किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन चुका है। सरकार इससे निपटने की क्या योजना बना रही है? अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। किसान संगठन तीन काले क़ानूनों को रद्द करवाना चाहते हैं। आंदोलनकारियों को अभी भी सरकार से उम्मीद है। इसलिए आंदोलन मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बहुत मुखर नहीं है। लेकिन अगर सरकार किसानों की माँग नहीं मानती है तो आने वाले वक़्त में किसान आंदोलन की रूपरेखा बदल सकती है। तब सरकार पर इसके प्रभाव का मूल्यांकन होगा।
अलबत्ता ऐसा लग रहा है कि सरकार को किसान आंदोलन की ख़ास परवाह नहीं है। वार्ता ख़त्म करके सरकार ने इसका संकेत भी दे दिया है। लेकिन दूसरे स्तर पर इसका प्रभाव होना सुनिश्चित है।
किसान आंदोलन से संघ के एजेंडे को बहुत ज़्यादा नुक़सान होने वाला है। संघ हिंदुत्व के एजेंडे को जल्दी से जल्दी पूरा करने की जुगत में है। माना जाता है कि आरएसएस की स्थापना के सौ साल पूरे होने पर 2025 में संघ परिवार धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी संविधान की जगह हिंदुत्ववादी संविधान लागू करके भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहता है। लेकिन किसान आंदोलन में हिंदू-मुसलिम-सिख संप्रदाय के लोगों की व्यापक हिस्सेदारी संघ परिवार के सपने को धूमिल कर सकती है। तमाम धर्म और जाति के किसानों की एकजुटता से हिंदुत्व के एजेंडे को धक्का पहुँच रहा है। इस प्रकार दशकों से भगवाकरण करने की संघ की मेहनत पर पानी फिर सकता है।
तीन अंक को अशुभ मानने वाले संघ ने आज़ादी के बाद दशकों तक तिरंगा नहीं फहराया। लेकिन छद्म राष्ट्रवाद के ज़रिए राष्ट्रीय राजनीति में दाखिल होने के लिए संघ ने पहले मजबूरी में तिरंगे को अपनाया और सत्ता में आते ही भगवा को आगे बढ़ा दिया। मोदी सरकार में खुलकर बीजेपी की रैलियों, उसके सांस्कृतिक आयोजनों और यहाँ तक कि संविधान की मर्यादा की परवाह किए बगैर सरकारी कार्यक्रमों में भी भगवा लहराया जाने लगा। तिरंगा किसान आंदोलन की एकजुटता और उसके संघर्ष का ही प्रतीक नहीं है बल्कि उसकी देशभक्ति पर सवाल उठाने वालों को क़रारा जवाब भी है।
अगर किसान आंदोलन और आगे बढ़ता है तो मोदी सरकार और संघ के बीच द्वन्द्व सामने आ सकता है। कुछ राजनीतिक जानकार मानते हैं कि मोदी और संघ के बीच पहले से ही सब कुछ ठीक नहीं है।
उनका कहना है कि मोदी संघ की स्वाभाविक पसंद नहीं बल्कि मजबूरी हैं। मोदी ने गुजरात सीएम बनने के बाद संघ की विशेष परवाह नहीं की। उन्होंने गुजरात में बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं को ही नहीं बल्कि संघ के पदाधिकारियों को भी किनारे करके एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया। मोदी ने अपनी ब्रांडिंग के लिए कारपोरेट के साथ गठजोड़ किया। कट्टर हिंदू की छवि बनाए रखते हुए मोदी ने संघ और हिंदुत्व के समर्थकों को संतुष्ट बनाए रखा। लेकिन ब्रांडिंग के ज़रिए धीरे-धीरे मोदी ने ख़ुद को लगभग संघ के समानांतर खड़ा कर लिया। अपनी ब्रांडिंग की बदौलत मोदी ने आरएसएस को मजबूर कर दिया। इसके चलते संघ मोदी की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठाने को तैयार हो गया।
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाना मोदी की महत्वाकांक्षा को पूरे करने का माध्यम बना। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी और मज़बूत होकर उभरे। मोदी ने सत्ता की समूची ताक़त को अपने हाथों में समेट लिया। सरकार के मंत्रालयों और नीतिगत फ़ैसलों पर उनका ही नियंत्रण है। ऐसे में सवाल उठता है कि संघ ने मोदी से किनारा करने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या संघ में मोदी का विरोध करने की हिम्मत नहीं है? दरअसल, एक तरफ़ मोदी अपनी ब्रांडिंग बरकरार रखते हुए संघ के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ किसी को अपना विकल्प भी नहीं बनने दे रहे हैं। कश्मीर और राम मंदिर जैसे मुद्दों को पूरा कर चुकी मोदी सरकार अब समान नागरिक संहिता की तैयारी में है। लेकिन मोदी ने संघ के कई राजनीतिक मोहरों को भोथरा कर दिया है। संघ के क़रीबी होने के बावजूद नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह की भाजपाइयों और मतदाताओं के बीच अब कोई स्वीकार्यता नहीं है।
नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में तमाम चुनावी समीकरणों और साधनों को अपने पक्ष में कर लिया। इसी वजह से नरेन्द्र मोदी पर न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया और दूसरी तमाम संवैधानिक संस्थाओं को प्रभावित करने का आरोप लगता है। लेकिन जब से मोदी ने अमित शाह को नंबर दो बनाया है, संघ अधिक चौकन्ना हो गया है। मोदी की तरह अमित शाह भी संघ के हाथ की कठपुतली नहीं बन सकते। अमित शाह भी पूंजीपतियों के क़रीबी माने जाते हैं। ग़ौरतलब है कि मोदी और शाह की सरकार में गुजराती पूंजीपतियों को विशेष प्रोत्साहन मिला है। पूंजीपतियों के साथ-साथ दूसरे क्षेत्रों के गुजरातियों को भी विशेष महत्ता मिल रही है। इसलिए भी संघ परिवार मोदी के बाद अमित शाह के हाथ में सत्ता सौंपने की भूल नहीं करना चाहता।
लगता है संघ ने योगी को विकल्प के रूप में चुन लिया है। दरअसल, 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतने के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के फ़ैसले पर संघ का ही दबाव था।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि पिछले कुछ समय से संघ परिवार यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ को आगे करने की रणनीति पर काम कर रहा है। हालाँकि इस सच का पर्दाफाश आगामी यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान होगा। अगले साल होने वाला यूपी चुनाव बीजेपी और विपक्ष के बीच ही नहीं बल्कि मोदी और योगी के बीच भी होगा। अब देखना यह है कि संघ की पसंद के बावजूद योगी आदित्यनाथ नरेंद्र मोदी को चुनौती दे पाते हैं या नहीं। मोदी के कमज़ोर हुए बगैर योगी आदित्यनाथ की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकती। किसान आंदोलन मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व को धूमिल कर सकता है। इसलिए अंदरूनी तौर पर किसान आंदोलन योगी के लिए एक मौक़ा बन सकता है। ऐसे में लगता है कि यूपी के किसानों को दिल्ली जाने से रोककर योगी भूल कर रहे हैं।
ग़ौरतलब है कि संघ और उसका किसान संगठन अभी तक मोदी सरकार के साथ खुलकर नहीं आया है। यह साधारण चुप्पी नहीं है बल्कि एक कूटनीतिक खामोशी है। संघ मोदी की ब्रांडिंग के लिए अपने एजेंडे को नहीं छोड़ सकता। ज़ाहिर है कि मोदी ने कारपोरेट हित में क़ानून बनाए हैं। मोदी इनके ज़रिए अपने उन कारपोरेट मित्रों को फ़ायदा पहुँचाना चाहते हैं, जो चुनाव के वक़्त उनकी मदद करते हैं। लेकिन संघ परिवार जानता है कि कारपोरेट धनपति सिर्फ़ सत्ता के साथ होते हैं। हिंदुत्व के एजेंडे में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती।
कारपोरेट कुबेर अपना व्यापार बढ़ाने और पूंजी बनाने के लिए दूसरे दलों को भी चंदा देते हैं और सरकार बदलने पर फ़ायदा उठाते हैं। ऐसे में उनका विचारधारा से क्या लेना-देना हो सकता है।
इसलिए संघ अपने एजेंडे के बिनाह पर धनपतियों के लिए क़ानून बनाने का पक्षपाती नहीं हो सकता। संघ ऐसा क़ानून क़तई नहीं चाहेगा जिससे उसकी सौ साल की मेहनत पर पानी फिर जाए। संघ के लिए मोदी नहीं बल्कि बीजेपी और उसका एजेंडा ज़रूरी है।
सच तो यह भी है कि संघ अपने समानांतर विकसित मोदी की सत्ता को नियंत्रित भी करना चाहता है। अब देखना यह है कि आंदोलन से किसानों का संकट दूर होगा या नहीं? देखना यह भी दिलचस्प होगा कि किसान आंदोलन का सरकार और संघ के रिश्तों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
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