वृहत हैदराबाद नगर निगम चुनाव के नतीजों के बाद देश में मुसलिम राजनीति एक बार फिर विमर्श के केंद्र में आ गई है। पिछले साढ़े छह सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने को सेक्युलर कहने वाले दलों की मुसलिम राजनीति का शिराजा बिखेर दिया है। इसको इस तरह से भी कह सकते हैं कि भारत में अब हिंदू विरोधी राजनीति की गुंज़ाइश ख़त्म हो गई है।
इससे हुआ यह कि संसद और विधानसभाओं में मुसलिम प्रतिनिधित्व घट रहा है। मुसलिम समुदाय धर्मनिरपेक्ष दलों से निराश है। साथ ही एक सवाल भी उठ रहा है कि क्या छप्पन साल पहले मुसलिम मजलिस-ए-मुशावरात ने जो सिलसिला शुरू किया था वह ज़मीन पर उतरने जा रहा है। क्या देश में आज़ादी से पहले बनी मुसलिम लीग के बाद एक बार फिर मुसलमानों की अपनी पार्टी बनेगी। असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को मिल रही चुनावी कामयाबी क्या इसी बदलाव की ओर इशारा कर रही है? ओवैसी की पार्टी को पहले महाराष्ट्र फिर बिहार में मिली कामयाबी और अब हैदराबाद में अपना क़िला सुरक्षित रखने के क्या मायने हैं? इसे बड़े बदलाव के रूप में देखना भले ही अभी जल्दबाज़ी हो लेकिन बदलाव की शुरुआत मानना ग़लत नहीं होगा।
ओवैसी पर भरोसा क्यों?
हैदराबाद में एमआईएम बढ़ी नहीं तो घटी भी नहीं। यानी ओवैसी अपना घर बचाने में कामयाब रहे। पहले कांग्रेस, फिर तेलुगू देशम उसके बाद टीआरएस उसके प्रभाव क्षेत्र में सेंध लगाने में नाकाम रहे। इस मोर्चे पर बीजेपी को तो नाकाम होना ही था। क्योंकि मुसलिम बहुल इलाक़े में ‘साम्प्रदायिक और हिंदूवादी’ पार्टी को मुसलमानों ने न कभी वोट दिया है और न ही हैदराबाद में मिलने की उम्मीद थी। बीजेपी पर एक आरोप हर चुनाव में लगता रहता है कि वह मुसलमानों को टिकट नहीं देती। जो कि वास्तविकता भी है। सवाल तो यह है कि ऊपर मैंने जितने ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों का नाम लिया वे सब तो मुसलमानों को टिकट भी देते हैं और साम्प्रदायिक भी नहीं हैं। फिर हैदराबाद के मुसलमान उनकी बजाय ओवैसी की पार्टी पर ही भरोसा क्यों करते हैं।
उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2002 के चुनाव में मुसलिम समुदाय की ओर से एक नारा लगा था। पहले अपना भाई, फिर जे भाजपा हराई, उसके बाद सपाई (समाजवादी पार्टी)। मुसलिम मतदाता की यह मानसिकता उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। बस उसमें सपा की जगह उस राज्य के किसी दूसरे दल का नाम जुड़ जाता है। बिहार के हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में इस पार्टी का नाम राष्ट्रीय जनता दल था। इस सचाई से पहली बार नीतीश कुमार का सामना हुआ। उन्होंने चुनाव में ग्यारह मुसलिम उम्मीदवार उतारे एक भी नहीं जीता।
जनता दल यूनाईटेड के कई नेताओं ने मुसलिम बस्तियों में यह अभियान भी चलाया कि यदि बीजेपी के मुक़ाबले नीतीश कुमार को मज़बूत रखना है तो हमें वोट दीजिए। मुसलिम मतदाताओं ने नीतीश कुमार की बजाय असदुद्दीन ओवैसी को मज़बूत बनाया।
‘पहले अपना भाई’ की रणनीतिक वोटिंग
इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे की ओर जाना पड़ेगा। ‘पहले अपना भाई’ की रणनीतिक वोटिंग का बीजीरोपण हुआ अखिल भारतीय मुसलिम मजलिस-ए- मुशावरात के गठन के साथ। साल 1964 में देश के कई हिस्सों जैसे कलकत्ता, जमशेदपुर, राउरकेला और जबलपुर में बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं। मजलिस के नेताओं को लगा कि अब मुसलमानों के कांग्रेस का साथ छोड़ने का समय आ गया है। इसके बाद कुछ प्रभावशाली मुसलिम नेताओं ने मुशावरात के गठन का फ़ैसला लिया। इसके गठन का जलसा नौ अगस्त, 1964 को नदवातुल उल्मा यानी लखनऊ स्थित नदवा में हुआ। इसके पीछे प्रेरणा थे सैयद अबुल हसन अली नदवी ऊर्फ अली मियाँ। इसके अध्यक्ष बने जवाहर लाल नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य रहे सैयद महमूद।
