जब से हमारे देश में कोरोना आया है, केंद्र हो या राज्य सरकारें, सब यही कह रही हैं कि यह लड़ाई हमें जीतनी है। देशवासी भी यही चाहते हैं कि हम कोरोना से जंग जीत जाएं। लेकिन कोरोना को लेकर जिस तरह से सरकारी तंत्र की विफलता की खबरें एक के बाद एक करके सामने आ रही हैं, इससे यह सवाल खड़ा होने लगता है कि कोरोना को हराने में क्या हमें अभी बहुत वक्त लगने वाला है।
कोरोना की पहली लहर में लोगों को यह आस बंधी थी कि एक दिन वैक्सीन आएगी और बीमारी पर अंकुश लगेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वैक्सीन को लेकर बातें की और वैक्सीन आ जाने पर गोदी मीडिया ने उन्हें विश्व गुरु, वैक्सीन गुरु, विश्व नेता जैसे तमाम सम्बोधनों से अलंकृत करके प्रचारित किया।
वैक्सीन की जबरदस्त किल्लत
आज देश में वैक्सीन की किल्लत की वजह से हाहाकार मचा हुआ है। हर प्रदेश में वैक्सीन की कमी के कारण 18 से अधिक आयु वर्ग के लोगों का टीकाकरण थम सा गया है। 45 से अधिक आयु वालों के लिए भी वैक्सीन कम पड़ रही है। वैक्सीन की पहली और दूसरी खुराक के बीच पहले जो अंतर था उसे बढ़ाकर दोगुना कर दिया गया और जनमानस में यह धारणा बनती जा रही है कि ऐसा वैक्सीन की कमी के चलते किया जा रहा है। लोगों का सब्र टूटता नजर आ रहा है।
वैक्सीन गायब होने से ऊहापोह
ऐसे में जब अमेरिका से ऐसी खबर आ रही है कि, वैक्सीन लगवा चुके लोगों को बिना मास्क के रहने की परमिशन दे दी गई है। हमारे देश में भी मीडिया के माध्यम से लोगों ने अमेरिका में कोरोना से हुई तबाही का मंजर देखा था। वहां अब वैक्सीन के बाद जो सुधार हुआ है, उससे लोगों में वैक्सीन को लेकर उम्मीद जगी है लेकिन सरकारी तंत्र से वैक्सीन गायब होने से लोग ऊहापोह की स्थिति में हैं।
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पोस्टर लगाने पर गिरफ़्तारी
ऐसे में दिल्ली में कुछ जगहों पर पोस्टर लग गए "मोदी जी, हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया।" पोस्टर लगाने वालों की गिरफ्तारी पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ट्विटर पर इसे साझा कर केंद्र सरकार से सवाल करते हैं। देखते देखते ही ट्विटर पर यह पोस्टर वायरल हो जाता है। यह बात इस तरफ भी इशारा करती है कि वैक्सीन की लोगों में कितनी मांग है। क्योंकि हर कोई यह सोचता है कि वो दिन कब आएगा जब हम अपने दोस्तों से मिल सकेंगे, बाहर जा सकेंगे और मास्क उतार सकेंगे।
कब लौटेंगे पुराने दिन?
