लॉकडाउन के दौरान केन्द्र सरकार ने ‘जनता की माँग’ ( केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के ट्वीट के अनुसार) पर रामानन्द सागर के ‘रामायण’ सीरियल का पुन: प्रसारण शुरू किया है। इस तरह कोरोना की वैश्विक महामारी से त्रस्त ‘घर’ में बैठी ‘जनता’ की बोरियत या ‘खाली’ समय को ‘संस्कृति ज्ञान’ से लबालब भरने की ये अभूतपूर्व कोशिश है।
‘रामायण’ जैसे ऐतिहासिक महत्व के टीवी-प्रोग्राम के पुन: प्रसारण में भला आपत्तिजनक क्या है? पर, इसके लिए यही टाइम सबसे उपयोगी क्यों लगा, यह सवाल जरूर कौंधना चाहिए था। फिर, किस जनता ने इसके लिए माँग की थी, यह भी पता होना चाहिए।
‘जनता’ शब्द सिकुड़ कर इतना छोटा कैसे हो गया कि स्वाधीन भारत में अभूतपूर्व (हज़ारों कि.मी.तक व्याप्त) त्रासदी ‘पैदल विस्थापन-यात्रा’ के कष्ट सहने और उस क्रम में मौत के गड्ढे में गिरने को बाध्य असहाय स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ रही है? उनकी पीड़ा से अनजान रह कर, कई ‘संस्कृति’-आस्वादक ‘भद्र’जन ‘कोरोना’-भय से अपने सुविधापूर्ण बिलों में दुबक कर इस धार्मिक सीरियल की वासन्ती बयार में अपने बहने और बहकने का सचित्र ‘प्रदर्शन’ लगातार सोशल मीडिया पर ऐसे कर रहे हैं, मानो कुछ दिनों पूर्व केन्द्रीय आह्वान पर ‘थाली-परात आदि’ बजाने के उन के ‘राजधर्मी उत्सव’ में कोई कमी रह गयी थी!
‘जनता’ के सामने ‘जनता’!
यह कैसा माहौल बना दिया गया है कि ‘जनता’ के सामने ‘जनता’ को खड़ा कर दिया गया है! हमें तय करना है कि ‘भय’ और ‘भूख’ के ऐसे ‘दुर्घट काल’ में कहीं यह सामाजिक संवेदनशीलता और ऊर्जा को ‘सांस्कृतिक मूर्च्छा’ से विस्थापित करने का राजनैतिक खेल तो नहीं है। आख़िर ऐसे संक्रमित ‘आपात-काल’ में भी अयोध्या में स-दल-बल जा कर ‘राममन्दिर-निर्माण’ का ‘पहला चरण’ पूरा कर ही लिया जाता है न!
इसमें शक नहीं कि अपने देश या ‘जाति’ के इतिहास और संस्कृति का बोध हमारे मानस-गठन के अनिवार्य तन्तु की तरह होता है, पर इसके साथ हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि ‘रामायण’, ‘महाभारत’ जैसे कालजयी काव्य चाहे कितने भी आवश्यक हों, पर ‘भारतीय संस्कृति’ के ये ही आदि-अन्त नहीं हैं।
सवाल यह भी है कि ‘रामायण’ भी केवल ‘तुलसी रामायण’ यानी ‘रामचरितमानस’ (जो उक्त सीरियल का मुख्य आधार है) तक सीमित क्यों है?
