नरेंद्र मोदी के नए लुक का रहस्य क्या है? इसके राजनीतिक मायने क्या हैं? ज्यादातर लोगों का मानना है कि नरेंद्र मोदी का नया लुक बंगाल चुनाव के मद्देनज़र है। बंगाल में सियासी फायदे के लिए नरेंद्र मोदी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के वेश में दिख रहे हैं। टैगोर के गेटअप में मोदी बंगाली लोगों से कनेक्ट करना चाहते हैं।
यह मोदी की अपनी शैली है। ख़ासकर चुनाव में, वह विशेष क्षेत्र और समुदाय से ख़ुद को बहुत क़रीब से जोड़ते हैं। उनसे आत्मीयता दर्शाने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं लगता कि इस नए गेटअप का कारण केवल बंगाल चुनाव है। दावा तो नहीं है लेकिन अनुमान किया जा सकता है कि मोदी का यह नया लुक लंबे समय तक रहने वाला है। मजाक में नहीं बल्कि कुछ लोग बहुत गंभीरता से मोदी को बेहतरीन एक्टर मानते हैं। लोगों को कनेक्ट करने में मोदी की भावभंगिमा से लेकर उनकी वक्तृत्वकला का बड़ा योगदान है। उनके नज़दीकी लोगों का कहना है कि मोदी भाषण देने से पहले आईने के सामने दो-तीन बार अभ्यास करते हैं। यही वजह है कि उनके भाषणों में ज़बरदस्त मास अपील होती है। कई दफा लोगों को यह एहसास भी रहता है कि अमुक वादा मोदी का जुमला है, बावजूद इसके उनके समर्थक और वोटर जुमले पर भरोसा कर लेते हैं। यह मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की निशानी है।
मोदी कपड़ों के ख़ासा शौकीन हैं। हालांकि वे हमेशा देशकाल के हिसाब से कपड़ों का चयन करते हैं। आयोजन कहां है और उसका प्रयोजन क्या है, इस बात का मोदी खास ख्याल रखते हैं। वे अलग-अलग जगह पर नए कपड़ों, अंगवस्त्र, गमछा, टोपी से लेकर प्राचीन भारतीय परिधान में नजर आते हैं। 'जैसा देश, वैसा भेष' मुहावरे को चरितार्थ करते हुए विशिष्ट होते हुए भी मोदी दर्शकों- समर्थकों को बहुत अपने लगते हैं।
नरेंद्र मोदी का कोई भी क़दम ग़ैर-राजनीतिक नहीं होता। फिर इस रूप का मतलब ग़ैर-राजनीतिक क्योंकर हो सकता है? इसके कई कारण हैं। दरअसल, विकास पुरुष की कारपोरेट ब्रांडिंग के जिस रथ पर सवार होकर मोदी दिल्ली की सत्ता में आए थे, वह छवि अब धूल धूसरित हो चुकी है। मोदी ने आते ही तमाम लोकतांत्रिक और आर्थिक संस्थाओं की स्वायत्तता को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने तमाम आर्थिक फ़ैसले किए। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को हटाने से लेकर योजना आयोग (अब नीति आयोग) की तमाम नीतियों को उन्होंने अपने राजनीतिक फायदे के लिए परिवर्तित किया।
माना जाता है कि रिजर्व बैंक और अर्थशास्त्रियों से परामर्श किए बगैर ही उन्होंने अचानक एक हज़ार, पाँच सौ के नोटों को चलन से बाहर कर दिया। नोटबंदी के कारण मध्यवर्ग और व्यापारीवर्ग की कमर टूट गई। नए नोटों की छपाई पर आने वाले हज़ारों करोड़ की लागत से अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का पहुँचा। बैंकों के आगे कतार में लगे सैकड़ों लोग मर गए। इसके बाद बिना किसी ख़ास तैयारी के उन्होंने पूरे देश में जीएसटी को लागू कर दिया। जीएसटी से व्यापार को बड़ा धक्का लगा। इससे व्यापारी वर्ग हलकान ही नहीं हुआ बल्कि बहुत घाटे में चला गया।
पहले की व्यवस्था के बरक्स जीएसटी लागू होने के बाद सरकार की होने वाली कमाई में भी कमी आई। चीजों के बढ़े दामों से आम उपभोक्ता पर अतिरिक्त बोझ बढ़ा।
