राहुल गांधी अब अनिच्छुक राजनेता नहीं रहे। भारत जोड़ो यात्रा ने उन पर लगा ये ठप्पा बहुत हद तक हटा दिया है, रहा सहा दाग इंडिया अलायंस में उनकी सक्रियता ने धुल दिया है। हालांकि वो इस वक्त कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष नहीं हैं, मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि पार्टी को लीड वही कर रहे हैं, और पार्टी का चेहरा भी वही हैं।
मगर यहां सवाल उससे बड़ा है-क्यां कांग्रेस को लीड कर रहे राहुल गांधी इंडिया अलायंस को भी लीड करने का माद्दा रखते हैं ? क्या राहुल गांधी इंडिया गठबंधन का भी चेहरा बन सकते हैं? ये सवाल इसलिए कि तमाम मशक्कत और परोक्ष दावेदारियों के बाद भी इंडिया अलायंस को अब तक एक भरोसेमंद चेहरा नहीं मिल सका है।
ये सही है कि नागरिक शास्त्र की किताबों में जो लोकतंत्र हम पढ़ते हैं उसमें चेहरा वोट और सीटों के बाद आता है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र यहीं आकर ब्रिटेन के वेस्टमिनिस्टर सिस्टम से अलग हो जाता है। हाल के अनुभव गवाह हैं कि आम चुनाव हो या विधानसभा के, प्रधानमंत्री उम्मीदवार और सीएम उम्मीदवार या तो घोषित हो जाता है, या अघोषित रूप से तय होता है।
भविष्य की पेशनगोई के लिए इतिहास बोध, और इतिहास के सबक जरूरी हैं। लिहाजा इस देश में गठबंधनों के इतिहास पर नजर डालना भी जरूरी है। भारतीय राजनीति में पार्टी खड़ी करनी हो या गठबंधन बनाना हो मॉरल अथ़ॉरिटी यानि नैतिक प्राधिकार चाहिए। ये मॉरल अथॉरिटी ही वो मैग्नेट है जो अलग-अलग धाराओं से आ रही पार्टियों और नेताओं को एकजुट कर एक छतरी के नीचे ले आता है। तभी वो फेविकोल का मजबूत जोड़ बनता है जो किसी एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देता है।
इतिहास में ज्यादा पीछे, आजादी की लड़ाई तक जाएं तो कांग्रेस पहले एक एलीट क्लब ही मानी जाती थी। गदर के बाद अंग्रेजों ने उसे भारतीय प्रजा के लिए ग्रीवांस सेल की तरह विकसित किया था। तब अगर कांग्रेस ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद कर सकी तो उसकी मॉरल अथॉरिटी महात्मा गांधी थे।
आजाद भारत में सरकार विरोधी गठबंधनों का इतिहास 1977 से शुरु होता है। इंदिरा गांधी के खिलाफ़ लेफ्ट को छोड़ कर अगर तमाम अपोजीशन एक छतरी के नीचे आ सका तो इसका मैग्नेट जय प्रकाश नारायण थे। जय प्रकाश वो मॉरल अथॉरिटी थे जिसके पीछे गांधीवाद और समाजवाद की ‘ब्लेंडेड लीगेसी’ थी। जेपी जैसा महाव्यक्तित्व न होता तो जनता पार्टी का आयरन लेडी इंदिरा गांधी के आगे मजबूती से खड़ा होना मुश्किल होता। भले ही जनता मूवमेंट आज कनफ्यूज करार दिया जाता हो, जनसंघियों की RSS वाली दोहरी नागरिकता ने उसमें दरार पैदा की हो, मगर तीन साल के लिए उसने इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर तो कर ही दिया था।
जेपी के बाद 1989 में वीपी आए - विश्वनाथ प्रताप सिंह। बोफोर्स घोटाले के नाम पर उन्होंने राजीव सरकार छोड़ दी। पृष्ठभूमि सामंती परिवार की थी मगर मोटरसाइकिलों पर पिलियन राइड करते घूमने लगे। नारा लगा ‘राजा नहीं फकीर है- देश की तकदीर है’। वीपी की मॉरल अथॉरिटी ने राजीव विरोधियों-और राजीव को छोड़ कर आए तमाम नेताओं को जनता दल के चक्र पर चढ़ा दिया।
