26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर किसानों की प्रस्तावित परेड में एक गुट द्वारा हिंसा की गई। हालाँकि समूची इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की रिपोर्टिंग आईटीओ, बादली और नांगलोई में होने वाली छिटपुट हिंसा पर ही केंद्रित थी, जबकि 95 फ़ीसदी किसानों की ट्रैक्टर परेड शांतिपूर्वक चलती रही। हिंसा की ख़बर मिलते ही किसान नेताओं ने बयान जारी करके साफ़ कर दिया कि लाल क़िले की ओर कूच करने वाले, किसान मोर्चा के निर्देशों का उल्लंघन कर रहे हैं।
अब स्पष्ट हो गया है कि किसानों को भड़काने वाला दीप सिद्धू बीजेपी के बड़े नेताओं का क़रीबी है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह से लेकर गुरदासपुर के सांसद सनी देओल और हेमा मालिनी के साथ दीप के फ़ोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि जेएनयू और शाहीन बाग़ जैसे तमाम आंदोलनों की तरह किसान आंदोलन में भी हिंसा कराई गई ताकि किसानों को देशद्रोही और आतंकवादी प्रचारित किया जा सके। अब मीडिया द्वारा किसान आंदोलन को खालिस्तानी और आतंकवादी साज़िश बताकर बदनाम करने का सिलसिला चालू हो गया है।
निशान साहिब का झंडा फहराए जाने के कारण किसान आंदोलन को खालिस्तानी आतंकवाद से जोड़ा जा रहा है। जस्टिस फॉर सिख नामक एक पर्चे का हवाला देकर गोदी मीडिया और बीजेपी आईटी सेल द्वारा प्रचारित किया जा रहा है कि आंदोलन के तार कनाडा और अमेरिका में बैठे सिख चरमपंथी खालिस्तानियों से जुड़े हुए हैं।
इस पूरे मामले पर कई सवाल खड़े होते हैं। पहला सवाल तो यह है कि निशान साहिब को फहराना क्या देशद्रोह है? जबकि तिरंगा अपनी जगह शान से लहरा रहा है। असल सवाल तो यह है कि तिरंगा के नाम पर देशभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वाले संघ और बीजेपी के लिए तिरंगा का मान क्या है? इतिहास गवाह है कि दक्षिणपंथी संगठनों ने कभी तिरंगा को स्वीकार नहीं किया। सम्मान देना तो बहुत दूर की बात है। आज़ादी के आंदोलन में क्रांतिकारियों ने अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन तिरंगे की शान को कभी झुकने नहीं दिया।
कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के लिए तिरंगा गर्व का प्रतीक था। आंदोलनकारियों को तिरंगा से आत्मबल मिलता था। तिरंगा राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बना। संविधान सभा में राष्ट्रध्वज के लिए प्रस्ताव पेश करते हुए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी की लड़ाई के संबल बने तिरंगे को याद करते हुए कहा,
‘हम इस झंडे को न सिर्फ़ गुरुर और जोश से देखते थे, बल्कि इसे देखकर हमारी नसें फड़कने लगती थीं। जब हमारे हौसले पस्त होते थे और कंधे झुक जाते थे, तब इसी झंडे को देखकर हमें एक बार फिर आगे बढ़ने का हौसला मिलता था। तब हम में से बहुत से लोग जो यहाँ मौजूद हैं और बहुत से हमारे साथी जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, वे इस झंडे को मज़बूती से पकड़े रहे और कई तो अपनी मौत तक इस झंडे को थामे रहे। और जब वे गिरने लगे तो दूसरे हाथों को यह झंडा सौंप गए, ताकि हमारा झंडा झुकने न पाए।’
साइमन कमीशन के विरोध में पुलिसिया बर्बरता को याद करते हुए नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘लखनऊ रेलवे स्टेशन के बाहर घुड़सवार पुलिस वाले ने उनकी पीठ में दो तगड़े डंडे मारे। उनका सिर घूम गया। लेकिन उन्हें इस बात का ताज्जुब और तसल्ली हुई कि वे अपनी जगह पर तिरंगा थामे खड़े हैं। गिरे नहीं हैं। उन्हें इस बात का बड़ा गर्व हुआ।’
