स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा किसान आंदोलन दिल्ली की सरहदों पर जारी है। पिछले 60 दिनों में पाँच दर्जन से ज्यादा किसान शहीद हो चुके हैं। कड़ाके की ठंड में लाखों किसान बूढ़े-बुजुर्ग, बच्चों और औरतों समेत डटे हुए हैं। सरकार के साथ 10 दौर की बातचीत हो चुकी है। लेकिन सरकार किसानों की मुख्य माँग मानने के लिए तैयार नहीं है। किसान भी तीनों काले क़ानून रद्द कराए बग़ैर पीछे हटने के लिए कतई राजी नहीं है।
कॉरपोरेट घरानों को फायदा?
क्या कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुँचाने के लिए मोदी देश के करोड़ों किसानों की बात नहीं मान रहे हैं? क्या मोदी लाखों किसानों की मौजूदगी को किसानों की समग्र आवाज नहीं मानते? तब क्या पूरे भारत के किसानों को दिल्ली आना पड़ेगा? क्या यह केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का आंदोलन है? एक सवाल यह भी है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के सभी हिस्सों से किसान आंदोलन में क्यों शामिल नहीं हैं?
अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के किसानों की आंदोलन में अनुपस्थिति के क्या कारण हैं? क्या इन क्षेत्रों के किसानों का आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है? इन काले क़ानूनों का क्या इन किसानों पर कोई असर नहीं होगा? अथवा इसके कारण कुछ और हैं।
यूपी में किसान आंदोलन
यूपी के तमाम हिस्सों के किसानों के आंदोलन का एक समृद्ध इतिहास रहा है। अंग्रेजी साम्राज्य के ख़िलाफ़ पहला आंदोलन केवल सामंतों और राजाओं का विद्रोह नहीं था।
1857 का आंदोलन बुनियादी तौर पर किसानों का आंदोलन था। हिंदी आलोचक और वामपंथी विचारक रामविलास शर्मा मानते हैं कि सैनिकों के वेष में किसान ही थे जिन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी।
इस आंदोलन का केंद्र आज की हिंदी पट्टी या 'काऊ बेल्ट' ही थी। ग़ेर- हिंदी भाषी क्षेत्रों के राजाओं और सैनिकों ने अंग्रेजों के साथ दिया था। इस कारण 1857 का आंदोलन असफल हुआ और ब्रिटिश साम्राज्य मजबूत हुआ।
गांधी का किसान आंदोलन
इसके बाद 20 शताब्दी के दूसरे दशक में महात्मा गाँधी के आह्वान पर किसान, मजदूर दलित, स्त्रियाँ, अल्पसंख्यक और नौजवान कांग्रेस के आंदोलन में शामिल हुए। अंग्रेजी पढ़े-लिखे आभिजात्य समुदाय की कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अब जन आंदोलन में तब्दील हो गया। गांधी ने जनता के सरोकारों के साथ कांग्रेस को जोड़ा। उन्होंने अपना पहला सत्याग्रह चंपारण, बिहार (1917) में किया।
अंग्रेजी हुक़ूमत द्वारा नील की खेती के लिए किसानों को तिनकठिया व्यवस्था अपनाने के लिए मजबूर किया गया था। गाँधी के सत्याग्रह से चंपारण के किसानों की जीत हुई।
इसके बाद बारदोली, गुजरात (1928) में सरदार पटेल के नेतृत्व में बड़ा किसान आंदोलन हुआ। इसी तरह से अवध में 1920-21 में बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के नेतृत्व में बड़ा किसान आंदोलन हुआ।
अवध का किसान आंदोलन गांधी और पटेल के नेतृत्व में हुए किसान आंदोलनों से अधिक व्यवस्थित और संगठित थे। सवाल यह है कि इस इतिहास के बावजूद आज के आंदोलन में किसान शामिल क्यों नहीं है।
किसान आंदोलन में क्यों नहीं?