‘रामायण’ भारतीय साहित्य का महान कालजयी ग्रंथ है जिसमें हजारों साहित्य-सरिताएँ (अनुदित या नवसृजित) प्रसूत होकर दुनिया के अधिकतर हिस्सों में फैली हैं। परन्तु, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत देश में बीते कई दशकों में ‘रामायण’ को लेकर जो कुछ जाना-समझा या प्रचारित किया जाता रहा है, वह अत्यन्त संकीर्ण आधार रखता है।
यह विचित्र विरोधाभास है कि वर्तमान काल में ‘रामायण’ के नाम पर हम केवल तुलसीदास-कृत ‘रामचरितमानस’ को जानते हैं और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि कम से कम उत्तर भारत का सांस्कृतिक मानस तुलसी के ‘मानस’ से बहुत गहन रूप से अनुकूलित हुआ है। बल्कि, विगत तीन दशकों में रामानन्द सागर की इलेक्ट्रॉनिक ‘रामायण’ ने कम-से-कम विगत दो पीढ़ियों के रामायण-बोध और सांस्कृतिक मानस का इस कदर गठन किया है कि सीधे-सीधे तुलसी-रामायण की उस सन्दर्भ में अब तक रही भूमिका भी धीरे-धीरे सिमटने लगी है। इन सब से रामकथा की बहुलतावादी साहित्यिक-धार्मिक संस्कृति और मतभेदों से परिपूर्ण समृद्ध शास्त्रार्थ-परम्परा को गहरा आघात पहुँचा है।
‘हे राम!’ की जगह ‘जय श्रीराम’
आज इस देश में ‘रामकथा’ को किसी अन्य मौजूदा स्वरूप या नये पाठ/व्याख्यान के साथ प्रस्तुत करने के प्रयत्न को प्राय: हर बार एक अजीब तरह के असहिष्णु प्रतिक्रियावाद का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की उबलती हुई जन-चेतना निश्चित रूप से हिन्दू-साम्प्रदायिकता को केन्द्र में रख कर चलाये गये एक बड़े राजनैतिक अभियान द्वारा विनिर्मित है, जो जनमानस में सामाजिक-सांस्कृतिक तल पर सघन रूप में सदियों से व्याप्त ‘सियाराम’/‘जै रामजी की’, कबीर के ‘राम’ या गाँधी के ‘हे राम!’ को राजनैतिक ‘जय श्रीराम’ से विस्थापित कर, इस विशाल-बहुसांस्कृतिक और पुरातन देश को एक 'ख़ास तरह का देश’ बनाने पर आमादा है।
इस नये जोश में ‘रामायण’ के मूल सर्जक वाल्मीकि को तो भुला ही दिया जाता है, रामभक्त तुलसीदास तक का भी ठीक से स्मरण नहीं रखा जाता जिन्होंने अपने आराध्य की कुछ ‘लीलाओं’ (सीता-निर्वासन, शम्बूक-हत्या आदि) को कदाचित् अनुचित मान कर ही अपनी कृति में जगह नहीं दी और सीता की अग्निपरीक्षा का छायासीता की कल्पना के द्वारा तात्विक परिष्कार भी किया। प्रचलित स्त्री-विमर्श के कुछ देसी सूत्र बाबा तुलसी और वाल्मीकि क्या हमें नहीं दे जाते?
रामकथा की प्रचलित परम्परा में सीता की जगह है ही कितनी? ‘रामायण’ की संस्कृति में वैसे भी ‘सीतायन’ को तो दबना ही था। वैसे भी यह देश लम्बी कालावधि से ‘रामनवमी’ का देश है, जिसके लिए ‘सीतानवमी’ जैसी वस्तु अब तो सूचनात्मक ज्ञान के विषय से भी बाहर होती जा रही है।
राम का चरित्र भी विरोधाभासों या परस्पर विरोधी भावों से निर्मित है। वनवासी राम के तमाम मानवीय उपक्रमों पर शासक राम भारी पड़ने लगते हैं, तो जयशंकर प्रसाद के ‘कंकाल’ उपन्यास की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रासंगिक लगने लगती हैं - : ‘‘सीता-निर्वासन एक इतिहास विश्रुत महान् सामाजिक अत्याचार है और ऐसा अत्याचार अपनी दुर्बल संगिनी स्त्रियों पर प्रत्येक जाति के पुरुषों ने किया है। किसी-किसी समाज में तो पाप के मूल में स्त्री का भी उल्लेख है और पुरुष निष्पाप है। यह भ्रांत मनोवृत्ति अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं के भीतर काम कर रही है, रामायण भी केवल राक्षस-वध का इतिहास नहीं है, किन्तु नारी-निर्यातन का सजीव इतिहास लिखकर वाल्मीकि ने स्त्रियों के अधिकार की घोषणा की है।”
सच यही है कि राम-साहित्य के सबसे बड़े सर्जक महाकवि वाल्मीकि सीता-निर्वासन को लेकर बेहद संवेदनशील हैं और इस संवेदनशीलता में वे राम को साहित्यिक न्याय के कठघरे में खड़ा भी करते हैं।
वाल्मीकि राम को निर्दोष ठहराने की कोशिश करते हुए अक्सर कहते हैं कि उन्होंने दो धर्मों (प्रजा-धर्म व पति-धर्म) में टकराव होने की स्थिति में परिस्थिति-संगत एक धर्म (प्रजा-धर्म) को चुना था। उनके अनुसार, राम को लगा कि सीता को तो वे समझा लेंगे पर प्रजा को समझाना कठिन है - इसीलिए वैसा किया।
इस पर, पूछा जाना चाहिए कि एक औरत को बियाबान जंगल में छोड़ देना - यह कौन सा तरीका है समझाने का? फिर, निर्दोष सीता को अन्याय-सहन हेतु समझाने के इस प्रयास की जगह राम प्रजा को ही मूढ़ की जगह विवेकवान बनाने में अपनी ऊर्जा लगाते, तो क्या यह बेहतर प्रजा-धर्म का आदर्श नहीं होता? या फिर, किस प्रजा की बात है यह?
