अगस्त के पहले और दूसरे सप्ताह में कश्मीर पर अपने विवादास्पद क़दम को जायज ठहराने के लिए सत्ताधारी दल के शीर्ष नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई से जुड़े देश के तमाम बड़े नेताओं - सरदार पटेल, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया आदि का जिक्र किया कि कैसे सरकार ने इन महापुरुषों के सपनों को पूरा किया है! लेकिन महात्मा गाँधी का नाम लेने से परहेज किया। बात समझ में नहीं आई। मौजूदा सत्ताधारी अक्सर गाँधी जी का भी नाम लेते रहते हैं। फिर इस बार कश्मीर के संदर्भ में गाँधी क्यों नहीं उद्धृत हुए?

जम्मू-कश्मीर के बारे में केंद्रीय स्तर पर फ़ैसला लेने से पहले केंद्र की बीजेपी सरकार ने सिर्फ़ दिल्ली से गए राज्यपाल सत्यपाल मलिक की राय ली। कम से कम वहाँ के सियासी दलों और सिविल सोसायटी को ही भरोसे में लिया गया होता? पर यहाँ तो शासक पार्टी ने अपने पुराने एजेंडे को उठाया और संसदीय मंजूरी दिलाकर काम पूरा कर लिया। ऐसे में महात्मा गाँधी जी की राय का क्या मतलब?