लोकलुभावन राजनीति के ज़रिए मोदी ने प्रधानमंत्री आवास योजना को बढ़-चढ़कर लागू किया। निश्चित तौर पर करोड़ों ग़रीबों को इस योजना का लाभ मिला। ग़रीबों को पक्का मकान मिलने से मोदी के समर्थन में इजाफा हुआ। लेकिन इस अनियोजित योजना से भारत के खजाने पर एकतरफ़ा बोझ पड़ा। एक तरफ़ सरकार की कमाई में कमी और दूसरी तरफ़ पॉपुलर योजनाओं पर लाखों- करोड़ का व्यय होने से सरकारी खजाना लगभग खाली हो गया।
ब्रांडिंग
मोदी ने अपनी ब्रांडिंग पर भी पानी की तरह सरकारी पैसा बहाया। सरकारी विज्ञापनों पर हज़ारों करोड़ रुपया ख़र्च किया गया। इसके चलते मोदी सरकार को रिजर्व बैंक का आपात रिजर्व भी निकालना पड़ा। इसके लिए रिजर्व बैंक की स्वायत्ता को भी दाँव पर लगा दिया गया। सरकारी दबाव में रिजर्व बैंक के गवर्नर को इस्तीफ़ा देकर जाना पड़ा। इसी तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव के समय शुरू की गई 'किसान सम्मान निधि' पर भी लाखों करोड़ रुपए व्यय किए गए। अगर इन योजनाओं का कुशल प्रबंधन किया गया होता तो निश्चित तौर पर जनता और अर्थव्यवस्था दोनों को लाभ हो सकता था। लेकिन केवल चुनाव जीतने के लिए लागू की गई योजनाओं के कारण अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। रही सही कसर कोरोना संकटकाल में अचानक तालाबंदी ने पूरी कर दी। उद्योग धंधे चौपट हो गए। बेरोज़गारी बेतहासा बढ़ गई। लेकिन इस चुनौती से उबरने के लिए सरकार के पास कोई सुनियोजित तरीका नहीं था। हकीमों के देसी नुस्खों की मानिंद मोदी सरकार ने असाध्य हो चुकी अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी को संभालने की कोशिश की। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि उन्होंने 'आत्मनिर्भरता' का नया जुमला उछालकर डूबती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोज़गारी को स्वतः संभलने के लिए छोड़ दिया।
डीजल, पेट्रोल, गैस के दाम बढ़ाए
सरकारी खजाने की पूर्ति के लिए डीजल, पेट्रोल और गैस के दामों को बेतहाशा बढ़ा दिया गया। नतीजे में महँगाई आसमान छूने लगी। सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि को रोक दिया गया। वेतन आयोग ख़त्म कर दिया गया। शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर आने वाले ख़र्च के लिए आम आदमी मोहताज हो गया। मध्य वर्ग के विकास की रफ्तार थम गई। ऐसी परिस्थितियों से मोदी के विकास पुरुष की ब्रांडिंग ध्वस्त हो गई। भारत को विश्व की महाशक्ति बनाने का ख्वाब दिखाकर वोट बटोरने वाले मोदी ने लोगों की शिक्षा, रोटी, रोज़गार और दूसरी सरकारी सहूलियतों को भी छीन लिया। इसलिए अब मोदी ने अपना रूप बदलते हुए समर्थकों पर भारत को विश्वगुरु बनाने वाला चश्मा चढ़ा दिया है।
विश्वगुरु भारत कैसा होगा? विश्वगुरु का अतीतजीवी स्वप्न, जाहिर तौर पर हिंदुत्ववादियों को गर्वित करता है। अब मोदी अतीतजीविता और विश्वगुरु के छद्म के सहारे अपनी राजनीतिक साख को बनाए रखना चाहते हैं।
यही कारण है कि कट्टर हिंदुत्व की छवि से भारत की राजनीतिक सत्ता हासिल करने वाले मोदी अपने नए लुक में एक पुरातन आध्यात्मिकता ओढ़े हुए दिखते हैं। राम मंदिर के शिलान्यास के समय भी वे किसी मठ के शंकराचार्य की तरह लग रहे थे।
जाहिर है कि मोदी भारतीय बहुमत यानी हिन्दू मानस को बखूबी समझते हैं। एक ऐसे समय में जब भारत की साख अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ रही है, चीन लगातार भारत की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है, हिन्दू जनमानस का विश्वास बरकरार रखने के लिए मोदी ऐतिहासिक राजऋषि के गेटअप में दिख रहे हैं। यह अतीतजीवी हिंदुत्व का नया ब्रांड है।