भले ही चंद्रशेखर ने उनको प्रधानमंत्री बनाए जाने का विरोध किया हो, मगर पूरे जनता दल को पता था कि वोट तो वीपी के ही नाम पर मिले हैं। लिहाजा वीपी ही प्रधानमंत्री बने। उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का सियासी दांव खेलने वाले देवीलाल ने खुद स्वीकार किया था कि “वोट वीपी सिंह के नाम पर मिला था ऐसे में चंद्रशेखर की जिद के चलते उन्हें या किसी और को पीएम बनाना जनता के साथ धोखा होता।”
एक नाम अन्ना हजारे का भी लिया जा सकता है जिनकी मॉरल अथारिटी ने 2011 में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम खड़ी कर दी। देश की गैर राजनीतिक सिविल सोसाइटी अन्ना का चेहरा देख कर ही एक छतरी के नीचे इकट्ठा हुई। इसके नतीजे में कोई गठबंधन तो नहीं बना, मगर अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी बनाने में जरूर कामयाब रहे। आलोचनाएं हो सकती हैं, अंतर्विरोध हो सकते हैं- मगर आज आम आदमी पार्टी की दो राज्यों में सरकार है। गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में उसका बेस बढ़ ही रहा है।
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अब इन अनुभवों की रौशनी में, इतिहास बोध के साथ आप ये सवाल पूछ सकते हैं कि, मोदी विरोधी इंडिया अलायंस को लीड करने वाली मॉरल अथॉरिटी कहां है। इस अलायंस का चेहरा कौन बन सकता है ?
कुछ चेहरे हैं जिनकी कैप पहले से ही रिंग में पड़ी हुई है। मसलन शरद पवार- अस्सी पार के पवार जिनकी वरिष्ठता का सम्मान सब करते हैं। मगर पवार एक तो उम्र और सियासत के अंतिम चरण में चल रहें है, दूसरे उनका अतीत गवाह है कि वो राजनीति को संभावनाओं के खेल की तरह देखते रहे हैं। सोनिया गांधी के खिलाफ जाकर राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाने वाले पवार 2004 में तमाम तर्क ताक पर रख कर यूपीए का हिस्सा बन गए। महाराष्ट्र में मशहूर है कि पवार , साहब का दांया हाथ भी नही जानता कि, बांया हाथ क्या कर रहा है। मुंबई मे अभी भी खुसर-फुसर है कि पवार भतीजे अजित के साथ हैं कि इंडिया अलायंस के साथ।
दूसरे हैं सत्तर पार के नीतिश कुमार ? जो पाला बदलने की अपनी पॉलिटिक्स के बोझ तले खुद दबे हुए हैं। बिहार में कभी लालू कभी बीजेपी की करीबी ने उन्हें लगातार अविश्वसनीय ही बनाया है। 2014 तक मोदी विरोध की उनकी नैतिक आभा महज प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा साबित हुई। लोकसभा चुनाव में हार के बाद इस्तीफा देकर जो उन्होंने अर्जित किया था फिर बीजेपी की गोद में बैठ कर उसे गंवा दिया। अब एक बार फिर वो बेताब हैं - मगर उन्हीं के पूर्व चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर कहते हैं कि- “नीतिश जी के पास बिहार में ही जमीन नहीं बची राष्ट्रीय राजनीति की बात वो किस मुंह से कर रहे हैं”