कितना अच्छा होगा जब हमारे चेहरे पर मुस्कुराहट होगी, मास्क नहीं। जब बड़े लोग ऑफिस जा रहे होंगे और बच्चों की पीठ पर स्कूल बैग होंगे। जब घर की महिलाएं शॉपिंग कर एक साथ किटी पार्टी करेंगी। जब मजदूर बिना डरे शहर में पैसे कमा सकेगा। जब छोटे व्यापारियों का बिजनेस बंद नहीं होगा और बड़ी कंपनियां लोगों को नौकरी देंगी। लेकिन वैक्सीन की किल्लत ऐसे दिनों का फ़ासला बढ़ाते जा रही है।
वैक्सीन संकट पर देखिए चर्चा-
सरकारी घोषणाएं तो बहुतेरी हो रही हैं पर धरातल की हकीकत कुछ और है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 1 मई 2021 से 18 वर्ष और उससे अधिक आयु वर्ग के लोगों को वैक्सीन दिए जाने की घोषणा की तो साथ ही साथ यह भी कहा कि अब राज्य सरकारें टीकाकरण के लिए अपने-अपने संसाधन जुटाएं।
प्रधानमंत्री ने बड़े ब्रांड वाले कुछ निजी चिकित्सालयों को भी सहूलियत दे दी कि वे वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों से सीधे वैक्सीन खरीद सकते हैं और टीकाकरण कर सकते हैं। टीकाकरण से अपनी जवाबदेही सीमित करने वाले निर्णय पर केंद्र सरकार की आलोचना भी खूब हुई।
वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों द्वारा राज्य सरकारों के लिए वैक्सीन का अलग भाव हो या केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय बजट में टीकाकरण के लिए 35 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान और पीएम केयर्स फंड को लेकर भी सवाल खड़े किए गए।
लेकिन इन सब सवालों के बीच हालत ये हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा वैक्सीन निर्माण की क्षमता रखने वाले देश में वैक्सीन का अभाव है। नए दिशा-निर्देशों के बाद राज्यों में ग्लोबल मार्केट से वैक्सीन खरीदने की होड़ सी लग गयी है, वह भी प्रतिस्पर्धात्मक भावों के हिसाब से।
सरकारी प्रक्रिया ठप
कई राज्यों ने टेंडर जारी किये हैं। कई उसकी तैयारी में हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वैक्सीन की सरकारी प्रक्रिया ठप होती जा रही है या यूं कह लें कि सरकारी नीतियों के चलते वह निजी हाथों में जाती दिख रही है और सरकारी माध्यम में वैक्सीन की किल्लत तेजी से लोगों को इन निजी कंपनियों की तरफ धकेलने का काम कर रही है।
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वर्तमान में बल्क वैक्सीनेशन का काम देश के पांच सबसे बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल- अपोलो, मैक्स, फ़ोर्टिस, रिलायंस, मनिपाल की तरफ से किया जा रहा है। हमारे देश में प्राइवेट सेक्टर के लिए वैक्सीन की कीमत दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले सबसे ज्यादा है।
शुरुआत में जब प्राइवेट अस्पतालों और राज्य सरकारों को वैक्सीन खरीद की अनुमति नहीं थी तब केवल केंद्र सरकार इसकी खरीद कर रही थी। उस समय दोनों वैक्सीन उसे केवल 150 रुपये में मिल रही थी। उस समय केंद्र वैक्सीन खरीद कर राज्यों और निजी अस्पतालों को सप्लाई कर रहा था।
प्राइवेट अस्पताल उस समय केवल 100 रुपये वैक्सीनेशन चार्ज वसूल रहे थे। लेकिन अब निजी चिकित्सालयों के एक प्रबंधक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि कोविशील्ड की लैंड प्राइस 660-670 रुपये के करीब है जिसमें जीएसटी और टैक्स शामिल हैं। 5-6 फीसदी वेस्टेज के कारण यह कीमत बढ़कर 715 रुपये तक पहुंच जाती है।
अगर कोई वैक्सीनेशन करवाने जाता है तो उसमें 170-180 रुपये वैक्सीनेशन चार्ज लगता है जिसमें पीपीई किट और हैंड सैनिटाइजर की कीमत जुड़ी होती है। इस तरह नेट कॉस्टिंग 900 रुपये तक पहुंच जाती है। लेकिन यह फार्मूला केवल आदर्श परिस्थितियों में ही आ रहा है।
हकीकत यह है कि निजी अस्पताल जरूरत और आवश्यकता के हिसाब से ये दरें चार्ज कर रहे हैं। दरअसल निजी चिकित्सालयों में 1500 से 2500 रुपये प्रति डोज के हिसाब से वसूला जा रहा है।
