गाँधी का कश्मीर दौरा
कश्मीर मामले में गाँधी जी के विचार और उनकी पहली व आख़िरी कश्मीर यात्रा के बारे में सबसे पहले मुझे उस वक़्त जानकारी मिली, जब मैं 1997 में हिंदी अखबार ‘हिन्दुस्तान’ के पत्रकार के रूप में कश्मीर ‘कवर’ करने श्रीनगर गया हुआ था। वह ‘मिलिटेंसी’ का भयावह दौर था। रिपोर्टिंग के अलावा मैं वहाँ के आधुनिक इतिहास को समझने के लिए किताबें भी खरीदता जाता था। किसी कश्मीरी पत्रकार-मित्र ने सुझाया कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला साहब की आत्मकथा भी ख़रीद लीजिए। पर वह किसी दुकान पर अंग्रेजी या हिन्दी में उपलब्ध नहीं थी। एक दिन अचानक ही श्रीनगर स्थित कश्मीर विश्वविद्यालय कैंपस के पास के एक पुस्तक विक्रेता के यहाँ शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की आत्मकथा-‘आतिश-ए-चिनार’ मिल गई। छुपाकर रखी थी, वह किताब। मैंने उस विक्रेता से पूछा - ‘इसे क्यों छुपा रखा है, वह भी सिर्फ़ एक प्रति है?’ उसने जो जवाब दिया, वह मुझे हैरत में डालने वाला था।पुस्तक विक्रेता ने कहा कि शेख साहब की तस्वीर या किताब रखने पर इन दिनों ‘मिलिटेंट्स’ ने पाबंदी सी लगा रखी है। वे कहते हैं - ‘शेख अब्दुल्ला भारत का दलाल था और कश्मीर का ट्रेटर, इसलिए उसकी तस्वीर या उस पर किताब कुछ भी नहीं रखो।’
यहाँ यह बताना भी मौजू होगा कि मोहम्मद अली जिन्ना ने भी कश्मीर का एक ही दौरा किया और यह बुरी तरह विफल साबित हुआ। घाटी के मुसलमानों ने जिन्ना को जमींदारों-रियासतदारों का समर्थक बताकर उन पर टमाटर और अंडे तक फेंके थे। लेकिन गाँधी जी का घाटी में हर वर्ग और समुदाय के लोगों ने फूल-मालाओं से स्वागत किया। झेलम में नावों के जुलूस में उनकी जयकार भी हुई।
नेहरू और महाराजा का टकराव
महात्मा गाँधी के कश्मीर दौरे की योजना ख़ास कारण से बनी। जवाहर लाल नेहरू कैबिनेट मिशन के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की बैठकों के बाद दोबारा कश्मीर जाने की तैयारी में थे। पिछली यात्रा में महाराजा ने उन्हें कश्मीर में गिरफ्तार करा लिया था। इस बार भी यही आशंका जताई जा रही थी। महाराजा को लगता था कि नेहरू जब भी कश्मीर आयेंगे, उससे शेख अब्दुल्ला और अवामी आंदोलन को बल मिलेगा। उन्होंने लार्ड माउंटबैटन से अपील की कि वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके नेहरू को कश्मीर आने से रोकें। तब माउंटबैटन ने इस बाबत गाँधी जी से बातचीत की और उन्हें स्वयं वहाँ जाने का सुझाव दिया। माउंटबैटन के सुझाव और हालात की जटिलता देखकर गाँधी जी ने वहाँ जाने का फ़ैसला किया। इस पर सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं की सहमति थी।जाने से ऐन पहले 29 जुलाई, 1947 को दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में गाँधी जी ने एक और बात कही - ‘मैं वहाँ के महाराजा को यह सुझाने नहीं जा रहा हूँ कि वह किसके साथ जाएँ! भारत में मिलें और पाकिस्तान में नहीं! इसका असल फ़ैसला करने वाले कश्मीर के लोग हैं, कोई राजा या महाराजा नहीं! शासक तो बस उस जनता का सेवक भर है।’( महात्मा गाँधी कलेक्टेड वर्क्स-वी राममूर्ति—वाल्यूम 96, पृष्ठ 173)।
घाटी में गाँधी: माहौल बदलने वाले वे चार दिन!
