भारत में बहुत सारे लोगों को ये समझ में नहीं आ रहा होगा कि आखिर साउथ अफ्रीका के विकेटकीपर बल्लेबाज़ क्विंटन डि कॉक को लेकर इतना बवाल क्यों मचा हुआ है? कहने को तो डि कॉक ने वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ हुए वर्ल्ड कप मैच में अपने साथी खिलाड़ियों के साथ घुटने के बल पर बैठने का निर्णय नहीं लिया जो “ब्लैक लाइव्स मैटर्स” मूवमेंट के लिए पूरी दुनिया में चल रहा है।
इंग्लैंड जैसे देश ने भी इस पूरे अभियान को अपना समर्थन दिया है लेकिन साउथ अफ्रीका के किसी श्वेत खिलाड़ी का ऐसा करने से इनकार करना काफी अचंभित करने वाला फैसला है।
क्यों की टीम और मुल्क की अनदेखी?
हर खिलाड़ी अक़सर ये दलील देता है कि कोई भी खिलाड़ी खेल से बड़ा नहीं, और टीम से बड़ा कोई नहीं, तो ऐसे में डि कॉक ने कैसे खुद को टीम से बड़ा मान लिया? और इस मामले में टीम तो छोड़िये उन्होंने खुद को देश से ऊपर मान लिया। उनका ये फैसला साफ करता है कि अब भी नयी पीढ़ी के श्वेत खिलाड़ियों में अपनी सफेद चमड़ी का गुरुर तनिक भी ख़त्म नहीं हुआ है।
2009 में मैंने खुद साउथ अफ्रीका का दौरा किया और वहां के छोटे-बड़े शहरों की संस्कृति से रूबरु हुआ। लेकिन, 80 फीसदी से ज़्यादा अश्वेत लोगों के इस देश में दबदबा बड़े मामलों में अब भी श्वेत लोगों का ही दिखा। पिछले एक दशक में हो सकता है कि हालात पहले से बेहतर हुए हों लेकिन अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
भारत जैसी ही असमानता वाली सामाजिक कहानी
दरअसल, साउथ अफ्रीका की यह घटना आपको, भारत में बड़ी जातियों के दबदबे और तथाकथित छोटी जातियों के बीच संघर्ष की कहानी जैसी लग सकती है।
आज़ादी के 7 दशक बाद भी देश के हर क्षेत्र में अब भी सवर्णों का ही बोलबाला दिखाई देगा जैसा साउथ अफ्रीका में श्वेत लोगों का दिखता है। भारत के सवर्ण वर्ग से आने वाले लोग अकसर आरक्षण शब्द का नाम सुनने भर से ही बौखला जाते हैं जबकि साउथ अफ्रीका ने दुनिया के सामने एक मॉडल पेश किया है कि कैसे आरक्षण की नीतियों को ईमानदारी से ज़मीनी स्तर पर ले जाया जाए तो वाकई में सदियों से पिछड़े वर्ग के लोगों का कल्याण हो सकता है।
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एंटिनी की कहानी के बारे में जानिए
आपको एक बेहद दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं। साउथ अफ्रीका के श्वेत प्रशासकों को हमेशा इस बात की ग़लतफहमी थी कि टॉप क्लास खिलाड़ी अश्वेत वर्ग से आ ही नहीं सकते हैं। लेकिन, 1992 में दोबारा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी करने के बाद साउथ अफ्रीका के क्रिकेट अधिकारी अपना नज़रिया बदलने को मजबूर हुए। उन्हें ये कहा गया कि कम से कम अश्वेत खिलाड़ियों को मौके तो दिये जायें।
1993 में इंस्टर्न केप के डेल कॉलेज, जो कि एक बेहद प्रतिष्ठित स्कूल है, और जहां क्रिकेट का अपना गौरवमयी इतिहास रहा है, के मखाया एंटिनी को दाखिला मिलता है जो उनके गांव Mdingi से बहुत दूर तो नहीं था लेकिन उनके सपनों की पहुंच से काफी दूर था।
एंटिनी इतने ग़रीब थे कि उनके पास खुद के जूते तक नहीं थे और नंगे पैर ख़तरनाक तेज़ गेंदबाज़ी करते थे।
ऐसी प्रतिभा के बारे में जब अधिकारियों ने सुना तो एंटिनी को ना सिर्फ डेल कॉलेज में मौका मिला बल्कि अगले 4 साल के बाद वो अपने मुल्क के लिए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने वाले पहले अश्वेत खिलाड़ी बने।
अगले एक दशक में 101 टेस्ट और 390 टेस्ट विकेट, 173 वन-डे और 266 विकेट लेकर एंटिनी ने दिखाया कि वो कोटे वाले खिलाड़ी नहीं थे। दरअसल कोटा क्या होता है? अगर समाज में ऐतिहासिक तौर पर पिछड़े लोगों को समान मौके नहीं दिये जायेंगे तो वो खुद को साबित कैसे करेंगे।
ये सच है कि हर कोई एंटिनी की तरह बेहद कामयाब नहीं होगा लेकिन यही बात तो उन लाखों श्वेत खिलाड़ियों पर भी तो लागू होती है ना, जो अपने देश के लिए खेल नहीं पाते हैं, तमाम सुविधायें और मौके मिलने के बावजूद?