इन दोनों के अलावा अतीकुर्रहमान उस्मानी, अबुल लइस इस्लाही, क़ारी मोहम्मद तैयब, कल्बे आबिद, सैयद मिनातुल्ला रहमानी, मोहम्मद मुसलिम, मौलाना जान मोहम्मद और इब्राहिम सुलेमान सेठ की इसमें प्रमुख भूमिका थी। इनमें से कई आज़ादी से पहले मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान बनाने के आंदोलन में बढ़-चढ़कर मुसलिम लीग के साथ थे। पर बँटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं गए।
मुसलिम राजनीति की दिशा
मुशावरात दूसरे मुसलिम संगठनों की तरह सीधे राजनीति में नहीं गई। उसने तय किया कि वह किसी पार्टी की बजाय मुसलिम या मुसलिम समर्थक उम्मीदवारों की मदद करेगी। उसकी नज़र 1967 के आम चुनाव (तब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे) पर थी। पर उसे चुनाव में ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली। क्योंकि मुसलमान उनकी उम्मीद के मुताबिक़ कांग्रेस का साथ छोड़ने का मन नहीं बना पाया। पर यहीं से मुसलिम राजनीति में बड़ा बदलाव आया। मुसलमानों के मन में बिठा दिया गया कि तुम्हारी पसंद की कोई पार्टी नहीं हो सकती। पार्टी की बजाय उम्मीदवारों पर ध्यान दो। इमरजेंसी के बाद 1977 के चुनावों में पहली बार मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा और जनता पार्टी को वोट दिया। उसके बाद से मजलिस मुसलिम राजनीति की दिशा तय करने लगी। उसने पर्सनल लॉ बोर्ड बनवाया। बाबरी मसजिद एक्शन कमेटी और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी एक्शन कमेटी बनवाने में मजलिस की खास भूमिका रही।
मुसलमानों ने एक बार कांग्रेस को छोड़ा तो उन्हें कोई दूसरा राष्ट्रीय दल नहीं मिला। साल 1977 में जनता पार्टी और 1989-90 में जनता दल इसके अपवाद रहे।
बीजेपी का बढ़ता प्रभाव
उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में जैसे-जैसे बीजेपी का प्रभाव बढ़ता गया इस रणनीति में एक और आयाम जुड़ गया। बीजेपी को हर हाल में हराने का। तब से अब तक मुसलिम समाज की एक ही चुनावी रणनीति है कि जो बीजेपी को हराता दिखे उसे वोट दो। अब इस आकलन में कभी-कभी गफलत हो जाती है, जिसका फायदा बीजेपी को मिल जाता है। फिर यह तय हुआ कि बीजेपी के ख़िलाफ़ मुसलिम वोट बँटना नहीं चाहिए। मोदी के आने के बाद हुआ यह कि अगड़ी, अति पिछड़ी जातियाँ, दलित और आदिवासी समुदाय बीजेपी के साथ लामबंद हो गया। इस लामबंदी के केंद्र में राष्ट्रवाद, केंद्र सरकार की ग़रीबों के जीवन स्तर में सुधार की योजनाएँ और संख्या की दृष्टि से छोटी-छोटी जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी मिलना है। जिसकी मंडल आंदोलन से निकली यादव जाति के प्रभुत्व वाली पार्टियों के नेताओं ने उपेक्षा की। इस लामबंदी ने भारतीय चुनावी राजनीति से मुसलिम वोट के वीटो को ख़त्म कर दिया।
उत्तर प्रदेश : दो साल में दो प्रयोग
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दो साल में दो प्रयोग हुए। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस साथ आईं। मुसलिम वोटों की गोलबंदी के बावजूद बीजेपी को अभूतपूर्व कामयाबी मिली। फिर दो साल बाद लोकसभा चुनाव में दूसरा प्रयोग हुआ। इस बार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन हुआ। कहा गया कि यह बिहार के 2015 के महागठबंधन से भी ज़्यादा प्रभावी होगा। इसके बावजूद बीजेपी और उसके सहयोगी लोकसभा की अस्सी में से 62 सीटें जीत गए।
बड़े बदलाव का संकेत
अब लौटकर ओवैसी और उनकी पार्टी पर आते हैं। ओवैसी की सफलता मुसलिम मतदाता की सोच में बड़े बदलाव का संकेत इसलिए है कि पिछले बहत्तर सालों से मुसलमान मुसलिम पार्टियों का साथ देने से बचते रहे हैं। लगता है कि अलग-अलग राज्यों में बीजेपी को हराने वाली पार्टियों की तलाश और उन पर दाँव लगाते-लगाते मुसलमान थक गया है। इसका दूसरे राजनीतिक दलों पर क्या चुनावी असर होगा, इस सवाल का जवाब बाद में, लेकिन इतना याद रखिए कि पहली बार देश में मुसलमानों की अलग पार्टी (अखिल भारतीय मुसलिम लीग) बनी तो देश का बँटवारा हुआ।
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