इसके कई कारण हैं। पहला कारण भौगोलिक है। पश्चिमी यूपी के बरक्स पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध में बड़ी जोत वाले किसानों की संख्या बेहद कम है। बुंदेलखंड की ज़मीन दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा कम उपजाऊ है। यहाँ पीली मिट्टी की अधिकता है और ज़मीन भी पथरीली है। इसलिए किसानों की माली हालत बहुत मजबूत नहीं है। खेती उनके लिए घाटे का सौदा है। पूर्वांचल और अवध के अधिकांश किसानों की भी यही हालत है।
पंजाब और हरियाणा की तरह यहाँ न सरकारी मंडियाँ हैं और ना एमएसपी पर फसल की खरीद होती है। बिचौलिए और स्थानीय व्यापारी औने-पौने दाम पर किसानों की फसल खरीदते हैं।
इसलिए भी खेती से विशेष जुड़ाव किसान महसूस नहीं करते। खेती उनके लिए कई बार घाटे का सौदा साबित होती है।
दूसरा कारण सामाजिक है। अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के बड़े किसान अगड़ी जातियों के हैं। ये जातियाँ बीजेपी और नरेंद्र मोदी के समर्थक हैं।
एसपी-बीएसपी की राजनीति
लेकिन सबसे बड़ा कारण राजनीतिक है। 1989 के बाद यूपी में क्रमशः बीजेपी, बीएसपी और सपा का शासन रहा। 2017 में बीजेपी के पूर्ण बहुमत प्राप्त करने से पहले यूपी की सत्ता सपा और बीएसपी के इर्द-गिर्द घूमती रही है। सपा को मूलतः यादवों की पार्टी माना जाता है। बीजेपी की बढ़ती सांप्रदायिक राजनीति और कांग्रेस के कमजोर होने के कारण मुसलमान भी मुलायम सिंह यादव के साथ जुड़ गए।
बीएसपी का मूल जनाधार दलित जातियाँ हैं। कांशीराम के बहुजन आंदोलन के कारण पिछड़े और मुसलमान भी बीएसपी से जुड़ गए। इसलिए बीएसपी और सपा को क्रमशः इन समुदायों का भी समर्थन मिलता रहा है।
दरअसल, 1990 के बाद यूपी की राजनीति सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर केंद्रित रही है। यही कारण है कि यूपी की राजनीति में किसानों का मुद्दा मुखर नहीं हुआ।
चरण सिंह की किसान राजनीति
चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाले मुलायम सिंह की शुरुआती राजनीति में ज़रूर किसानों का मुद्दा रहा है। चरण सिंह मूलतः किसानों के नेता थे। स्वाधीनता आंदोलन में गाँधी और नेहरू के नक्शे-कदम पर चलने वाले चरण सिंह आजादी के बाद यूपी में कांग्रेस मंत्रिमंडल में शामिल हुए।
ग़ौरतलब है कि 1959 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में सहकारी खेती लागू करने का प्रस्ताव रखा। चरण सिंह ने मुखर होकर सहकारी खेती के प्रस्ताव का विरोध किया। विरोध स्वरूप उन्होंने राजस्व और परिवहन मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। नतीजा यह हुआ कि भारत सरकार ने सहकारी खेती का प्रस्ताव त्याग दिया।
आगे चलकर चरण सिंह ने कांग्रेस से बग़ावत करके भारतीय लोकदल नाम से अपनी पार्टी बनाई। चरण सिंह का जनाधार 'अजगर' समीकरण था। अहीर, जाट, गूजर और राजपूत जातियों के एका का मूल कारण इनका किसान होना था।
किसानों से दूर अखिलेश
मुलायम सिंह ने भी इसी समीकरण को आगे करके राजनीति शुरू की। लेकिन अखिलेश यादव की सपा में किसानों के लिए कोई जगह नहीं है। अखिलेश यादव की राजनीति के सिपहसालार अंग्रेजीदां प्रबंधक हैं। इनका गाँव और किसान से कोई सरोकार नहीं है। यही कारण है कि सपा में किसानों का कोई प्रकोष्ठ नहीं है।
बीएसपी का भी कोई किसान प्रकोष्ठ नहीं है। मायावती का मुख्य जनाधार दलित जातियाँ हैं। अधिकांश दलित भूमिहीन और खेतिहर मज़दूर हैं। इसलिए उनके लिए शिक्षा, आरक्षण और आत्म सम्मान प्रमुख मुद्दे रहे हैं।
पुलिसिया पहरा
सपा और बीएसपी; दो बड़े विपक्षी राजनीतिक दलों के किसानों के मुद्दे पर गंभीर नहीं होने के कारण आंदोलन में अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड की भागीदारी कमजोर है।
आंदोलन में शेष यूपी के किसानों के नहीं पहुँचने का एक तात्कालिक कारण भी है। आंदोलन की मजबूती और समर्थन को देखकर योगी सरकार बहुत चौकन्नी हो गई।
योगी सरकार ने समूचे यूपी में किसान संगठनों और उनके आंदोलन पर पुलिसिया पहरा बिठा दिया। अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के किसान नेताओं को नोटिस दिए जाने लगे। किसी भी तरह की सभा और गोष्ठियों पर पाबंदी लगा दी गई।
आंदोलनरत किसानों पर गुंडा एक्ट जैसी धाराएँ लगा दी गईं। यही कारण है कि कुछ स्वतंत्र और छोटे-मोटे वामपंथी किसान संगठनों के आंदोलन में जाने की कोशिश को पुलिसिया दमन से रोका जा रहा है। इस वजह से यूपी के किसान फिलहाल आंदोलन में शामिल नहीं हो पा रहे हैं।
समूचे प्रांत के मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी और किसान-मजदूर सभी तबके दिल्ली की सरहदों पर चल रहे आंदोलन का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं। इसलिए यह कहना बेमानी है कि समूचे यूपी के किसानों का आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है। आंदोलन के साथ उनकी प्रतिबद्धता सौ टका है।
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