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शास्त्री और मोदी की तुलना बेमानी है!

लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिन पर सत्य हिन्दी की ख़ास पेशकश।

भारत के स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी 2अक्टूबर को ही था, लेकिन चूँकि स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन उसी दिन पड़ता है, जिस दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का जन्म दिन होता है, इसलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की विराटता और भव्यता के सामने शास्त्री का जन्मदिन तुलनात्मक रूप से छिप सा जाता है।

लाल बहादुर शास्त्री का प्रधानमंत्रित्व काल बहुत संक्षिप्त लगभग 18 महीने का ही रहा है और वे भारतीय राजनीति के दो बड़े व्यक्तित्व वाले प्रधानमंत्रियों क्रमशः नेहरू और इंदिरा गांधी के बीच के कार्यकाल में रहे हैं। 

लाल बहादुर शास्त्री जी ने अपने संक्षिप्त कार्यकाल में ही ऐसे-ऐसे अविश्वमरणीय और साहसिक कार्य कर दिए थे कि इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करा गये। 

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उदाहरण के तौर पर उनको कमजोर समझ उनके कार्यकाल में ही पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया था,परन्तु शास्त्री अपने साहसिक व त्वरित निर्णय करने की क्षमता से पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिये।

उस युद्ध में भारतीय सेना पाकिस्तानी शहर लाहौर के इतने निकट पहुंच गई थी कि अमेरिका को अपने वाणिज्य दूतावास के कर्मचारियों और अधिकारियों को वहाँ से आकस्मिक तौर पर हटाकर सुरक्षित जगह ले जाना पड़ गया था।

lal bahadur shashtri birth anniversary coincides with gandhi birth anniversary - Satya Hindi
ताशकंत में लाल बहादुर शास्त्री

सोवियत साजिश?

अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ ने मिलकर यह युद्ध किसी भी तरह रुकवाने के लिए एक साजिश के तहत शास्त्री को ताशकंद बुलाया। इन देशों ने जीते हुए भूभाग  पाकिस्तान को लौटाने के लिए बाध्य करते हुए भारत-पाकिस्तान संधि को मजबूर किया गया।

शास्त्री किसी भी सूरत में और किसी भी कीमत पर भारतीय सेना द्वारा जीती गई ज़मीन पाकिस्तान को लौटाने को तैयार नहीं थे।

ग़रीबी में गुजरा बचपन

              

शास्त्री जी बनारस के पास के एक गाँव के बहुत ही ग़रीब परिवार में जन्में थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई बहुत ही ग़रीबी में जैसे-तैसे हुई थी। उनकी ग़रीबी के बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर है कि उनके गाँव से स्कूल के रास्ते के बीच एक छोटी सी नदी पड़ती थीं। 

नाव से पारकर उस पार जाना पड़ता था, परन्तु बालक शास्त्री के पास नाव वाले को देने के पैसे नहीं होते थे। उस बालक शास्त्री ने इसके लिए एक तरकीब निकाली। वे अपने बस्ते और कपड़ों को अपने नाव पर बैठे दोस्त को पकड़ा देते थे और खुद तैरकर नदी को पार कर लेते थे। 

शास्त्री ने कभी भी अपने इस बात को देश के सामने शेखी बघारने के लिए प्रदर्शित नहीं किया। 

कुछ दिनों पहले गृहमंत्री अमित शाह ने लाल बहादुर शास्त्री और नरेन्द्र मोदी की किसी प्रसंग में तुलना कर दी, जो बिल्कुल बेमानी है।

इंपाला कार की कहानी

शास्त्री 1964 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उनको सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली थी। जिसका उपयोग वह बिल्कुल ना के बराबर ही करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अथवा विशिष्ट अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी। 

एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री अपने किसी निजी काम के लिए उस इंपाला कार को कहीं ले गए और उसे वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। शास्त्री को यह बात जब पता चली तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई है? जब ड्राइवर ने बताया कि 14 किलोमीटर तो उन्होंने निर्देश दिया कि लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज। 

शास्त्री यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर उन्हें निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा कर दें।

रेल मंत्री शास्त्री

शास्त्री रेल मंत्री थे और बम्‍बई जा रहे थे तो रेलमंत्री होने के नाते उस ट्रेन में उनके लिए प्रथम श्रेणी का एक डिब्बा लगा था। गाड़ी चलने पर शास्त्री बोले डिब्बे में काफ़ी ठंडक है वैसे बाहर बहुत गर्मी है। उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा जी! इसमें कूलर लगाया गया है। 

शास्त्री ने पैनी निगाह से उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा, “कूलर लगाया गया है! बिना मुझसे बताए? आप लोग कोई काम करने से पहले मुझसे पूछते क्यों नहीं? क्या इस रेलगाड़ी में और सारे लोग चल रहे हैं, उन्हें गरमी नहीं लगती होगी?” शास्त्री ने कहा, “कायदा तो यह है  कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिए था लेकिन उतना तो नहीं हो सकता पर जितना हो सकता है उतना तो करना ही चाहिए।” उन्होंने आगे कहा, “बड़ा ग़लत काम हुआ है। आगे गाड़ी जहाँ भी रुके,पहले कूलर निकलवाइए।” 

मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकी और कूलर निकलवाने के बाद ही गाड़ी आगे बढ़ी।

lal bahadur shashtri birth anniversary coincides with gandhi birth anniversary - Satya Hindi
आज भी फर्स्ट क्लास के उस डिब्बे में जहां कूलर लगा था,स्वर्गीय शास्त्री जी की स्मृति में लकड़ी जड़ी है।
1956 में महबूबनगर के अरियालपुर रेल हादसे में 112 लोगों की मौत हो गई थी। शास्त्री ने इस रेल हादसे की संपूर्ण जिममेदारी अपने ऊपर लेकर पद से इस्तीफ़ा दे दिया ।

आर्थिक सहायता

आज़ादी से पहले की बात है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपत राय ने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाना था। आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री भी थे। 

उनको घर का खर्चा चलाने के लिए सोसाइटी की तरफ से 50 रुपए हर महीने दिए जाते थे। एक बार उन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र लिखकर पूछा कि क्या उन्हें ये 50 रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घर का खर्च चलाने के लिए पर्याप्त हैं? ललिता शास्त्री ने जवाब दिया कि ये राशि उनके लिए काफी है। वह तो सिर्फ 40 रुपये ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बचा रही हैं।लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखकर कहा कि उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में हो जा रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और बाकी के 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिए जाएँ। 

lal bahadur shashtri birth anniversary coincides with gandhi birth anniversary - Satya Hindi

रेलवे में नौकरी!

शास्त्री जब रेलमंत्री थे, उस वक्त उन्होंने अपनी माँ को यह कभी नहीं बताया था कि वो रेलमंत्री हैं, बल्कि उन्होंने अपनी माँ को सिर्फ ये बताया था कि वे रेलवे में नौकर हैं। इसी दौरान मुग़लसराय में एक रेलवे विभाग का एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित हुआ, जिसमें शास्त्री को ढूंढते-ढूंढते उनकी मां भी उस सभास्थल पर पहुंच गईं।

उनकी माँ ने वहाँ मौजूद लोगों से कहा कि उनका बेटा भी रेलवे में नौकरी करता है। लोगों ने उनकी माँ से उनके बेटे का नाम पूछा, माँ ने कहा मेरे बेटे का नाम लाल बहादुर शास्त्री है।

लोग हैरान रह गये जब उन्हें यह पता चला कि शास्त्री जी की माँ को यह भी नहीं पता है कि उनका बेटा रेलवे में नौकरी नहीं करता, बल्कि वह रेल मंत्री पद पर आसीन है।

सस्ती साड़ी

एक बार शास्त्री कपड़े की एक दुकान में साड़ियाँ खरीदने गए। दुकान का मालिक शास्त्री को पहचान कर, उन्हें देख कर बहुत खुश हो गया। उसने उनके आने को अपना सौभाग्य माना और उनका बहुत स्वागत-सत्कार किया।

शास्त्री ने उससे कहा कि वे जल्दी में हैं और उन्हें चार-पाँच साड़ियाँ चाहिए। दुकान का मैनेजर शास्त्री को एक से बढ़कर एक साड़ियाँ दिखाने लगा। सभी साड़ियां काफी कीमती थीं। शास्त्री बोले, “भाई ! मुझे इतनी महंगी साड़ियाँ नहीं चाहिए। कम कीमत वाली दिखाओ।” इस पर मैनेजर ने कहा ,”सर ! आप इन्हें अपना ही समझिए, दाम की तो कोई बात ही नहीं है। यह तो हम सबका सौभाग्य है कि आप हमारी दुकान में पधारे।” शास्त्री उसका मतलब समझ गए।उन्होंने कहा, “मैं तो दाम देकर ही लूंगा। मैं जो तुम से कह रहा हूं उस पर ध्यान दो और मुझे कम कीमत की साड़ियाँ ही दिखाओ और उनकी कीमत बताते जाओ।”

तब उस दुकान के मैनेजर ने शास्त्री को थोड़ी सस्ती साड़ियां दिखानी शुरू कीं। शास्त्री जी ने कहा, “ये भी मेरे लिए महंगी ही हैं। और कम कीमत की साड़ियों को दिखाओ।” तब भी मैनेजर को एकदम सस्ती साड़ी दिखाने में संकोच हो रहा था।शास्त्री इसे भांप गए। उन्होंने कहा, “दुकान में जो सबसे सस्ती साड़ियां हों वही मुझे दिखाओ। मुझे वही चाहिए  !” आखिरकार मैनेजर को हारकर उनके मनमुताबिक साड़ियाँ निकालनी पड़ीं। शास्त्री ने उनमें से कुछ चुन लीं और उनकी कीमत अदा कर चले गए।

महात्मा गाँधी भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में एक वटवृक्ष हैं! अगर स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी को भी जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा  गांधी, सरदार मनमोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह कुछ लम्बा समय मिला होता तो निश्चित रूप से शास्त्री भी इस देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तरह भारतीय राजनैतिक परिदृश्य के भले ही वटवृक्ष नहीं बनते पर एक विशाल चंदन के वृक्ष की तरह सुगंध बिखेरते रहते। 
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निर्मल कुमार शर्मा
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