अब से 30 साल पहले जब बाबरी मसजिद विवाद ने बहुत जोर पकड़ लिया था, तब नरसिंहराव सरकार बाबरी मसजिद के विवाद को तो हल करना चाहती थी, लेकिन इस तरह के शेष सभी विवादों को विराम देने के लिए वह 1991 में एक क़ानून ले आई। इस क़ानून के मुताबिक़, देश के हर पूजा और तीर्थ स्थल जैसे हैं, उन्हें वैसे ही बनाए रखा जाएगा, जैसे कि वे 15 अगस्त 1947 को थे।
मंदिर-मसजिद : विचार-मंथन ज़रूरी
- विचार
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- 14 Mar, 2021

सवाल यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय 1991 का क़ानून रद्द कर देगा तो देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा या नहीं? सैकड़ों-हज़ारों मसजिदों, दरगाहों और क़ब्रिस्तानों को तोड़ने के आन्दोलन उठ खड़े होंगे। देश में सांप्रदायिकता की आँधी आ जाएगी। मेरी अपनी राय है कि मंदिर-मसजिद के मामले हिंदू-मुसलमान के मामले हैं ही नहीं। ये मामले हैं- देशी और विदेशी के!
पूजा स्थल क़ानून को चुनौती
अब इस क़ानून को वकील अश्विन उपाध्याय ने अदालत में चुनौती दी है। उनके तर्क हैं कि मुसलमान हमलावरों ने देश के सैकड़ों-हज़ारों मंदिरों को तोड़ा और भारत का अपमान किया। अब उसकी भरपाई होनी चाहिए। उसे रोकने का 1991 का क़ानून इसलिए भी ग़लत है कि एक तो 15 अगस्त 1947 की तारीख मनमाने ढंग से तय की गई है। उसका कोई आधार नहीं बताया गया।