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कंगना के बयान पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले और अधिक हिंसक

“समाचार पत्रों की वास्तविक ज़िम्मेदारी है, लोगों को शिक्षित करना, लोगों के दिमाग़ की सफ़ाई करना, उन्हे संकुचित सांप्रदायिक विभाजन से बचाना, और सार्वजनिक राष्ट्रवाद के विचार को प्रोत्साहित करने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं का उन्मूलन करना। लेकिन ऐसा लगता है कि उनका प्रमुख उद्देश्य अज्ञानता को फैलाना, सांप्रदयिकता और अंधराष्ट्रीयता को फैलाना, लोगों को सांप्रदायिक बनाकर मिश्रित संस्कृति और साझा विरासत को नष्ट करना हो गया है।”

कीर्ति में मई 1928 में भगत सिंह के छपे एक लेख ‘रीलिजन एण्ड फ्रीडम स्ट्रगल’ के इस अंश को ध्यान से पढ़िए और यह समझने की कोशिश कीजिए कि हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के महान नायक मीडिया से क्या आशा करते थे। ब्रिटिश शासन के समय हो सकता है इस आशा को पूरा करने के लिए मीडिया के पास अदम्य साहस की ज़रूरत होती लेकिन आज जब भारत में हमारे द्वारा एक चुनी हुई सरकार है तब ऐसी आशा करना साहस नहीं “रीढ़” से जुड़ा मसला है।

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आज के भारत के मीडिया में इस रीढ़ की कमी बहुत आम बात हो गई है। वैसे तो यह कमी हमेशा अखरती है लेकिन हाल में टाइम्स नाउ पर अभिनेत्री कंगना रनौत के एक साक्षात्कार कार्यक्रम में इस रीढ़विहीनता ने भारत के स्वाधीनता संघर्ष को घाव दे दिया। कंगना ने उस कार्यक्रम में कहा कि भारत को 1947 में जो आज़ादी मिली थी वह असल में भीख थी, और वास्तविक आज़ादी भारत को 2014 में मिली। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस अंग्रेजों के लिए काम करती रही। इतने सबके बावजूद कार्यक्रम की होस्ट ने कंगना को नहीं टोका, उनके स्वतंत्रता संबंधी ज्ञान पर लगभग सहमति जताते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ा दिया गया। 

देश विदेश में इस कार्यक्रम को करोड़ों लोगों ने देखा, और आने वाले समय में करोड़ों लोग और देखेंगे। यह कार्यक्रम उन अंग्रेजों ने भी देखा होगा जिनकी संसद का अब तक का सबसे काबिल प्रधानमंत्री भारत के ‘नंगे फकीर’ के आगे हथियार डाल चुका था, उन लोगों ने भी देखा होगा जिनके पूर्वजों ने भारत के स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी पर चढ़ाया, और उन्हें यह समझने में आसानी हुई होगी कि कैसे भारत को उनके पूर्वजों ने आसानी से गुलाम बनाया होगा। 

इस कार्यक्रम को भगत सिंह की पीढ़ियों ने देखा होगा, सुभास चंद्र बोस के परिवार ने भी देखा होगा, सरदार उधम सिंह, खुदीराम बोस, बिस्मिल और आज़ाद की पीढ़ियों और परिवारों ने भी देखा होगा। उन्हें क्या महसूस हुआ होगा? जिस देश की आज़ादी की लड़ाई में वो कम उम्र में फांसी पर चढ़ गए वह आज़ादी की लड़ाई ही नहीं थी?

यदि 1947 में आज़ादी नहीं मिली थी; भीख मिली थी, आज़ादी 2014 में मिली है, तो देश के 13 राष्ट्रपति, 14 प्रधानमंत्री, 41 भारत के मुख्य न्यायाधीश और 2014 के पहले तक बैठ चुकी 15 अलग-अलग लोकसभाएँ भीख में मिली आज़ादी में चल रही थी।

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने भीख में मिले आज़ाद भारत के संविधान का निर्माण करने में खुद को खपाया था, भारत रत्न सरदार पटेल भीख में मिली आज़ादी की रियासतों को एकीकृत कर रहे थे? 