मोदी जानते हैं कि भारतीय समाज की सोच अभी भी बहुत हद तक पितृसत्तात्मक और सामंतवादी है। एक परिवार में सबसे वरिष्ठ पुरुष की प्रतिष्ठा, उसके सम्मान और उसकी अभिलाषाओं का पालन करना सभी सदस्यों का कर्तव्य माना जाता है। मोदी इस पारिवारिक भाव को बखूबी जानते हैं। इसीलिए निपट सफेद हो चुके बालों को बढ़ाकर मोदी भारतीय जनमानस में वरिष्ठ पुरुष की छवि निर्मित कर रहे हैं।
अंदरूनी राजनीतिक कारण भी
मोदी के इस गेटअप के पीछे एक अंदरूनी राजनीतिक कारण भी लगता है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आक्रामक हिंदुत्व की छवि नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती बन रही है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि संघ परिवार योगी को भारत की केंद्रीय राजनीति में आगे बढ़ाना चाहता है। योगी भी अत्यंत महत्वाकांक्षी हैं। राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के आगे बढ़ने के तमाम हथकंडों को योगी अपना रहे हैं। खासकर मीडिया द्वारा ब्रांडिंग के जरिए योगी अपनी महत्वाकांक्षा को साकार करना चाहते हैं। यही वजह है कि अमेरिका की टाइम पत्रिका में छपे महंगे विज्ञापन के छद्म को योगी की उपलब्धि बताकर उनके सिपहसालार प्रचारित कर रहे हैं। करोड़ों रुपए के विज्ञापन के जरिए योगी अपनी इमेज निर्मित कर रहे हैं। योगी के इर्द-गिर्द मीडिया के पुराने लोग और मजबूत प्रशासनिक अधिकारी हैं। पी. आर. एजेंसियों के जरिए ये लोग योगी की महत्वाकांक्षा को पंख दे रहे हैं। दूसरी तरफ लव जिहाद जैसे कानूनों के जरिए योगी लगातार आक्रामक हिंदुत्व की छवि को पुख्ता कर रहे हैं।
एक मठ का गेरुआधारी महंत होने के नाते योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व का बहुत स्वाभाविक चेहरा हैं। अतीत में भी योगी की कट्टर हिंदुत्व की छवि रही है। योगी यूपी में सांप्रदायिक राजनीति के सबसे बड़े 'नायक' हैं। खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ उनके भाषण और सांप्रदायिक भाषा हिंदुत्व की राजनीति पर फबते हैं। यूपी में नाम बदलाव की नीति से लेकर गाय संरक्षण की आक्रामक राजनीति के जरिए योगी खुद को हिंदुत्व के सबसे बड़े नायक के रूप में निरूपित करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही भगवाधारी होना उनके हिंदुत्व की छवि को और अधिक गाढ़ा करता है। यही कारण है कि योगी का साधु रूप राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व की राजनीति के लिए जरूरत बन गया है। दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार के लिए मोदी उनका उपयोग करते हैं।
पिछले साल बिहार और हैदराबाद के चुनावों में योगी के भाषण ज्यादा चर्चे में रहे। मुस्लिम बहुल इलाकों में योगी की सभाओं के जरिए भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके चुनाव जीतने की कोशिश की। लेकिन गौरतलब है कि योगी की हिंदुत्व की यही छवि मोदी के लिए चुनौती बन रही है। मोदी बखूबी इस बात को जानते हैं। इसलिए वे सफेद हो चुके बालों को बढ़ाकर योगी की आक्रामक हिंदुत्व की छवि के बरक्स ऋषितुल्य अतीतजीवी हिंदुत्व की सौम्य छवि निरूपित करके बहुल हिंदू जनमानस में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना चाहते हैं।
योगीराज में दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों पर अत्याचार बढ़े हैं। योगी की आक्रामक राजनीति के बरअक्स सौम्य हिंदुत्व की छवि इन जाति समुदायों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। अब देखना यह है कि मोदी अपने इस नए रूप से हिन्दू जनमानस के भरोसे को बरकरार रख पाते हैं या नहीं?
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