मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की है कि उनके प्रदेश में सरकारी नौकरियां अब मध्य प्रदेश के लोगों को ही दी जाएंगी। चौहान ने कहा कि मध्य प्रदेश की नौकरियां अन्य प्रदेशों के लोगों को नहीं हथियाने दी जाएंगी। मुख्यमंत्री की यह घोषणा स्वाभाविक है। इसके तीन कारण हैं।
पहला, कोरोना की महामारी के कारण बेरोजगारी इतनी फैल गई है कि इस घोषणा से स्थानीय लोगों को थोड़ी सांत्वना मिलेगी। दूसरा, कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने घोषणा की थी कि मप्र सरकार की 70 प्रतिशत नौकरियां राज्य के लोगों के लिए आरक्षित की जाएंगी। ऐसे में चौहान पीछे क्यों रहेंगे? तुम डाल-डाल तो हम पात-पात।
शिव सेना ने महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुस’ का नारा दिया था। 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने नियम बनाया था कि जिस उद्योग को सरकारी सहायता चाहिए, उसके 80 प्रतिशत कर्मचारी महाराष्ट्र के ही होने चाहिए। गुजरात सरकार ने भी कुछ इसी तरह के निर्देश जारी किए थे। आंध्र, तेलंगाना और कर्नाटक में भी यही प्रवृत्ति देखी गई है। ऐसी स्थिति में शिवराज और कमलनाथ की घोषणाएं स्वाभाविक लगती हैं लेकिन जो स्वाभाविक लगता हो, वह सही हो, यह ज़रूरी नहीं है। इसके भी कई कारण हैं।
पहला, यदि हम पूरे भारतवर्ष को अपना मानते हैं तो हर प्रदेश में किसी भी भारतीय को रोजगार पाने का अधिकार है। जब हम दूसरे राष्ट्रों में रोजगार पा सकते हैं तो अपने ही देश के दूसरे राज्यों में क्यों नहीं पा सकते? दूसरा, यह प्रावधान हमारे संविधान की धारा 19 (1) का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म, वर्ण, जाति, भाषा, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव करना अनुचित है।
तीसरा, जिस बीजेपी ने धारा 370 और 35ए खत्म करके कश्मीरी प्रतिबंधों को समाप्त किया है, उन्हें बीजेपी की एक प्रादेशिक सरकार क्या अपने प्रदेश में फिर लागू करेगी? चौथा, नौकरियां तो मूलतः योग्यता के आधार पर ही दी जानी चाहिए, चाहे वह किसी भी प्रदेश का आदमी हो। यदि नहीं तो सरकारें निकम्मों की धर्मशालाएं बन सकती हैं।
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