18% साक्षरता दर (1951) वाला भारत भीख की आज़ादी की बदौलत 73% साक्षरता दर पर पहुँच गया, 2005 से 2015 के बीच 27 करोड़ भारतीयों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने का काम भीख की आज़ादी में ही सम्पन्न हुआ।

विचार से ख़ास

देश विदेश में इतने अपमान के बाद चैनल को याद आया तो ट्विटर पर एक ट्वीट करके कंगना रनौत से असहमति दर्ज करा दी। देश के स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान हुआ था कम से कम एक कार्यक्रम का आयोजन करके माफी मांगते।

कंगना रनौत को भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से पुरस्कृत किया है, उन्हें सरकार ने Y+ सुरक्षा (11सुरक्षाकर्मी) भी दे रखी है। किसी व्यक्ति में दुस्साहस का परिमाण उसमें निहित आभासी शक्ति के समानुपाती होता है। दुस्साहस का स्रोत दुस्साहसी व्यक्ति के शरीर के कहीं बाहर स्थित होता है। जबकि साहस स्वयं के शरीर में निहित शक्ति के ठोस स्वरूप का प्रतिबिंब है। 

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हमें यह बात अच्छे से समझ लेनी चाहिए कि कंगना अपने दुस्साहस के साथ एक विचारधारा का मंचन कर रही हैं। यह वो विचारधारा है जिसमें 1885 में बनी कांग्रेस को कुछ लोगों ने ब्रिटिश सत्ता के लिए ‘सेफ्टी वाल्व’ की संज्ञा दी थी। यह भ्रम फैलाया गया कि ए.ओ. ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना इसलिए की थी ताकि अंग्रेजों द्वारा शोषित भारतीयों के ग़ुस्से से ब्रिटिश राज को बचाया जा सके। अर्थात कांग्रेस ब्रिटिश राज के लिए एक सेफ्टी वाल्व की तरह काम करने वाली थी। इस परिकल्पना को 1916 में पहली बार लाला लाजपत राय (गरमपंथी नेता) ने यंग इंडिया नाम की पत्रिका में एक लेख के माध्यम से ‘नरमपंथी नेताओं पर प्रहार’ करने के लिए इस्तेमाल किया था, उसके बाद इस आधारहीन विचार को मानने वालों में रजनीपाम दत्त तथा आर.सी. मजूमदार जैसे इतिहासकार भी शामिल रहे। बाद के वर्षों में बिपिन चंद्र समेत तमाम इतिहासकारों ने जब इस विचार को तथ्यों की कसौटी पर कसा तो यह विचार औंधे मुँह गिर पड़ा। 

लेकिन एक विचारक, संघ प्रमुख गोलवरकर, अपने पैम्फ्लिट “वी” के माध्यम से इस विचार को लगातार प्रचारित करते रहे। यही कारण है कि संघ को न स्वतंत्रता सेनानी रास आए, न स्वाधीनता संघर्ष और न ही इसके माध्यम से मिली आज़ादी।

भारत को 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी के कई रूप थे। हर रूप भारत की आज़ादी को महत्व दे रहा था। जैसे आज़ाद भारत का संविधान, आज़ाद भारत का राष्ट्रीय ध्वज, आज़ाद भारत की साझा संस्कृति, लेकिन संघ को इसमें से कुछ भी रास नहीं आया।

संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बी. आर. आंबेडकर और संविधान की आलोचना में संघ ने कोई कसर नहीं छोड़ी। दशकों तक भारत के राष्ट्रीय ध्वज को नहीं स्वीकार किया। मुझे नहीं पता यह स्वाधीनता संघर्ष में अपने ‘शून्य’ योगदान का अवसाद था या पूरे तृतीय विश्व के देशों के लिए आदर्श बन चुके हमारे स्वाधीनता आंदोलन के मूल्य और सेनानानियों की ख्याति से उत्पन्न ईर्ष्या। लेकिन यह जो भी था इसने खुद को आज़ाद भारत में एक ढेर के रूप में मज़बूती से स्थापित कर लिया। एक ढेर जो समय के साथ इतना शक्तिशाली हो गया कि कंगना रनौत जैसी अभिनेत्रियाँ अपने दुस्साहस की शक्ति और प्रेरणा यहीं से ले रही हैं और लगातार ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ में लिपटी अपनी घृणा और लालच का मंचन कर रही हैं।

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पृथ्वी पर जीवित व्यक्ति वायु के अस्तित्व को नकार दे, ज़मीन पर चलने वाला धरातल के अस्तित्व को नकार दे और एक सुव्यवस्थित घर में रहने वाला छत के अस्तित्व को नकार दे तो उससे कोई प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए। साथ ही अगर एक मछली जो जल के अस्तित्व को नकार दे उससे जल की केमिस्ट्री के बारे में कोई आशा करना निर्लज्ज आशावाद है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति के साथ संवेदना प्रकट करना चाहिए न कि देशद्रोह की कार्यवाही की माँग।

