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आंदोलनकारी किसानों ने आखिरकार केंद्र सरकार का प्रस्ताव ठुकरा कर आंदोलन को और तेज करने का फैसला किया है। इसके बाद बातचीत के दरवाजे बंद हो गए हैं। अब एक बात साफ हो गई है कि यह आंदोलन कुछ दलों के हाथों की कठपुतली बन गया है, क्योंकि लक्ष्य किसानों की भलाई नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ है।
अब सरकार के सामने दो विकल्प हैं। एक, आत्मसमर्पण कर दे। दूसरा, अब राजनीतिक हो चुकी इस लड़ाई का राजनीतिक जवाब दे। यह सीएए-दो का पड़ाव है। किसी भी सत्तारूढ़ दल और उसके मुखिया को जनभावना के सामने झुकने में संकोच नहीं करना चाहिए। आखिरकार इसी जनभावना के चलते उसे सत्ता हासिल हुई है। साथ ही नेता को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जनभावना के नाम पर एक तबके की खातिर सार्वजनिक हितों पर आघात भी न हो।
एक किस्सा याद आ रहा है। महात्मा गांधी ने ‘चौरी चौरा कांड’ के बाद असहयोग आंदोलन रोक दिया। इससे तमाम लोगों में रोष था और उन्होंने सरदार पटेल से कहा कि गांधी जी ने आंदोलन रोककर अच्छा नहीं किया। सरदार पटेल ने कहा कि क्या तुमको नहीं लगता कि नेता को देश और समाज के व्यापक हित में जनभावना के विरुद्ध जाकर फैसला लेने का अधिकार है। गांधी जी का फैसला देश और समाज के व्यापक हित में है। भले ही वह जनभावना के विरुद्ध हो।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष आज वैसी ही परिस्थिति है। उन्हें तय करना है कि वह देश और समाज के व्यापक हित में फैसला लेंगे या जनभावना (छोटे से वर्ग की ही सही) के सामने झुक जाएंगे। यह कहना जितना आसान है करना उतना ही कठिन, क्योंकि गांधी जी को न तो चुनाव लड़ना था और न ही सरकार चलानी थी। मोदी को ये दोनों काम करने हैं।
कृषि सुधार के लिए बने तीन कानूनों का देश को कम से कम सत्रह सालों से इंतजार था ही। जब साल 2003 में वाजपेयी सरकार ने एक मॉडल कृषि सुधार विधेयक का मसौदा राज्यों को भेजा था। सभी पार्टियां और किसानों के हितैषी इसकी लंबे समय से मांग कर रहे थे, पर कोई इसे करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। मोदी ने यह हिम्मत दिखाई, इसलिए उन्हें कटघरे में खड़ा करने की कोशिश हो रही है।
जरा ध्यान से देखेंगे तो नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और तीन कृषि कानूनों के विरोध में कई बड़ी समानताएं दिखेंगी। सीएए का भारत के मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं था, मगर इसे उनके खिलाफ अन्याय के रूप में पेश करने की कोशिश हुई। कृषि कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी की व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन इन कानूनों को उनके विरुद्ध ही बताने की कोशिश हो रही है।
सीएए के बारे में कहा गया कि अभी भले न हो, पर भविष्य में इसे भारतीय मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा। इसी तरह कहा जा रहा है कि कृषि कानूनों में एमएसपी और मंडी व्यवस्था का जिक्र भले न हो, पर आगे चलकर इन्हें खत्म कर दिया जाएगा।
