देश ने रविवार को आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाई। ‘आज़ादी’ शब्द का विस्तार बड़ा है। यह सिर्फ़ एक घटना भर नहीं है, बल्कि इतिहास की एक ऐसी तारीख़ है, जिस तक पहुँचने के लिए दमन और शोषण के एक दौर से गुज़रना पड़ा। इस दौर से गुज़र कर स्वतंत्रता तो हमें मिली पर उसकी भी एक कीमत चुकानी पड़ी- ‘विभाजन’ के रूप में। शाब्दिक अर्थ में, धर्म के आधार पर मुस्लिम बहुल पंजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत के हिस्सों को बाँट, पाकिस्तान के रूप में एक नए राष्ट्र-राज्य में ढाल कर।
आज सवाल यह उठता है कि विभाजन को- इस ऐतिहासिक परिघटना (तथाकथित दुर्घटना?) को याद कैसे किया जाये? या, जब हम ‘विभाजन’ सुनते हैं, तो उसे किस प्रकार से ग्रहण करते हैं, किस प्रकार की छवियाँ मस्तिष्क में उभरती हैं? क्योंकि स्वतंत्रता मिल जाने के उल्लास में आगे आने वाली नस्लों को सिर्फ इतिहास के एक तथाकथित स्वर्णिम हिस्से को दिखलाया जाता रहा है, पर जो एक स्याह सच था (सआदत हसन मंटो का सियाह हाशिये शायद), जिसे अक्सर स्कूलों के इतिहास-पाठ्यक्रम में महज़ एक-दो अनुच्छेदों में समाप्त कर दिया जाता रहा, उसे याद रखने के लिए शायद ज़्यादा वजह नहीं ढूँढे गए। या बस, विभाजन से जुड़ी हिंसा को पॉपुलर मेमोरी में याद रखा जाता रहा, क्योंकि वो ही सबसे अधिक दिखने वाली चीज़ थी- और इस प्रकार विभाजन के पूरे सच को सीमित कर के छोड़ दिया गया, उसके देशव्यापी-कालव्यापी प्रभाव को नकार दिया गया।
हिंदुस्तान का विभाजन देखा जाए तो महज़ एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी जो नक्शे पर लकीर खींच कर पूरी कर दी गई। सही मायने में तो जैसा कि ज्ञानेन्द्र पांडे कहते हैं, ‘विभाजन भारतीय उप-महाद्वीप की सांस्कृतिक निरन्तरता से भरे इतिहास में एक ऐसे दरार का क्षण था, जिसने इस उपमहाद्वीप को स्तब्ध कर दिया।’ विभाजन के साथ हुए सांप्रदायिक उन्माद और हिंसा के पूरे दौर से निकल कर, जब सरहदों के आर-पार जनसंख्या का विस्थापन हुआ, तो अब तक के मानव इतिहास में लोगों के विस्थापन की यह संभवतः सबसे बड़ी घटनाओं में से एक बन गया। विभाजन- एक ऐसी आंधी था, जिसने लोगों को उनकी जड़ों से उखाड़ कर आजीवन एक मानसिक निर्वासन की स्थिति में छोड़ दिया, स्त्रियों को धार्मिक समुदायों ने अपनी शक्ति-प्रदर्शन का वह क्षेत्र बना कर रख दिया (उर्वशी बुटालिया ने, The other side of silence में) जहां हर समुदाय अपने-आप को दूसरे के बर-अक्स प्रभुत्वशाली साबित करना चाहता था। विभाजन- एक ऐसे कल्पित राष्ट्र का वादा था, जिसकी कल्पना कम-से-कम आम जनता ने तो नहीं की थी, और क्या विडंबना है कि उन्हें ही अपने-अपने वतन को छोड़ कर इस तथाकथित कल्पित परिवेश में जाने के लिए बाध्य कर दिया गया।