अब रहीं ममता बनर्जी तो उनका मेवेरिक अंदाज ही उन पर भारी है। ममता चुनाव बाद किसी संयोग से कुछ बन जाएं ये दीगर बात है-मगर सबको साथ चलने की उनकी क्षमता हमेशा संदेह के घेरे में रही है। ममता भी इस उम्र में अपनी सीमाएं समझ चुकी हैं इसलिए वो बंगाल में ही एकछत्र राज चाहती हैं। यूं भी उत्तर भारत की राजनीति को हैंडल करना उनके बस का नहीं। उदाहरण कई हैं-मगर राष्ट्रपति चुनाव में प्रणब मुखर्जी का विरोध इसका सबसे बड़ा सबूत है। मुलायम सिंह दोपहर तक उनके साथ मीडिया से मुखातिब थे, शाम को प्रणब दा के नाम का आधिकारिक ऐलान होते ही उनकी पार्टी ने ममता का साथ छोड़ दिया। ममता अपना सा मुंह लेकर कोलकाता लौट गयीं।
कुछ लोग केजरीवाल में भी संभावनाएं देखते हैं। मगर केजरीवाल इतने समझदार तो हैं ही कि वो अभी अपनी संभावनाओं का प्रॉसपेक्ट और बढ़ाएंगे। उन्होंने इस रेस से फिलहाल खुद को बाहर रखा है, अपने कुछ प्रवक्ताओं के अति उत्साही दावों को उन्होंने दूसरे अपेक्षाकृत जिम्मेदार प्रवक्ताओं के जरिए खारिज करा दिया।
ऐसे में जब राहुल गांधी तक़रीबन चार हजार किलोमीटर की भारत यात्रा पूरी करके आते हैं और मुहब्बत की दुकान का नारा लगाते हैं, तो विभाजनकारी राजनीति से हताश होते देश को उम्मीद की एक किरण दिखती है। संवेदनशील नागरिक के मन को थोड़ा सुकून मिलता है। राहुल गांधी की ये यात्रा सिर्फ राजनीतिक गुणा गणित नहीं थी। ड्राइंग रूम की आर्म चेयर पॉलिटिक्स नहीं थी। ये यात्रा ‘इलेक्टोरल डोमेन’ में नहीं बल्कि ‘पॉलिटिकल डोमेन’ में यथार्थ के धरातल पर हो रही थी। शुरुआत में इस यात्रा की उपेक्षा करने वाले टीवी चैनलों को भी बाद में राहुल के साथ पैदल चलती भीड़ देखकर उन्हें स्पेस देना पड़ा। नकारात्मक प्रस्थान बिंदु से ही सही डिबेट भी करनी पड़ी।
राहुल गांधी ने इस यात्रा में भारत को करीब से देखा- और भारत ने राहुल गांधी और उनकी सहजता को। इस यात्रा के बाद राहुल गांधी का आउटलुक बहुत बदला है, वो सियासी एरीना में और सहज हुए हैं। कर्नाटक की जीत का श्रेय तो बहुत हद तक उनकी भारत यात्रा को भी दिया गया।
दूसरी ओर राहुल गांधी ने उस क्रोनी कैपिटलिज्म पर लगातार प्रहार जारी रखा है जिसके चलते देश का आम-आदमी परोक्ष रुप से प्रताड़ित है। पब्लिक सेक्टर लगातार प्राइवेट सेक्टर के बहाने चंद हाथों में सिकुड़ता जा रहा है और आम आदमी बेरोजगारी-महंगाई की मार झेल रहा।
अब याद करिए इंडिया अलायंस की मुंबई बैठक। जहां चर्चा संयोजक के नाम और प्रधानमंत्री उम्मीदवार के चेहरे पर थी। मगर राहुल ने पहली बार अलायंस के मंच का इस्तेमाल अडानी के खिलाफ़ प्रेस कांफ्रेस कर लीड ले ली।
मगर ये भी समझने की जरूरत है कि जब राहुल गांधी स्ट्राइकर एंड पर आ खड़े हुए हैं तब, कांग्रेस पार्टी का स्ट्राइक रेट ऑल टाइम लो है। हालांकि राज्यों में चुनाव जीत कर वो दोबारा बाउंस बैक करने की मशक्कत कर रही है, लेकिन जो जिम्मेदारी उनके कंधे पर है और जिस विरासत के वो उत्तराधिकारी हैं उसमें अंतिम संघर्ष केंद्र की सत्ता का है।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी चुनाव लड़ने और चुनाव जीतने की मशीन बनी हुई है। तमाम नैतिकता को ताक पर रख कर ऑपरेशन लोटस होते हैं और उसका कोई वाजिब जस्टीफिकेशन भी नहीं दिया जाता। जिन नेताओं को विपक्ष में रहते बीजेपी भ्रष्टाचारी करार देती है उसकी वॉशिंग मशीन में जाते ही उनके दाग धुल जाते हैं। नेपथ्य से भक्त मंडली सोशल मीडिया पर दाग अच्छे हैं का भजन गाने लगती है। विभाजनकारी राजनीति की हद ये कि देश और समाज क्या परिवारों तक में दरार साफ दिखती है।