कगीसो रबाडा की भी पृष्ठभूमि जानें
एक और मौजूदा अश्वेत खिलाड़ी। तेज़ गेंदबाज़ कगीसो रबाडा की भी पृष्ठभूमि को आपके लिए शायद जानना ज़रुरी है। रबाडा के माता-पिता को तथाकथित कोटा सिस्टम की वजह से मेडिकल की पढ़ाई करने का मौका मिला और वो पेशे से बेहद सम्मानजनक डॉक्टर हैं।
उनके बेटे रबाडा को वो तमाम सुविधायें मिलीं जो किसी भी संपन्न श्वेत परिवार को साउथ अफ्रीका में मिलती हैं। रबाडा जिस माहौल में बढ़े हुए और पढ़े लिखे और क्रिकेट खेले उन्हें कभी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि चमड़ी के रंग के चलते उनके साथ कभी भेदभाव वाला सलूक किया गया हो।
हाल में उन्होंने एक इटंरव्यू में खुलासा किया कि जब भी वो गर्मी की छुट्टियों में अपने दादा-दादी के साथ एक महीने के लिए रुकते थे (वहां की परंपरा का हिस्सा है जहां हर बच्चे को अपने मां-पिता के परिवार वालों के साथ 1 महीना बिताना होता है) तो उन्हें अपने चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों को देखकर काफी अजीब लगता था क्योंकि उनका रवैया अजीब होता था।
रबाडा ने माना कि वो बात उन्हें अब समझ में आयी कि ऐसा क्यों होता था क्योंकि उनके भाई-बहनों को उन्हीं की तरह आर्थिक लाभ नहीं मिला था जिससे वो बेहतर जीवन-शैली के बारे में सोच पाते।
अश्वेत खिलाड़ियों संग नाइंसाफ़ी
कुल मिलाकर देखा जाए तो डि कॉक के इस कदम ने एक बार फिर से उस देश की सबसे कमजोर नस को फिर से दबा दिया है। इसका जवाब आसान नहीं है क्योंकि अभी साउथ अफ्रीका में क्रिकेट अपने पुराने पापों को धोने के लिए सामाजिक न्याय (Social Justice) और राष्ट्र निर्माण कार्यक्रम (Nation-Building project) चला रहा है जहां पर इस बात की जांच और सुनवाई चल रही है कि कैसे पिछले 30 सालों में अश्वेत खिलाड़ियों के साथ नाइंसाफी हुई और यातनायें दी गई। टीम के अंदर और बाहर भी।
आलम ये है कि साउथ अफ्रीका के मौजूदा कोच मार्क बाउचर तक ने सार्वजनिक तौर पर इस बात के लिए माफी मांगी कि हां, अनजाने में कई मर्तबा उनसे ऐसा व्यवहार हुआ जिसे कतई सही नहीं ठहराया जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि साउथ अफ्रीका का हर श्वेत खिलाड़ी डि कॉक की ही तरह सफेद रंग की सर्वोच्चता में सबसे ज़्यादा भरोसा रखता हो लेकिन इतना ज़रुर है कि विकेटकीपर बल्लेबाज़ के इस कदम ने बाकी साथी खिलाड़ियों को शक के घेरे में डाल दिया है।
डि कॉक क्रिकेट के लिए याद ना किये जायें
अफसोस की बात ये है कि सिर्फ 7 साल के छोटे से करियर में 10 हज़ार से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय रन बनाने वाले डि कॉक को कोई उनकी क्रिकेट के लिए शायद अब उतना याद ना करे जितना कि एक संवेदनशील मुदद्दे पर एक नासमझी वाले ज़िद्दी फ़ैसले की वजह से।
मुमकिन ये भी हो कि अगर वक्त रहते उन्होंने इस पर फिर से ग़ौर नहीं किया तो अपने देश के लिए क्या वो किसी भी टी20 लीग में भी शायद शिरकत करते ना दिखें।
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