उत्तराखंड में बीजेपी ने अपने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को क्यों बदला? उनकी जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री क्यों बनाया? तीरथ सिंह विधायक भी नहीं हैं, सांसद हैं, फिर भी उन्हें क्यों लाया गया? एक रावत की जगह दूसरे रावत को क्यों लाया गया? इन सवालों के जवाब जब हमें ढूंढेंगे तो उनमें से बीजेपी ही नहीं, देश के सभी दलों के शीर्ष नेताओं के लिए कई सबक निकलेंगे।
सबसे पहला सबक तो यही है कि किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि वह शासक है यानी वह बादशाह बन गया है। सारे सांसदों, विधायकों और जनता को उसकी हुकुम उदुली करनी ही है। मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही खुद को देश का प्रधान सेवक कहा था। यही कसौटी है। हर पदारुढ़ नेता को चाहिए कि वह अपने को इसी कसौटी पर कसता रहे।
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एक सांसद को बीजेपी ने इसलिए मुख्यमंत्री बनाया है कि वह विधायकों में से मुख्यमंत्री बना देती तो उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या सरकार को ले डूबती। तीरथ सिंह रावत को यह मौका इसलिए मिला है कि वे अजातशत्रु हैं। वे विनम्र और शिष्ट व्यक्ति हैं और जनता से जुड़े हुए हैं।
उत्तराखंड के 70 विधायकों में से 40 गढ़वाल क्षेत्र से आते हैं। तीरथ गढ़वालियों के प्रिय नेता हैं। वे अफसरों के हाथ की कठपुतली नहीं हैं। नेताओं और नौकरशाहों में यदि वे ठीक से तालमेल बिठा सके तो 2022 के चुनाव में बीजेपी दोबारा जीत सकती है।
तीरथ सिंह रावत को अपनी योग्यता की परीक्षा के लिए सिर्फ एक-डेढ़ साल ही मिला है। इस अल्प अवधि में उत्तराखंड के विकास के लिए कुछ चमत्कारी कदम उठाना और पार्टी की एकता बनाए रखना, ये बड़ी चुनौतियां उनके सामने हैं।
वे उत्तराखंड की बीजेपी के अध्यक्ष रहे हैं और बचपन से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक रहे हैं। केंद्रीय नेताओं से भी उनके संबंध घनिष्ठ हैं। इस चुनावी-चुनौती के दौर में कोई भी बीजेपी विधायक उनका विरोध नहीं कर पाएगा।
अगले चुनाव के बाद उत्तराखंड की बीजेपी में कई ऐसे वरिष्ठ नेता हैं, जो मुख्यमंत्री पद पर आसीन होना चाहेंगे। त्रिवेंद्र सिंह रावत भी गढ़वाली हैं। वे अपनी असमय पदमुक्ति को क्या चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे? वे चाहे जो करें, लेकिन उनकी पदमुक्ति ने देश के सभी पदारुढ़ नेताओं को तगड़ा सबक सिखा दिया है।
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