और बाकी दुनिया उसका हिस्सा बन गया।
ishtiyak ahmed on muslim ummah reality - Satya Hindi

विभूति नारायण रायः जावेद साहब, 2015 में मैं कराची गया था। कराची यूनिवर्सिटी में एक विभाग है पाकिस्तानीज स्टडीज का, विभागाध्यक्ष वहाँ के कराची पीडब्लूए के अध्यक्ष भी रह चुके थे, प्रोग्रेसिव आदमी थे। उन्होंने मुझे अपने विभाग में बुलाया। वहाँ उनके बहुत सारे तालिबइल्म (छात्र), उस्ताद इकट्ठे हुए तो उनके बीच में बात होने लगी कि पाकिस्तान की अब क्या शिनाख्त हो सकती है, बांग्लादेश बनने के बाद टू नेशन थ्योरी थोड़ा मशकूक हो गई थी। इस पर बहस होने लगी कि क्या सचमुच हिंदू और मुसलमान दो अलग नेशन हैं। इस पर राय बनाना उनके लिए भी मुश्किल था। भुट्टो के जमाने में एक नया विचार आया कि यह जो पश्चिमी पाकिस्तान है, भौगौलिक तौर पर शुरू से ही पाकिस्तान है और टू नेशन थ्योरी का मतलब यह नहीं था कि हिंदू और मुसलमान बल्कि यह पूरा क्षेत्र ही पाकिस्तान है। इससे फिर यह सवाल उठे कि मोहन जोदड़ो हमारा है या नहीं, यह तक्षशिला और अगल-बगल के इलाके जहां गौतम बुद्ध बिखरे हुए हैं हमारा है या नहीं, या हमारा इतिहास मोहम्मद बिन कासिम से शुरू होता है, वैसे यह लंबी बहस हो जाएगी। लेकिन आप एक पत्रकार हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गंभीर पाठक भी हैं तो आपको क्या लगता है कि हिंदुस्तान के मुसलमान के सामने ये उम्मा किस तरह आएगा। क्या गुजराती मुसलमान या तमिल मुसलमान एक ही उम्मत के हिस्सा होंगे या इनमें कोई सांस्कृतिक फर्क होगा या क्या दिक्कतें आएंगी एक मानने में। आप सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गुजरात दंगों में खासतौर से आपने और आपकी पत्नी तीस्ता सीतलवाड़ ने बहुत काम किया है तो आपको कैसा लगता है।