कंगना रनौत का एक राष्ट्रीय टीवी चैनल पर कार्यक्रम के दौरान 15 अगस्त 1947 की आज़ादी को 'भीख' कहना ऐसी ही मछली की एक मानसिक अवस्था है। कंगना एक भारतीय नागरिक हैं उन्होंने क्या कहा इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जिस प्लेटफ़ॉर्म पर कहा वहाँ के लोगों ने कैसे तर्कसंगत तरीक़े से उनका प्रतिवाद किया।

यह भी महत्वपूर्ण है कि जो सत्ता किसी भारतीय कलाकार को पद्मश्री दे रही है वह कम से कम यह तो सुनिश्चित करे कि यह पुरस्कार कम से कम उस व्यक्ति को तो न मिले जो भारत के वर्तमान अस्तित्व, नागरिक स्वतंत्रता और उपलब्धियों को नकारने पर आमादा है।

यह संदेश न जाने पाए कि भारत को नकारने वाले को भारतीय सरकार पुरस्कृत कर रही है। क्या यह भारत को नकारे जाने का पुरस्कार था? या पुरस्कार के बाद भारत को नकारने का प्रोत्साहन?

महात्मा गाँधी ने हरिजन,14/05/38, में लिखा “अगर हिंसा के तरीकों में बहुत ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है तो यह समझ लें कि अहिंसा में और भी ज़्यादा ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है”। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लगभग 200 वर्षों के टकराव के बाद भारत को आज़ादी मिली और अगर कोई इस आज़ादी को नकारता है तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं बल्कि वैचारिक हिंसा का उदाहरण है। एक ऐसी हिंसा जिसने सभी ‘भारतीयों’ को एक साथ चोटिल कर दिया। यह ऐसा ही है जैसे कोई जमींदार किसी खेतिहर मज़दूर की दिनभर धूप में की गई शरीरतोड़ मेहनत को शाम को नकार दे, और अगर उसे पैसे दे भी तो वो भी भीख समझकर। तब ऐसे में जमींदार वैचारिक हिंसा का दोषी माना जाना चाहिए। ऐसी हिंसा से निपटने के लिए और भी अधिक अहिंसा की ट्रेनिंग की ज़रूरत होगी। 

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यह गाँधी का देश है, उत्तर भी गाँधीवादी होना चाहिए न कि महिला और अभिनेत्री के रूप में कंगना की गरिमा को चोटिल करना। सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जो ऐसा मौक़ा मिलते ही अपने दल और विचारधारा के इतर एक पुरुष बनकर एक महिला का अपमान करना शुरू कर देते हैं। कंगना एक अभिनेत्री हैं, उन्हें अपने करिअर के दौरान विभिन्न किरदार निभाने का अवसर मिला होगा। हर किरदार अलग कपड़ों, डायलॉग, और अलग भाव भंगिमाओं की मांग करता है। ऐसे में कंगना के द्वारा निभाए गए किसी चरित्र की कुछ तसवीरें लेकर उन्हें सोशल मीडिया में दुष्प्रचारित करते हुए उन्हें गाली देना और अपमानित करना उससे ज़्यादा हिंसक है जितनी हिंसा कंगना ने स्वाधीनता आंदोलन को नकार कर की है।  

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शायद कंगना नहीं महसूस कर पा रही होंगी कि औपनिवेशिक और विस्तारवादी सत्ताएँ भीख में लोकतंत्र नहीं दिया करती हैं। जनआन्दोलन औपनिवेशिक सत्ता के लिए फॉगिंग मशीन की तरह काम करते हैं। भारत को मिली आज़ादी न किसी विश्व युद्ध का परिणाम थी और न ही एक शोषणकारी सत्ता के हृदय परिवर्तन से उपजी भीख का। भारत की आज़ादी उस अनवरत संघर्ष का परिणाम थी जो कमजोर और ढहते हुए भारतीय शासकों के बाद से लगातार जारी था। 

‘संन्यासी विद्रोह’ के रूप में क्षेत्रीय संघर्ष और 1857 का ‘पहला स्वाधीनता संग्राम’ दुर्गम यात्रा पूरी करके ‘असहयोग’, ‘सविनय’ और ‘भारत छोड़ो’ के रास्ते 15 अगस्त 1947 को अपने मंजिल पर आ पहुँचा था। यह मंजिल ही आज़ादी थी, जिसे हमें अपने वर्तमान और भविष्य के लिए संवारना था न कि 75 सालों बाद अपनी इस उपलब्धि को नकारना।

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वंदिता मिश्रा
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