तमिलनाडु के एक मंदिर में दलितों के प्रवेश को एक ऐतिहासिक कदम के रूप में क्यों देखा जा रहा है? इस सवाल का जवाब इस तथ्य से मिल सकता है कि अनुसूचित जाति के एक समुदाय के लोगों को लगभग आठ दशकों तक उस मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया था। तिरुवन्नामलाई जिले में स्थित उस मंदिर में पुलिस और जिला प्रशासन द्वारा उन दलितों को पूजा के लिए ले जाया गया।
मंदिर में दलितों का प्रवेश इतना आसान भी नहीं था। इसके लिए ख़ास तैयारी करनी पड़ी थी। तिरुवन्नमलाई जिला प्रशासन के प्रयास से इसके लिए इलाक़े के प्रमुख समुदाय के प्रमुखों के साथ कई दौर की बैठकें हुईं। दलितों के मंदिर में प्रवेश के दौरान कोई अप्रिय घटना न हो, इसके लिए मंदिर के बाहर भारी पुलिस बलों की तैनाती भी की गई थी।
दलितों के मंदिर में प्रवेश नहीं देने का मामला ज़िला प्रशासन के सामने तब आया था जब माता-पिता-शिक्षक संघ की बैठक के दौरान यह मुद्दा उठा। इसके बाद जिला प्रशासन ने उनके प्रवेश के लिए शांति बैठकें कराईं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, प्रशासन के इस कदम का इलाके के प्रभाव रखने वाले समूहों ने उग्र विरोध भी किया। प्रभावशाली समुदाय के सैकड़ों लोग विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं और वे मंदिर को सील करने की मांग कर रहे हैं। एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार रेंज डीआईजी डॉ. एम एस मुथुसामी ने कहा, 'अभी भी प्रभावशाली समुदाय विरोध करते हैं। हमने 400 सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया है। कोई भी अप्रिय घटना होने पर कानून अपना काम करेगा।'
एक रिपोर्ट के अनुसार थेनमुडियानूर गांव में बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं। इस समुदाय को क़रीब आठ दशक से मंदिर में प्रवेश से वंचित रखा गया था।
बता दें कि तमिलनाडु सरकार 30 जनवरी को शहीद दिवस पर अस्पृश्यता विरोधी शपथ दिलाती है। रिपोर्ट के अनुसार जिला कलेक्टर डॉ. पी मुरुगेश ने कहा है कि हमने अनुसूचित जातियों के संवैधानिक अधिकारों की स्थापना की है। उन्होंने कहा कि यह सत्तर साल पुराना मंदिर है। उन्होंने कहा कि यह एक अलग बराबरी का जमाना है, हम इसकी अनुमति नहीं दे सकते, हम नज़रिए में बदलाव लाएंगे।
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