लेकिन हिंदुत्ववादियों के लिए तिरंगा शर्म और दुर्भाग्य का प्रतीक था। हिंदू महासभा और आरएसएस ने तिरंगे को कभी नहीं स्वीकारा। हिंदुत्ववादी राष्ट्रध्वज के रूप में भगवा को देखना चाहते थे।
इसके लिए वे झंडा समिति के सदस्य डॉ. आंबेडकर को अपना मोहरा बनाना चाहते थे। लेकिन बाबा साहब ने हिंदुत्ववादियों को बड़ा मजेदार जवाब दिया। बाबा साहब के जीवनीकार धनंजय कीर ने इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखा है, “10 जुलाई को जब आंबेडकर (बंबई से) दिल्ली जाने के लिए निकले, तब सांताक्रूज हवाई अड्डे पर बंबई प्रांतिक हिंदू सभा के नेताओं और कुछ मराठा नेताओं ने आंबेडकर को हवाई जहाज में बैठते समय एक भगवा ध्वज अर्पित किया। भगवा ध्वज के बारे में अगर आंदोलन हुआ तो हम उसका समर्थन करेंगे, ऐसा उन्होंने उन्हें अभिवचन दिया। उस समय हिंदू महासभा के नेता रावबहादुर सी. के. बोले, अनंतराव गद्रे से आंबेडकर ने विनोद से कहा, 'एक महार लड़के से संविधान समिति पर भगवा ध्वज फहराने की इच्छा आप कर रहे हैं न?’।”
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हिंदुत्ववादी लगातार तिरंगे का विरोध करते रहे। संघ के मुखपत्र 'ऑर्गेनाइजर में लिखा गया,
‘वे लोग जो किस्मत के झटके से सत्ता में आ गए हैं, शायद हमारे हाथों में तिरंगा थमाएंगे। लेकिन हिंदू न तो कभी उसे अपनाएंगे, न ही आदर देंगे। शब्द तीन अपने आप में अशुभ है और ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हैं, यकीनन बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा, और देश के लिए हानिकारक है।”
बंच ऑफ़ थॉट्स' (1966) में एम.एस. गोलवलकर ने लिखा कि तिरंगा झंडा को स्वीकारना संविधान सभा का भटकाव था। 'ड्रिफ्टिंग एण्ड ड्रिफ्टिंग' निबंध में गोलवलकर ने लिखा,
‘हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए नया झंडा तय किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह भटकाव और नकल की एक और मिसाल है। हमारा देश प्राचीन और महान है और उसका अपना गौरवपूर्ण भूत है। तो, क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या हमारा कोई भी राष्ट्रीय चिह्न नहीं था इन हज़ारों साल? बेशक था। फिर हमारे दिमागों में ये सूनापन और खोखलापन क्यों?’
एक तथ्य यह भी है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद तिरंगे का अपमान हिंदुत्ववादियों ने किया था। इसका ज़िक्र प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 24 फ़रवरी 1948 को अपने भाषण में किया था। उन्होंने कहा,
‘कुछ जगहों पर आरएसएस के मेंबरों ने राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया है। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि झंडे का अनादर करके वे साबित कर रहे हैं कि वे देशद्रोही हैं।’
यही कारण है कि गृह मंत्री सरदार पटेल ने तिरंगे का आदर करना ज़रूरी बनाया।
ग़ौरतलब है कि तीन रंग की पट्टिकाओं और बीच में अशोक चक्र वाले तिरंगे को संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को राष्ट्रध्वज के रूप में अंगीकार किया। लेकिन संघ ने क़रीब पचास साल तक राष्ट्रीय दिवसों पर भी अपने मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया।
अलबत्ता, भगवा को मन में दबाए हिंदुत्ववादी शक्तियों ने तिरंगे पर दो काम किए। पहला, तिरंगे को लेकर आम जनमानस में भ्रम फैलाया। दूसरा, तिरंगे का राजनीतिक इस्तेमाल किया। तिरंगे को अशुभ तो संघ खुलकर कहता था। लेकिन बाद में संघ और अन्य हिंदुत्ववादियों ने इसके रंगों को धर्म से जोड़ दिया। इनका कहना था कि तिरंगे में केसरिया रंग हिंदू धर्म का, हरा इस्लाम का और सफेद अन्य धर्मों का प्रतीक है। यह पूरी तरह से भ्रामक और असत्य है।