एक दूसरा पहलू भी सामने आ रहा है कि छोटे अस्पतालों के ऑर्डर नहीं लिए जा रहे हैं। सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि पहले वह केंद्र और राज्यों और बड़े प्राइवेट अस्पतालों की मांग पूरी करेगा, इसके बाद छोटे अस्पतालों का नंबर आएगा।
महाराष्ट्र में मुंबई और ठाणे के छोटे अस्पतालों के एक संगठन ने सरकार से मांग की है कि उन्हें भी वैक्सीन दिलाये जाने की व्यवस्था हो। जबकि दूसरी तरफ एक बड़े ब्रांड का अस्पताल अपोलो शहर की नवी मुंबई की एक बड़ी हाऊसिंग सोसायटी में जहां उच्च आय वर्ग के लोग रहते हैं, सामुदायिक वैक्सीनेशन के लिए वहां पहुंचता है। इस सोसायटी में जाकर उसने एक दिन में 800 लोगों को वैक्सीन लगाई।
मार्च, 2021 में महाराष्ट्र सरकार ने प्रधानमंत्री के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के दौरान यह मामला उठाया था कि उन्हें हर हाउसिंग सोसायटीज में जाकर यानी घर-घर पंहुचकर वैक्सीन देने की इजाजत दी जाए। इसके पीछे यह तर्क था कि ज्येष्ठ नागरिकों को आने-जाने में दिक्कत होती है और संक्रमण का खतरा होता है लिहाजा घर-घर जाकर वैक्सीन देनी चाहिए।
केंद्र सरकार ने हालांकि महाराष्ट्र सरकार को इसकी इजाजत नहीं दी लेकिन कोरोना से जुड़ी एक याचिका पर गत दिनों बॉम्बे हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से सवाल किया था कि वह घर-घर जाकर वैक्सीन क्यों नहीं देती।
अदालतों की सख़्त टिप्पणियां
कई राज्यों के हाई कोर्ट कोरोना की इस लड़ाई में राज्य सरकारों पर सख्त टिप्पणियां कर रहे हैं। दुनिया के कई देशों में यह सिद्ध हो चुका है कि वैक्सीन के माध्यम से कोरोना से निजात मिल सकती है। उसके बावजूद हमारे देश में वैक्सीन को लेकर केंद्र सरकार का रवैया ऐसा क्यों रहा।
सरकार की तरफ से अब ये कहा जा रहा है कि जुलाई के बाद से वैक्सीन का उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाएगा और दिसंबर तक देश में लगभग सभी को वैक्सीन लग जाएगी। लेकिन केंद्र सरकार के इस दावे पर भरोसा नहीं हो रहा।
तेज़ करना होगा टीकाकरण
भारत सरकार की पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव का कहना है कि कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने और उसे पराजित करने की कुंजी काफी हद तक टीकाकरण की तीव्र रफ्तार पर निर्भर करती है और यह ऐसा क्षेत्र है जहां सरकार लक्ष्य से पीछे है।
किफायती टीकाकरण के लिए सरकार को भारतीय और विदेशी विनिर्माताओं से वैक्सीन की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए। केंद्र सरकार को वैक्सीन की खरीद करनी चाहिए और इसे राज्यों को देना चाहिए।
राव के अनुसार, हम अभी कोविड-19 की दूसरी लहर के बीच में है, ऐसी स्थिति में यहां से टीकाकरण अभियान को गति प्रदान करना महत्वपूर्ण है। दूसरी लहर का प्रभाव कम होने के दौरान हमारे पास एक छोटी अवधि रहेगी और इस अवधि में हमें यह सुनिश्चित करना है कि हम अपनी 70 प्रतिशत आबादी का टीकाकरण कर दें।
कोरोना से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए भारत सरकार को वैक्सीन के उत्पादन को बढ़ाने पर जोर देना चाहिए और आधे दर्जन से अधिक कंपनियों को वैक्सीन उत्पादन से जोड़ना चाहिए। भारत में इसके लिए आधारभूत ढांचा और क्षमता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि भारत सरकार इस क्षमता को क्यों नहीं पहचान रही।
ऑक्सीजन के मामले में भी वही स्थिति हुई और रेमडिसिविर जैसी जरूरी दवाओं की किल्लत के पीछे भी मुख्य रूप से यही कारण रहा जिसका खामियाजा हमें लाखों लोगों की मौत के रूप में उठाना पड़ा। इसलिए एक बात जो उभर कर सामने आ रही है वह यह है कि निजी क्षेत्र के हाथों में देकर हमारे देश में सबको वैक्सीन देना ना सिर्फ कठिन कार्य है बल्कि असंभव भी है।
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