सरकारी कागजों में भले ही देशबन्धु कोई विश्वविद्यालय नहीं है, लेकिन यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि पत्रकारिता की बेहतरीन पीढ़ी को तैयार करने में देशबन्धु की भूमिका अहम है। गर्व से कहता हूँ कि (गर्व से कहो हम हिन्दू हैं... वाले तर्ज़ पर नहीं) मैं भी मायाराम जी सुरजन और ललित सुरजन जी के द्वारा स्थापित पत्रकारिता विश्वविद्यालय का एक अदना सा विद्यार्थी रहा हूँ। अब तो किसी कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम सुनता हूँ और वहाँ से पढ़कर निकलने वाले शेयर होल्डर पत्रकारों के कामकाज को देखता हूँ तो हँसी आती है, क्षोभ भी होता है।
जब मैं पत्रकारिता की ‘ए बी सी डी’ सीख रहा था तब एक रोज़ अचानक देशबन्धु अख़बार में मेरा सलेक्शन हो गया। रायपुर देशबन्धु में मौजूद कई वरिष्ठों ने टिकने नहीं दिया तो मुझे भोपाल भेज दिया गया। हालाँकि पहले तो ख़राब लगा, लेकिन बाद में समझ में आया कि वरिष्ठों ने ठीक ही किया। घुमन्तू जीवन ने यह तो समझा ही दिया कि पत्रकारिता में अच्छे-बुरे अनुभव को हासिल करने के लिए घाट-घाट का पानी पीना बेहद अनिवार्य है। जो झरना इधर-उधर से बहकर गुज़रता है वह साफ़ पानी का झरना बना रहता है। जो ठहर जाता है वह सड़े हुए पानी का तालाब बन जाता है। दुर्भाग्य से अब सड़े हुए तालाबों की संख्या ज़्यादा हो गई है।
एक दिन भाई साहब (ललित भैय्या) भोपाल आए तो मुझे उस इलाक़े की ज़िम्मेदारी दे दी गई जहाँ से दिग्विजयसिंह सांसद थे। राजगढ़-ब्यावरा-इटारसी-होशंगाबाद का ब्यूरो प्रमुख रहने के दौरान गाँव-गाँव की खाक छानने का अवसर मिला। देशबन्धु में ही काम करने के दौरान यह जाना कि ग्रामीण रिपोर्टिंग क्या होती है। गाँव-गाँव में घूम-घूमकर रिपोर्टिंग की।
रिपोर्टिंग के लिए पुरस्कार भी जीते... लेकिन भाई साहब ने जो सबसे बड़ा मंत्र दिया वह यह था कि पत्रकारिता किसके लिए करनी है और क्यों करनी है? सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ किस तरह से लड़ना है और क्यों लड़ना है?
भाई साहब ने जो कुछ सिखाया वह अब भी काम आ रहा है। देशबन्धु से अलग होने के बाद दूसरी मर्तबा पत्रकारिता करने का आनंद तब मिला जब जनसत्ता का छत्तीसगढ़ संस्करण प्रारंभ हुआ।यह तो मुझे नहीं मालूम कि कितने पत्रकार और लेखक ललित भैय्या से लड़ते थे, लेकिन मैं उनसे कई मसलों को लेकर भिड़ बैठता था। मेरी बहस इस बात को लेकर भी होती थी कि देशबन्धु जैसा अच्छा अख़बार अन्य अख़बारों के मुक़ाबले क्यों पिछड़ गया है?
भगवा एजेंडे और झूठी ख़बरों के सहारे निकलने वाले अख़बार क्यों तरक्की कर रहे हैं? एक मर्तबा तो मैं उनसे इस बात को लेकर भी बहस कर बैठा कि देशबन्धु में काम करने वाले पत्रकारों को अच्छी पगार क्यों नहीं दी जाती? आज भाई साहब के अचानक विदा लेने की ख़बर ने स्तब्ध कर दिया है। भाई साहब यक़ीन रखिए… आपका काम आगे बढ़ता रहेगा। सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रहेगी। भले ही हम लोग मुट्ठीभर हैं, लेकिन हम लोग खामोश नहीं बैठने वाले। सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ हमारी मुट्ठियाँ हमेशा भींची रहनी हैं।
(राजकुमार सोनी फ़ेसबुक पेज से साभार।)
अपनी राय बतायें