‘लोकतंत्र’ इस शब्द को बोलते हुये ही नहीं, इस को जीने की तमन्ना की थी तब जब हमारी पीढ़ी जन्म ले रही थी और हमारे माता-पिता की पीढ़ी अंग्रेजों के शासन की मार से विकल किसी तरह राहत की आशा में हाथ पाँव मार रही थी। आदमी के मरने से पहले आशा नहीं मरती और जब तक आशा नहीं मरती संघर्ष घुटने नहीं टेकता क्योंकि जीवित अवस्था में साहस जितना होता है संघर्ष उतना ही सघन होता जाता है।
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ विद्रोह भी तो लोकतांत्रिक मुहिम है!
- विचार
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- 10 Dec, 2020


मैत्रेयी पुष्पा
यह सच लगता है कि अब समाज में दलित-शोषित और वंचित जैसी जनसंख्या अलग से नहीं, नेता-मंत्रियों और सांसदों-विधायकों जैसे नगीनों को छोड़कर सारी जनता दीन-हीन अवस्था में जा रही है क्योंकि उसका धन और बल लूट लिया गया है! लुटे हुये लोग अपनी विपदा में of the people, for the people and by the people का लोकतांत्रिक सिद्धांत भूल जाते हैं। वे खुद को तानाशाहों के मातहतों के अलावा क्या समझें?
मैं कहना यह चाहती हूँ कि गोरों की राजनीति और शासननीति के आमने सामने हम भारतीयों का संघर्ष कई कई रूपों में प्रकट हुआ। उनमें से जो रूप मुख्य था वह आन्दोलन था, सत्याग्रह था, अनशन था और उपवास था। सेना लेकर मार काट की लड़ाई नहीं थी। यह शासक का सामना करने और चुनौती देने का नया रूप था। लेकिन शासक तो शासक होता है, यह जो शान्तिपूर्वक संघर्ष का रास्ता था, अंग्रेजों को बहुत बेचैन करने लगा, इसको फ़तह कैसे किया जाये? साहब बहादुरों के सलाहकारों में बेचैनी बढ़ने लगी, अंग्रेज़ी निज़ाम में खलबली मच गयी।
मैत्रेयी पुष्पा
मैत्रेयी पुष्पा जानी-मानी हिंदी लेखिका हैं। उनके 10 उपन्यास और 7 कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'चाक'