यह पूरी संवेदना अगर विभाजन से जुड़ी है, तो इसे याद कैसे रखा जाए और क्यों रखा जाए? स्मृतियों को - विशेषकर हिंसा और विध्वंस की स्मृतियों को- किस प्रकार से आगे आने वाली पीढ़ियों को याद रखना चाहिए? या याद रखना भी चाहिए भी या नहीं? ये तमाम कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिसे संभवतः हर तथाकथित ‘स्वतंत्रता दिवस’ पर विचारे जाने की आवश्यकता है।
विभाजन के तथाकथित सिद्धांतों में अंततः विभाजन के कारणों पर बहस होती रही है, और कमोबेश, कभी कुछ राजनीतिक दलों, तो कभी कुछ राजनीतिक व्यक्तियों और प्रायः ब्रिटिश सत्ता पर दोषारोपण, अपनी-अपनी दृष्टि से किया जाता रहा है।
इतिहासकारों की दृष्टि में बदलाव
1980 के बाद विभाजन को देखने की इतिहासकारों की दृष्टि में थोड़ा बदलाव आया। बातें सिर्फ कारणों और उत्तरदायी तत्वों पर नहीं बल्कि विभाजन के तत्कालीन और दूरगामी प्रभावों और परिणामों पर होने लगीं। विभाजन, एक राजनीतिक घटना के अलावा, एक मानवीय और सामाजिक पहलू भी है, इसे स्वीकार किया जाने लगा। इसी कारण से विभाजन के प्रभावों को स्त्रियों के स्तर से, दलितों के स्तर से भी देखा गया।
इस प्रकार विभाजन को याद किये जाने की प्रविधियाँ, नए दस्तावेजों, विभाजन से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए लोगों के साक्षात्कार और संस्मरणों इत्यादि के सामने आने से समय-समय पर परिवर्तित-विकसित होती रहीं और विभाजन के कारण की चर्चा तक ही इतिहास को सीमित न रखते हुए, उसके मानवीय प्रभावों को भी समझा गया, पब्लिक डिबेट का हिस्सा बनाया गया।
पर स्मृतियाँ किसी ऐतिहासिक प्रविधि की मोहताज तो नहीं। इन स्मृतियों पर तो हर उस समुदाय का, हर उस व्यक्ति का अधिकार है, जिसने उस दौर को जिया या उससे आगे आने वाली पीढ़ियाँ प्रभावित हुईं। साहित्य ने- विशेषकर पूरे भारतीय उप-महाद्वीप के साहित्य ने विभाजन को जिस प्रकार से अपनी रचना-शक्ति का केंद्र बनाया, उससे सही मायनों में विभाजन को याद करने की ज़रूरत को स्पष्ट किया जा सका। साहित्य द्वारा, विभाजन को एक सामूहिक-सांस्कृतिक क्षति के रूप में स्पष्ट किया जा सका। मसलन, झूठा-सच में यशपाल ने, तमस में भीष्म साहनी ने, आधा गाँव में राही मासूम रज़ा ने, पिंजर में अमृता प्रीतम ने, स्याह हाशिये में सआदत हसन मंटो ने, बस्ती में इंतिज़ार हुसैन ने, उदास नस्लें में अब्दुल्ल बिस्मिल्लाह ने, तो अंग्रेजी में खुशवंत सिंह, चमन नहल, बापसी सिदवा, अमिताभ घोष और तमाम अन्य रचनाकारों ने अपनी-अपनी भाषा में विभाजन को उसकी पूरी मानवीयता के साथ याद किया है, इस ऐतिहासिक क्षण को सामाजिक-वैयक्तिक-मनोवैज्ञानिक संदर्भों में समझाया है।
कथ्य या वस्तु-स्थितियों की विविधता भले ही इन सब रचनाओं में मिलती हो, पर एक अंतर्धारा जो इन सब में सतत विद्यमान रहती है वह है: विभाजन को क्षति-बोध (सेन्स ऑफ़ लॉस) के रूप में ग्रहण करना।
