कश्मीर और कश्मीरी आज ख़बर के विषय हैं पर विडम्बना देखिये, उन्हें अपनी ख़बर भी नहीं मिल रही। शेष भारत को उनकी ख़बर कैसे मिलेगी, जब उन्हें भी नहीं मिल रही जो स्वयं ख़बर हैं। आज से 44-45 साल पहले ख़बरों पर इमरजेंसी के दौरान भी पाबंदी लगी थी। औपचारिक तौर पर सेंसरशिप थी। लेकिन उस दौर में भी देर-सबेर लोगों को ख़बरें मिल रही थीं। अख़बार छप रहे थे। आज की तरह निजी न्यूज़ चैनलों का अंबार नहीं था, सिर्फ़ एक दूरदर्शन था। वह आज ही की तरह तब भी सत्ता-भजन में जुटा रहता था। निरंकुशता के उस दौर में भी हिन्दी, अंग्रेज़ी और अन्य भारतीय भाषाओं के कुछेक ऐसे अख़बार थे, जो सेंसरशिप से जूझ रहे थे और अपने तरीक़े से चुनौती दे रहे थे। इनमें कुछ प्रतिरोध-स्वरूप अपने संपादकीय कॉलम खाली रखते थे। ‘काला बॉर्डर’ देकर संपादकीय का स्थान खाली छोड़ देते थे। लेकिन आज तो कश्मीर में अख़बार ही नहीं छप रहे हैं। अख़बारों के प्रकाशन पर बड़े सुनियोजित ढंग से पाबंदी लगी हुई है। सूचना के आदान-प्रदान या प्रेषण के सारे तकनीकी-माध्यम ठप्प कर दिये गए हैं। कुछेक न्यूज़ चैनल चलते हैं तो वे वही दिखाते-सुनाते हैं, जो सरकार चाहती है। बाक़ी के केबल कनेक्शन और प्रसारण के अन्य माध्यम ठप्प हैं।