जावेद आनंदः विभूति जी मुझे लगता है, जैसा आपने कहा कि गुजरात का मुसलमान एक है, तमिलनाडु का अलग है, यूपी-बिहार का अलग है, कश्मीर का मुसलमान अलग है और दुनिया के मुसलमान अलग हैं। तो पहली बात यह है कि जैसा आपने कहा था कि मार्क्सिज्म नेशंस के विचार को स्वीकार नहीं करता है और इस्लाम भी स्वीकार नहीं करता है। इसमें मैं थोड़ा फर्क समझता हूँ। मार्क्सिज्म दुनिया भर के श्रमिकों को एकजुट कर सत्तासीन ताक़तों को हटा कर लोगों की सत्ता स्थापित करने की बात करता है, यह अलग बात है कि अब वह पार्टी और व्यक्ति केंद्रित हो गया है। इस्लाम में जैसा कि इश्तियाक़ साहेब ने भी कहा कि दो विचार हैं, पहला यह कि यही सच्चा रास्ता है, यही अल्लाह की मर्जी है, एक ही खुदा है, वही सच्चा है और इस्लाम ही सच्चा मजहब है और सबको दावत है कि आप इसे मान लें और अगर सबने मान लिया तो पूरी दुनिया, इस्लामिक दुनिया बन जाएगी। दूसरा यह कि सैयद कुतुब और मौलाना मौदूदी व खुमैनी साहेब, इनके विचार अलग हैं। इनका कहना है कि हर मुसलमान का यह कर्त्तव्य है कि इस्लाम के विस्तार और इस्लामी खिलाफत व निजाम-ए-मुस्तफा कायम करने के लिए संघर्ष करें। हालाँकि इसमें इतना लचीलापन ज़रूर रखा गया है कि वे हिंसा करें या न करें, कितना करना है, कितना नहीं और किसके ख़िलाफ़ करना है, किसके ख़िलाफ़ नहीं, यह सब बहुत स्पष्ट नहीं है। यहाँ पर लचीलापन है। जो उम्मा की हम बात करते हैं तो मुझे लगता है कि हकीकत में उम्मा बड़ा मजाक है। गुजरात का आपने जिक्र किया तो हम लोगों ने 2002 में अपनी तरफ से इंसाफ वगैरह की कोशिश की। दस साल यानी 2002 से 2012 तक सभी पश्चिमी देशों ने, अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, जर्मनी और दूसरे देशों में, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उनकी देखरेख में मुसलमानों के खिलाफ अभियान चलाया गया था, इनकी पूछ घट गई थी इन देशों में। लगभग अछूत जैसी हालत हो गई थी। ये इन देशों का दौरा नहीं कर सकते थे और उसी दौर में, 2002 में ही छह या आठ महीनों में हमने एक पूरे पेज का विज्ञापन देखा जिसमें ओमान के सुल्तान मोदीजी से गले मिल रहे थे। 2003 में जॉर्ज बुश ने एक फर्जी कारण बता कर इराक पर हमला किया उससे दो-तीन हफ्ते पहले दुनिया में एक ऐसा प्रोटेस्ट हुआ जो ऐतिहासिक था, उस तरह का प्रोटेस्ट न पहले कभी हुआ था और न कभी होगा कि एक ही दिन, एक ही वक्त रोम, लंदन, पैरिस, न्यूयार्क, वाशिंगटन, सिडनी, मेलबर्न, सैन फ्रैंसिस्को में, कहीं पर लाख तो कहीं पांच लाख तो कहीं दस लाख लोग इकट्ठा हुए और जंग के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। लोग नहीं चाहते थे कि यह जंग हो। उसी दिन पाकिस्तान में कुछ दो-तीन हजार लोग शामिल हुए थे उस प्रोटेस्ट में लेकिन गल्फ देशों से मेरे ख्याल से कोई भी नहीं था। उस वक्त उम्मा कहाँ गई थी? और 2002 में गुजरात में दंगे हुए थे तब उम्मा कहाँ थी? मुझे तो उम्मा हवा हवाई बात लगती है। आपकी बात पर आऊं कि गुजरात का मुसलमान कुछ अलग है सांस्कृतिक नज़रिये से, मजहब भले ही एक है, केरल का अलग है, रूस का अलग है, जापान का अलग होगा, अगर वहाँ मुसलमान होंगे तो। इंग्लैंड-फ्रांस का अलग होगा। उम्मा को लेकर कहा जा सकता है कि दिल के बहलाने को गालिब यह ख्याल अच्छा है, टाइप की कोई चीज है वर्ना इसमें बहुत ज़्यादा दम मुझे दिखता नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि आज हिंदुस्तान पर जो राज कर रहे हैं हिंदू राष्ट्र वाले, ये मजबूर कर रहे हैं मुसलमानों को एक साथ आने के लिए, हालाँकि उनके अंदर बहुत सारे अंतरविरोध हैं लेकिन भारतीय मुसलमान होने की वजह से उन्हें डर भी सता रहा है, चाहे वे केरल वाले हों, तमिलनाडु वाले हों या बंगाल वाले हों, उन्हें डर सता रहा है दिल्ली या दूसरे राज्यों में सत्ता में बैठे लोगों से और ये एक उम्मा का निर्माण कर रहे हैं। मुझे तो जियाउद्दीन सरदार साहब का उम्मा का विचार बहुत ही अच्छा लगता है कि ‘उम्मा इज द कम्युनिटी ऑफ़ ऑल दोज हू आर फॉर जस्टिस, फेयर प्ले इक्युलिटी, ह्युमन लिब्रटीज वैगरह’, इसमें गांधीजी भी शामिल हैं, मार्टिन लूथर किंग भी हैं, विभूति नारायण राय भी हैं और हम सब हैं।

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विभूति नारायण रायः अब हम ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे हैं जहाँ बहुत हद तक जाने पर प्रतिबंध है। फैज साहब आपसे एक ऐसा सवाल पूछ रहा हूँ अगर आप जवाब देना चाहें तो बहुत अच्छा है और न देना चाहें तो आपकी मर्जी। ये जो मुसलिम उम्मा है उसमें पसमांदा के लिए क्या स्पेस है? जैसे हमारे यहां जो हिंदुत्व के लोग हैं वे समरसता की बात करते हैं कि सारे हिंदू एक हैं, कोई जाति नहीं है कोई भेदभाव नहीं है लेकिन हकीकत है कि ऐसा है। अपने जो दलित हैं, पिछड़े हैं हम उन्हें लगातार इस स्पेस से वंचित रखने की कोशिश करते हैं। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे वे अपनी जगह हासिल करते जा रहे हैं। एक तरह से काफी कुछ चीजें जैसे छुआछूत वगैरह बेमानी हो चुकी हैं। तो इस्लामी उम्मा में पसमांदा को कितना हिस्सा मिलता है?