ऐसे में राहुल गांधी एक अकेला चेहरा दिखते हैं जिसकी पीठ पर निजी तौर पर कोई अनैतिक बोझ नहीं है। अदालती मामले हैं मगर राजनीतिक और सैद्धांतिक कारणों से हैं-या फिर फंसाए रखने की नीयत से कराए गए हैं।
हाल में राहुल गांधी पर एक किताब आयी है ‘स्ट्रेंज बर्डेंस : द पॉलिटिक्स एंड प्रीडिकमेंट्स ऑफ राहुल गांधी’। सुगाता श्रीनिवास राजू की इस किताब का टाइटल बड़ा मुफीद है। सचमुच राहुल इम्मॉरल बैगेज के नहीं स्ट्रेंज बर्डेंस के शिकार हैं। जिससे अब उन्हें खुद को मुक्त करना होगा। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी की किताब ने तो अब ये भी खुलासा कर दिया है कि 2004 में सोनिया गांधी ने बेटे राहुल की इमोशनल जिद और दबाव के चलते प्रधानमंत्री पद का त्याग किया था। उनसे न तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कुछ कहा था न वो सुषमा स्वराज की सर मुंडा लेने और सदा चटाई पर सोने की धमकी से डरी थीं। ये सब बीजेपी की दुष्प्रचार मशीनरी की फैलाई अफवाहें थीं।
राहुल के मन में पिता की तरह ही मां को गंवा देने का भावनात्मक भय था। जाहिर है 52 साल की उम्र पार चुके राहुल के मन में नेहरू-गांधी परिवार की विरासत का अहसास जागा है, देश को करीब से महसूस करने के बाद जिम्मेदारी का भाव भी जागा है। जिम्मेदारी का ये भाव ही सबसे बड़ा नैतिक प्राधिकार है जो राष्ट्रीय राजनीति में इस वक्त गैर-बीजेपी खेमे में सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी के पास है। उनके पीछे अब अनुभव भी है जो संभवत: अगली भारत जोड़ो यात्रा (शायद गुजरात से शुरु होकर उत्तर पूर्व तक) में और भी बढ़ेगा। राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ते हुए पार्टी के पदाधिकारियों से पूछा था – हार के बाद हर शख्स सवालिया नजरों से मुझे देख रहा है, कोई ये तो बताए जब नरेंद्र मोदी मेरी उम्र के थे तो कहां थे ?
जाहिर है राहुल के पास अभी वक्त है, और वो राजनीतिक तौर पर तेजी से बदल भी रहे हैं। देशहित में उनका ये बदलाव शुभ है। कम से कम एक विकल्प दिख रहा है जिससे बीजेपी अब सहम रही है-पप्पू लगातार पास होकर उसे कड़ी चुनौती पेश कर रहा है।
पुनश्च: हां, एक मार्के की बात। एंटी मोदी मोर्चा ऐसी मजबूरी नहीं बननी चाहिए कि कांग्रेस अपनी मजबूती गंवा दे। कांग्रेस का पैन इंडिया प्रसार ही उसकी मौजूदा ताक़त है। मुश्किल ये है कि इंडिया अलायंस में शामिल तमाम पार्टियां उसी की थाली में अपना हिस्सा तलाश रही हैं। डेमोक्रेसी का सारा तिलिस्म सीटों का है, कांग्रेस तभी तक अलायंस में बिग-ब्रदर है जब तक उसके पास ज्यादा सीटें हैं। ये तभी संभव है जब वो ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़े। ममता बनर्जी, नीतीश, लालू और अखिलेश यादवों से हार्ड-बारगेन करे। केजरीवाल की नजीर उसके सामने है जो अलायंस में दिखते हुए भी पंजाब में अकेले लड़ने का ऐलान कर चुके हैं, हरियाणा में कहते हैं कि गठबंधन विधानसभा के लिए नहीं है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के दौरे किए जा रहे हैं।
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