यह क्षति क्या थी? ज़मीन के टुकड़े भर से अलग हो जाने का दर्द तो एक ऊपरी मैनिफेस्टेशन मात्र है। कहीं गहरे जाकर जिस क्षति-बोध को हर रचनाकार महसूस कर रहे थे, वह तो हर उस समुदाय की अपनी साझी संस्कृति से, सदियों से साथ जीते चले आने की व्यवस्था से, टूट कर छिटक जाने का अवसाद था।
भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति एक दिन का परिणाम नहीं थी। इस संस्कृति के बनने में सदियों लगी थी। लंबे समय के आदान -प्रदान से बनी थी। इस प्रकार से जिस भारतीयता या जिस हिन्दुस्तानियत का जन्म हुआ था वह तो एक मिली-जुली व्यवस्था थी, जिसके निर्माण में हर एक की साझेदारी थी। इसी साझेदारी से, निर्माण की इस प्रक्रिया से, जब रातों-रात लोगों को अलग कर दिया गया, उनकी दावेदारी को निरस्त कर दिया गया, तो विभाजन एक दु:स्वप्न बन गया। ऐसा दु:स्वप्न जिसे बंद कमरों में कुछ राजनीतिक दावेदारों द्वारा संभव किया गया था, और जिससे आम जनता का कोई सरोकार नहीं था।
आज जब समय का पहिया घूमता हुआ 21वीं सदी में पहुँच चुका है और विभाजन को अधिकांश जनसंख्या सिर्फ़ किताबों के माध्यम से जानती है, वैसी स्थिति में विभाजन को याद रखने की ज़िम्मेदारी इसलिए और अधिक हो जाती है कि जिन कारणों से वह युग-परिवर्तनकारी, काल-व्यापी घटना हुई थी, वे सारे कारक आज उससे भी दुगुनी गति से सक्रिय हैं। धर्म के नाम पर राजनीतिक हितों को साधने की कारवाई 1947 में भी की गयी थी, और किसी एक पक्ष को इस आरोप से रिहा नहीं किया जा सकता। पर बेज़ुबान जनता जिससे न 1947 में पूछा गया कि क्या वो वाक़ई अपनी जड़ों से उखड़ना चाहती है या जिस कल्पित प्रदेश का वायदा उनसे किया जा रहा है, जिस सुब्ह-ए-आज़ादी का ख्वाब उन्हें दिखलाया गया था, वह क्या सच्ची आज़ादी थी? क्योंकि अगर यह सच था, तो फ़ैज़-अहमद-फ़ैज़ निराशा के उन क्षणों में यह कभी न लिखते :
'ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल’
विभाजन के वक़्त उन्मादी हिंसा
आज भी जब आम जनता को धर्म के नाम पर संगठित किया जाता है, ख़ेमों में लामबंद किया जाता है, धर्म को वैयक्तिक आस्था का नहीं, बल्कि पहचान का, चेतना का हिस्सा बनाया जाता है, तो यह निश्चित रूप से सावधान रहने की ज़रूरत है। विभाजन के समय जो उन्मादी हिंसा हुई थी वो हिंसा साधारण परिस्थितियों में कभी नहीं होती, क्योंकि ऐसा उप-महाद्वीप के अब तक के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था। युगों से जिस सांस्कृतिक साझेदारी के साथ समुदाय, इस भू-खंड में रहते आए थे, उसमें इस तरह की हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं थी। ये कल्पना से परे था। पर इतिहास की विध्वंसकारी शक्तियों ने सांस्कृतिक निरन्तरता में ऐसी दरार पैदा कर दी कि रातों-रात पीढ़ियों से साथ रहते समुदाय, एक दूसरे से असुरक्षा महसूस करने लगे, एक-दूसरे को संशय से देखने लगे, और जब धर्म को आधार बना कर उन्हें संचालित किया गया, तो ज़मीन पर खींची गई लकीरें दिलों में भी उतर आईं, ख़ून का बदला ख़ून से लिया जाने लगा।