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फैयाज अहमद फैजीः एक लाइन में अगर आपकी बात का जवाब दिया जाए तो हिस्सा बराबर वालों को दिया जाता है। गुलाम को हिस्सा नहीं दिया जाता है। मालिक अपने गुलाम को हिस्सा नहीं देता है उससे सेवा लेता है। पसमांदा के हालात मुसलिम उम्मा में गुलाम जैसे हैं। अशराफ इन्हें गुलाम की तरह इस्तेमाल करते हैं, हिस्सेदारी तो उसकी नहीं होती। मैं थोड़ी सी अपनी बात उम्मा के बैकग्राउंड को लेकर रखूंगा। इस्लाम जहां आया वह कबीलाई सिस्टम था। कबीलों  के बीच एकता करने के लिए इस्लाम की तरफ़ से एक विचार था, उम्मा का विचार क्योंकि कबीले आपस में बहुत लड़ा करते थे, एक दूसरे के ख़ून के प्यासे थे तो इसे अरबी राष्ट्रवाद कह सकते हैं। इस्लाम को अरबी नेशनलिज़्म से भी जाना जाता है। पूरी दुनिया में अरब ही गए और इस्लाम का विस्तार हुआ। दूसरी संस्कृतियों के लोग इस्लाम में आए तो यह एक अलग रूप में सामने आता है। लेकिन अल्लाह के रसूल के जाने के बाद ही उम्मा का जो विचार था वह टूट गया। बुखारी की हदीस है कि कुरैश में जो पैदा होगा, वही खलीफा होगा तो पहला धक्का वहाँ लगता है। दूसरा धक्का सूफिज़्म से लगता है जो पूरी तरह से नस्लवाद और सैय्यदवाद की बात करता है कि सैय्यद ही खलीफा हो सकता है। सूफीज़्म में आप यही देखेंगे, तो यहां से उम्मा टूट जाता है। पसमांदा आंदोलन का साफ़ मानना है कि अब जो उम्मा का कंसेप्ट है वह एक टूल के तौर पर है, जो शासक वर्ग है, जो इलीट क्लास है वह अपनी सत्ता, अपना वर्चस्व बचाए रखने के लिए इसका इस्तेमाल करता है। भारत में जब कोई अशराफ चुनाव लड़ता है तो नारा दिया जाता है कि इस्लाम ख़तरे में है और सारे मुसलमानों एक हो जाओ लेकिन अगर कोई पसमांदा खड़ा होता है तो उम्मा की बात हवा हो जाती है। हिंदू तो वोट दे देता है पसमांदा को लेकिन अशराफ वोट नहीं देता है। तो एक टूल के तौर पर उम्मा का शब्द इस्तेमाल होता है और समाज में उसकी कोई सच्चाई नहीं रह गई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखेंगे तो जितने मुसलिम मुमालिक हैं, आप अरब लीग देखेंगे, मुसलिम लीग नहीं देखेंगे। अरब लीग बना रखा है, ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन भी उन्होंने बना रखा है लेकिन आप देखेंगे के ये अरबों का संगठन है। अफ्रीका में आप जाएंगे तो काले मुसलमान इस्लामिक राष्ट्र नहीं माने जाते हैं। अफ़ग़ानिस्तान में आप आएं तो वह पखतूनों का देश है, हजारा की कोई जगह नहीं है। उम्मा के नाम पर जो देश बना पाकिस्तान वहां भी देखें पंजाबी अलग, बलूची अलग, सिंधी अलग तो यह कहीं एकजिस्ट नहीं करता है। चंद लोग जो इलीट क्लास है बार-बार इसे दोहराते हैं कि इस्लाम ख़तरे में है, सारे भाई हैं, दरअसल वे अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए इसे लेकर आते हैं।

(अगले अंक में जारी...)

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