गाँधी जी 1 अगस्त,1947 को यानी आज़ादी मिलने के महज 14 दिन पहले श्रीनगर पहुँचे। सरहदी सूबे की उनकी यह यात्रा 1 से 4 अगस्त तक की थी। वह भारत और कश्मीर, दोनों के लिए बहुत नाजुक वक्त था। शेख अब्दुल्ला उस वक्त डोगरा महाराजा हरि सिंह के शासन की जेल में बंद थे। शेख अब्दुल्ला के द्वारा चलाए जा रहे राजा-महाराजा कश्मीर छोड़ो जनआंदोलन से परेशान होकर महाराजा ने उन्हें गिरफ्तार करा लिया था। शेख के समर्थन में जब नेहरू कश्मीर घाटी गए तो उन्हें भी गिरफ्तार कर उड़ी के डाकबंगले में रखा गया था। राष्ट्रीय नेताओं के दबाव और कैबिनेट मिशन से होने वाली चर्चा के मद्देनज़र महाराजा की सरकार ने नेहरू को रिहा किया था।उम्र और अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बग़ैर महात्मा गाँधी रावलपिंडी के रास्ते श्रीनगर गए। घाटी के मुसलमानों, हिन्दुओं, सिखों समेत संपूर्ण समाज ने महात्मा गाँधी का जबर्दस्त स्वागत किया।
उल्लेखनीय है कि गाँधी जी के दौरे से कुछ पहले महाराजा की पुलिस-फ़ौज़ ने नेशनल कॉन्फ़्रेंस के आंदोलन को कुचलने के लिए लोगों का बहुत दमन किया था। गोलीकांडों में भारी संख्या में लोग मारे गए। हालांकि सरकारी तौर पर संख्या 20 बताई गई थी।
गाँधी जी के दिल्ली लौटने के कुछ ही दिनों बाद महाराजा हरि सिंह ने 10 अगस्त को विवादास्पद प्रधानमंत्री रामचंद्र काक को पद से हटा दिया। भारत के आज़ाद होने के बाद शेख अब्दुल्ला को भी सितम्बर, 1947 में रिहा किया गया।
आज के सत्ताधारी इसीलिए हैं चुप?
कश्मीर के संदर्भ में गाँधी जी ने बार-बार कहा कि किसी सूबे, देश या रियासत का शासक वहाँ की जनता का सेवक होता है, भाग्यविधाता नहीं! इसलिए अपने देश या क्षेत्र के बारे में फ़ैसला करने का अधिकार वहाँ की जनता को है, किसी शासक या राजा को नहीं!
सत्ता व समाज के रिश्तों और लोकतंत्र के बारे में महात्मा गाँधी की यह समझ इतनी साफ़ है कि इसमें किसी तरह का हेरफेर करना किसी भी सरकार या सत्ताधारी नेता के लिए नामुमकिन है। ऐसे में कश्मीर पर लिए हाल के फ़ैसले को जायज ठहराने के लिए बीजेपी सरकार गाँधी जी के सपनों को पूरा करने जैसा खोखला दावा कैसे कर सकती है?
केंद्रीय स्तर पर फ़ैसला लेने से पहले केंद्र की बीजेपी सरकार ने दिल्ली से गए राज्यपाल सत्यपाल मलिक की राय ली और जम्मू-कश्मीर की जनता की राय जानने की प्रक्रिया पूरी कर ली। संविधान सभा नहीं थी तो कम से कम राज्य विधानमंडल ही होता! कम से कम वहाँ के सियासी दलों और सिविल सोसायटी को ही भरोसे में लिया गया होता? पर यहाँ तो शासक पार्टी ने अपने पुराने एजेंडे को उठाया और संसदीय मंजूरी दिलाकर काम पूरा कर लिया। ऐसे में गाँधी जी की राय का क्या मतलब?
इस सिलसिले में सरदार पटेल, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया के नामोल्लेख का भी कोई तार्किक आधार नहीं है। पर आज़ादी की लड़ाई और फिर राष्ट्रनिर्माण के क्षेत्र में मूल्यवान और ऐतिहासिक रूप से कोई उल्लेखनीय विरासत न होने के चलते कांग्रेस, सोशलिस्ट या राष्ट्रीय आंदोलन के कुछ चुनिन्दा नेताओं का नाम लेते रहना हमारे मौजूदा सत्ताधारियों की ‘मजबूरी’ है। कुछ महापुरूषों को बेवजह अपनी चादर में लपेटने की उनकी आदत बन गई है!
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