हिंसा या नफ़रत जिस कदर तेज़ी से फैलती है, उसका प्रभाव भी उतना ही क्षणिक होता है।
आज जब 75 साल बाद विभाजन एक दूर अतीत की बात लगती है, जिसकी धूल बैठने लगी है, वह उन्माद जिसने इंसान को इंसान का शत्रु बना दिया था, वह जब समाप्त हो चुका है, तो समझ में आता है कि वह पागलपन कितना क्षणिक था, कितना सतही था। क्योंकि आज विभाजन से बने दो देश देखते हैं तो यह पता चलता है कि सरहद के दोनों ही पार लोग एक से हैं, उनके विश्वास, आचार-विचार एक से ही हैं। सिर्फ धर्म अलग हो जाने से जो शाश्वत मानवीय मूल्य हैं, वह तो रातों-रात बदल नहीं गये? इंसान तो इंसान ही है। और जब सियासी महत्वाकांक्षाएं अपनी भूमिकाएं निभाना बंद कर देंगी तो जो लोग हैं जिनकी समस्याएं सरहद के दोनों ही तरफ एक-सी हैं, और जिनके समाधान भी कमोबेश एक हैं, वो विभाजन को एक त्रासदी ही समझेंगे जिसकी कोई ऐतिहासिक अनिवार्यता नहीं थी।
हिंसा विभाजन का बाय-प्रोडक्ट
ऐसे में किसी दिन विशेष को विभाजन से जुड़ी हिंसा को याद करने का दिन मुक़र्रर करने की ज़रूरत ही नहीं होगी। क्योंकि वह हिंसा विभाजन का बाय-प्रोडक्ट थी, उद्देश्य नहीं। ऐसे में तो आवश्यकता है कि इन दो देशों में जिस आज़ादी का जश्न हर साल मनाया जाता है, उसे सिर्फ क़ौमी फ़तह का जश्न न मान कर, एक सामूहिक शोक की तरह भी याद किया जाए। शोक, किसी हिंसा को याद करने का नहीं बल्कि, उस साझी संस्कृति का, इतिहास के तथाकथित निर्माताओं द्वारा विनाश कर दिए जाने का, लोगों को लोगों से दूर कर दिए जाने का, अपने-अपने वतन से ही नहीं बल्कि मंटो के टोबा टेकसिंह की तरह स्वयं से भी निर्वासित कर दिए जाने का। और हर युग की रचनात्मकता ने विभाजन को वाक़ई इसी रूप में याद किया है। अगर अमृता प्रीतम, अपने वारिस शाह को याद कर के रोती हैं, तो आज गुलज़ार भी विभाजन को एक सामूहिक-सांस्कृतिक क्षति-बोध के रूप में याद कर के ही लिखते हैं:
'वतनां वे, ओ मेरेया वतनां वे
बंट गए तेरे आँगन, बुझ गए चूल्हे सांझे,
लुट गई तेरी हीरें, मर गए तेरे रांझे।
कौन तुझे पानी पूछेगा, फसलें सींचेगा
कौन तेरी माटी में ठंडी छाँव बीजेगा।
बैरी काट के ले गए तेरियाँ ठंडियां छाँवां वे।
हम न रहें तो कौन बसायेगा तेरा विराना,
मुड़के हम न देखेंगे और तू भी याद न आना।
गीटे कंचे बाँट के कर ली, कर ली कुट्टी, वतनां वे’।
इतिहास के उन पन्नों को अपनी स्मृति में एक विरासत के रूप में याद रखने में और वर्तमान के इतिहास से सीख लेने में ही, विभाजन को याद रखने की सार्थकता है। और शायद दोनों ही मुल्कों के लिए है- क्योंकि जैसा कि गुलज़ार की नज़्म कहती है -
‘लोगों से ही वतन बनते हैं, उनसे ही मुल्कों के रूख बनते-बिगड़ते हैं’
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