बारूद के ढेर पर बैठी, क्रूरता का नित्य नया इतिहास लिखने वाली और मानवता के बजाये अतिवाद की सभी सीमाएं पार कर रही यह दुनिया क्या पुरुष प्रधान अहंकार पूर्ण राजनीति के चलते रसातल की ओर जा रही है? क्या अब एक करुणामयी विश्व के निर्माण के लिये महिलाओं की राजनीति में बराबर की भागीदारी वक़्त की सबसे बड़ी ज़रुरत बन चुकी है?