क्या प्रजा में केवल वे एक या कुछ लोग थे, जो सीता-सम्बन्धी उक्त अन्यायकारी मत रखते थे?
सीता या उनके प्रति हो रहे अन्याय के विरोधी लक्ष्मण आदि प्रजा नहीं थे? राम या रामायण के कोमल-कठिन सन्दर्भों के इर्द-गिर्द ‘भारत’ ने बहुत कुछ महसूस किया, रचा और सजाया-सँवारा है, जिसे उक्त प्रकार की बहुलता-विरोधी सोच नष्ट करने पर तुली हुई है। किसी ऐसे कलंक-दर्शन से न रामायण की महत्ता खत्म होती है न राम की, बल्कि इस तरह के प्रयत्नों से मानवता के अर्थ रामायण और राम जैसे प्रतीकों के सांस्कृतिक विमर्श के स्वस्थ और समृद्ध होने की सम्भावना ही निर्मित होती है।
‘रामनवमी’ की शुभकामनाओं में भी राजनीति
‘रामनवमी’ हर साल न जाने कब से आती और एक व्यापक जन-समूह को वासन्ती रंग में रंगती रही है, साथ ही आस्था और उल्लास की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में मौजूद रही है। पर, इधर कुछ समय से उसकी कायापलट हुई है। हर साल इस अवसर पर, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर ‘राम’ के नाम पर शुभकामनाओं, गौरव-बोध और गर्वोक्तियों का जो ताँता लगा रहता है, वे हालिया राजनीति के रंगों से अछूते तो बिल्कुल नहीं होते।
‘रामनवमी’ की ढेर सारी (राजनैतिक ?) शुभकामनाओं की भीड़ और शोरगुल में मेरे भीतर एक मासूम सवाल घुट कर रह गया कि क्या ‘सीतानवमी’ पर भी कभी ऐसा कुछ दिखेगा अथवा एक शुभकामना-सन्देश तक किसी के द्वारा मिलेगा? समाज से या सरकार से भी?
हर साल ‘रामनवमी’ के नाम पर विभिन्न शहरों में भारी-भरकम जुलूस निकलते हैं जिनमें ‘जय श्रीराम’ की पट्टी माथे पर लगाए स्त्रियाँ और दलित भी बड़ी संख्या में शरीक होते हैं।
निश्चित तौर पर ये सांस्कृतिक से अधिक राजनैतिक अभियान होते हैं और जिस ‘राम’ के साथ खड़े होने की घोषणा उनमें निहित है, वह सदियों पुराना न होकर, इधर के दशकों में सृजा गया राजनैतिक उपक्रम होता है जिसका सीधा मतलब है ‘सीता’ और ‘शम्बूक’ (भारत की अधिसंख्य जनता) के साथ न होना।
स्त्री व दलित को कुचलने वाले विमर्श को ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था’ का विकल्प मानने वाली अथवा पूरे देश के सामासिक जनमानस को ‘रामज़ादों’ व ‘हरामज़ादों’ के बीच विभक्त करनेवाली हुड़दंगी जमात में धर्म-संरचनाओं द्वारा सदियों से शोषित स्त्री और दलित का भी इस कदर शामिल होना आहत कर जाता है।
ऐसे आधुनिक साधन सम्पन्न (बुलेट ट्रेन की राह चल चुके?) भारतवर्ष में जबकि हमारे महानायक ‘हवाई चप्पल’ पहनने वालों को हवाई जहाज में उड़ाने जैसी रोज नयी-नयी घोषणाओं के महारथी हों, प्रवासी मजदूरों के रूप में इतनी विशाल संख्या में हमारे शम्बूक और सीताएँ सड़कों या ट्रेन के ट्रैक पर पैदल चलते कुचल और कट रहे हैं, कितना विसंगतिपूर्ण है! नग्न पूँजीवादी आर्थिक मॉडल और जनविरोधी, बहुलतावाद की निषेधक राजनीति के बेशर्म नापाक गठजोड़ के इस भयानक काल में ‘रामायण’ का पुन:पाठ बहुत जरूरी हो जाता है।
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