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दरअसल, इन रंगों का संबंध मानवीय मूल्यों से है। केसरिया त्याग का, हरा समृद्धि का और सफेद शांति का प्रतीक माना जाता है। इसी तरह अशोक चक्र को हिंदुत्ववादियों ने विष्णु का सुदर्शन चक्र बताया। इतना ही नहीं, वी. डी. सावरकर ने डॉ. आंबेडकर से सुदर्शन चक्र को झंडे में स्थान देने की अपील भी की थी। लेकिन संविधानसभा में नेहरू ने स्पष्ट कहा,
‘ध्वज में थोड़ा परिवर्तन किया गया है। चरखे के स्थान पर उसके एक हिस्से चक्र को ही लिया जा रहा है। लेकिन इसे अशोक चक्र में डिजाइन किया जाएगा।’
नेहरू ने आगे कहा,
‘यह चक्र हिंदुस्तान की कई हज़ार बरस पुरानी निशानी है और हिंदुस्तान के लड़ने की निशानी नहीं है, हिंदुस्तान के शांतिप्रिय, अमनपसंद होने की निशानी है, ताकि हिंदुस्तान के लोग हमेशा याद रखें कि हम सच्चाई और धर्म के रास्ते पर चलें। यह निशानी पुरानी है, सम्राट अशोक के पहले की, लेकिन यह सम्राट अशोक के नाम से ख़ासतौर से बंधी है। इसलिए इसके रखने से हमारे झंडे में हज़ारों बरस की तवारीख, इस झंडे से बंध गई और हज़ारों बरस से जो हमारे सामने ध्येय था, जिस तरफ़ हिंदुस्तान के ऊँचे लोगों की निगाहें थीं, वह बात इसमें आ गई। तो इसमें पुराना जमाना आया, हज़ारों बरस का, इसमें पिछला जमाना आया, चालीस-पचास बरस का, आज़ादी की लड़ाई का, इसमें आज आया और आख़िर में इसमें आने वाला कल आया, जो हमें दिखाता है कि किधर हम जाएँगे।’
जब संघ राष्ट्रीय प्रतीकों को चुनौती देने में असफल रहा तो उसने इनका राजनीतिक इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। संघ और बीजेपी ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के छद्म पर हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाया।
हिंदुत्ववादी तिरंगा और वंदे मातरम के मार्फत देशभक्ति का प्रमाण पत्र बाँटने लगे। हिंदू राष्ट्र का सपना संजोए संघ-भाजपा ने कश्मीर में तिरंगा और सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता के दस्तावेज़ भारतीय संविधान को मुद्दा बनाया।
ग़ौरतलब है कि पहले मुरली मनोहर जोशी ने और बाद में उमा भारती ने 1991 में एकता यात्रा में श्रीनगर के लाल चौक और ईदगाह में तिरंगा फहराया। जबकि इसके दस साल बाद 2001 में आज़ादी के 50 साल होने पर संघ कार्यालय पर तिरंगा फहराने गए राष्ट्रप्रेमी युवादल के कार्यकर्ताओं को संघ के अहाते में घुसने नहीं दिया गया। लेकिन इसी संघ और भाजपा ने जेएनयू के छात्रों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए जेएनयू कैंपस में बड़ा तिरंगा लगाने की बात की।
2016 में तिरंगा यात्रा निकाली। अब सरेआम भगवा लहराते हुए हिंदुत्ववादी संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए सरकारी आयोजनों में जय श्रीराम के नारे लगाते हैं। गणतंत्र दिवस पर तिरंगे के 'अपमान' का झूठ गढ़कर किसान आंदोलन को बदनाम करने साज़िश की जा रही है। जबकि हिंदू महासभा गणतंत्र दिवस को मातम दिवस के रूप में मनाता है। मेरठ में हिंदू महासभा के आयोजन में गांधी की हत्या का मंचन करते हुए गोडसे को देशभक्त घोषित किया गया। लेकिन सरकार इसे देशद्रोह नहीं मानती।
दरअसल, दिल में भगवा रखने वाले हिंदुत्ववादी तिरंगे के बहाने किसान आंदोलन को ख़त्म करना चाहते हैं।
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