जो तत्व, चेहरे और ताकतें सीएए के विरोध में लामबंद हुई थीं, वही किसान आंदोलन में भी सक्रिय दिख रही हैं। उसमें भी कई विदेशी संगठन और राजनीतिक तत्व कूदे थे, इसमें भी ऐसा ही हो रहा है। जो नेता और पार्टियां वर्षों से इन कानूनों को लाने की वकालत कर रही थीं वही विरोध में सबसे आगे खड़ी हैं। तो जाहिर है कि यह मामला तीन कृषि कानूनों का नहीं है। जहां निगाहें हैं, वहां निशाना नहीं है। जैसे किसानों का एक वर्ग आज कृषि सुधारों के विरोध में खड़ा है वैसे ही 1991 में हुए आर्थिक सुधारों का भारतीय उद्योग जगत एक दशक तक विरोध करता रहा।
सुनिए, किसान आंदोलन पर चर्चा-
यदि आंदोलित किसानों की कृषि कानून रद्द करने की मांग मान ली गई तो समझ लीजिए कि कोई भी सरकार कृषि सुधारों की दिशा में कदम नहीं बढ़ाएगी। कृषि में निजी निवेश को भूल जाना होगा। देश के कुल किसानों में 86 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों की आमदनी बढ़ाने के सभी दरवाजे बंद हो जाएंगे। धान और गन्ने की खेती वाले इलाकों में पानी का अकाल होगा और उसके लिए दंगे होंगे।
फिलहाल देश के कुल कामगारों का साठ प्रतिशत खेती में लगा है और कृषि का देश की जीडीपी में योगदान केवल सत्रह फीसद है। यानी खेती से लोगों को निकाल कर उत्पादन के दूसरे क्षेत्रों में लगाना जरूरी है। उसके लिए मैन्युफ़ैक्चरिंग जैसे क्षेत्र में बड़े अवसर सृजित करने होंगे। उसमें समय लगेगा। क्या तब तक बैठे रहें?
इन तीनों कानूनों के जरिये सरकार दस हजार किसान उत्पादक संघ बनाने जा रही है। ये संघ किसानों को उद्यमी बनाएंगे। उन्हें अपनी उपज में मूल्यवर्धन किए बिना अच्छा दाम नहीं मिलेगा। इससे एग्रो इंडस्ट्रीज लगेंगी। किसान धान, गेहूं और गन्ने की फसल से निकलकर दूसरी फसलें लगाएगा।
सरकार की आलोचना का एक बिंदु यह भी है कि उसने जल्दबाजी में ये कानून क्यों बनाए। यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि इस पर चर्चा तो वाजपेयी सरकार और शांता कुमार समिति की रिपोर्ट के समय से ही हो रही है।
कहावत है न कि संकट में अवसर देखना चाहिए। मोदी सरकार ने यही किया। कोरोना महामारी के दौरान सरकार ने एपीएमसी को निलंबित कर दिया। किसानों को छूट दे दी कि वे चाहें तो मंडी में बेचें या बाहर। नतीजा यह हुआ कि महामारी के बावजूद गेहूं की रिकॉर्ड खरीद हुई। सरकार ने 70,000 करोड़ रुपये का गेहूं खरीदा। कोरोना में किसी क्षेत्र पर अगर लॉकडाउन का असर नहीं पड़ा तो वह कृषि क्षेत्र ही था। सरकार को लगा कि कृषि सुधार के कानून बनाने का यही सही समय है।
किसान अड़े हैं कि तीनों कानून रद्द किए जाएं और एमएसपी को कानूनी रूप दिया जाए, इससे कम पर वे नहीं मानेंगे। एमएसपी पर सारी खरीद अनिवार्य करने का मतलब सरकार को करीब 17 लाख करोड़ रुपये की खरीद करनी होगी, क्योंकि उस दाम पर निजी क्षेत्र तो खरीदेगा नहीं। सरकार की कुल आय ही साढ़े सोलह लाख करोड़ है। यानी विकास के सारे काम ठप। या फिर सरकार भारी कर लगाए।
सरकार नहीं खरीदेगी तो किसान का अनाज उसके घर में ही रह जाएगा। इसलिए यह पूरी तरह अव्यावहारिक मांग है, जो कोई भी सरकार नहीं मान सकती। इसलिए अब देश को तय करना है कि कानून संसद में बनेगा या सड़क पर?
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