ऐसा मान लेना ठीक नहीं होगा कि लगभग 183 अरब रुपए की हैसियत वाली मुंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में जो कुछ बड़े लोग इस वक़्त डरे हुए हैं, उनमें आमिर खान भी एक हो सकते हैं। वैसे लोगों की जानकारी में है कि फ़िल्म ‘पीके’ में अपने न्यूड पोस्टर और कथित तौर पर देवी-देवताओं का मखौल उड़ाने के कारण जब से आमिर खान कट्टरपंथियों के निशाने पर आए हैं, वे तब से काफ़ी सोच-समझकर ही बात करने लगे हैं।
याद किया जा सकता है कि ‘तारे ज़मीन पर’ फ़ेम अभिनेता ने कोई सात साल पहले यह तक कह दिया था कि असहिष्णुता के माहौल के चलते उनकी पत्नी (अब पूर्व) को भारत में रहने में डर लगता है और वह बच्चों को लेकर देश छोड़ना चाहती हैं। उनके इस कथन को लेकर तब बवाल मच गया था।
यहाँ आमिर खान का उल्लेख ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने ज़रूरी बनाया है। आमिर ने कहा है कि : “वे इस फ़िल्म को ज़रूर देखेंगे क्योंकि वह हमारे इतिहास का एक ऐसा हिस्सा है जिससे हमारा दिल दुखा है। जो कश्मीर में पंडितों के साथ हुआ वो हक़ीक़त में बहुत दुख की बात है। एक ऐसी फ़िल्म बनी है, उस टॉपिक पर वह यक़ीनन हर हिंदुस्तानी को देखनी चाहिए। हर हिंदुस्तानी को यह याद करना चाहिए कि एक इंसान पर जब अत्याचार होता है तो कैसा लगता है।”
बहस का विषय यह है कि जो बहुचर्चित फ़िल्म इस समय हमारी आँखों के सामने तैर रही है उसे आज़ादी (या विभाजन) की किसी नई लड़ाई की शुरुआत माना जाए या उसका समापन मान लिया जाए?
दूसरे शब्दों में बयान करना हो तो सभी प्रकार के वंचितों और पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में इसे पहली फ़िल्म माना जाए या अंतिम फ़िल्म?
इसमें आमिर खान से पूछे जा सकने वाले इस सवाल को भी जोड़ा जा सकता है कि इसी तरह के कथानक और दृश्यों वाली किसी और फ़िल्म में वे काम करना पसंद करेंगे या नहीं?
मैंने कुछ ऐसे ग़ैर-पंडित कश्मीरी लोगों से बात की जो स्वयं तो देश के दूसरे हिस्सों में काम कर रहे हैं पर उनके सगे-सम्बन्धी घाटी में ही हैं। जब जानना चाहा कि फ़िल्म को लेकर जो चल रहा है उस पर घाटी में किस तरह की प्रतिक्रिया है तो उन्होंने कहा कि फ़िल्म कश्मीर घाटी में तो अभी देखी नहीं गई है, पर लोगों ने आपसी बातचीत में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ दी हैं!
पहली तो यह कि पंडितों के पलायन के मुद्दे को अब एक राजनीतिक हथियार बनाकर लम्बे समय तक जीवित रखा जाएगा। दूसरी यह कि अगर फ़िल्म को घाटी छोड़कर गए पंडितों का भी सत्तारूढ़ दल के लोगों की तरह ही समर्थन हासिल है तो फिर मान लिया जाना चाहिए कि वे अपने ख़ाली पड़े हुए घरों में लौटना ही नहीं चाहते हैं। मुमकिन है कि पिछले तीन दशकों के दौरान कुछ तो अपनी मेहनत और बाक़ी में सरकारी मदद के ज़रिए उन्होंने इतना कुछ प्राप्त कर लिया है कि अब घाटी में लौटकर नए सिरे से ज़िंदगी प्रारम्भ करना उन्हें ज़्यादा जोखिम का काम लगे। उनका यह भी कहना है कि जो पंडित इस वक़्त घाटी में ही रह रहे हैं उनकी फ़िल्म को देखने में कोई रुचि है ऐसा ज़ाहिर नहीं होता।
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बीजेपी संसदीय बोर्ड की पिछले दिनों हुई बैठक में प्रधानमंत्री ने फ़िल्म को लेकर दो महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की थीं। एक तो यह कि : “पहली बार किसी ने जब महात्मा गांधी पर फ़िल्म बनाई और पुरस्कार पर पुरस्कार मिले तो दुनिया को पता चला कि महात्मा गांधी कितने महान थे।” उनकी दूसरी टिप्पणी यह कि : “बहुत से लोग फ़्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात तो करते हैं लेकिन आपने देखा होगा कि इमर्जेन्सी पर कोई फ़िल्म नहीं बना पाया क्योंकि सत्य को लगातार दबाने का प्रयास होता रहा। भारत विभाजन पर जब हमने 14 अगस्त को एक ‘हॉरर डे’ के रूप में याद करने के लिए तय किया तो बहुत से लोगों को बड़ी दिक़्क़त हो गई।”
‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ के संबंध में संसदीय बोर्ड में कहे गए प्रधानमंत्री के कथन को उनके द्वारा पिछले साल पंद्रह अगस्त के दिन लाल क़िले से दिए गए भाषण के प्रकाश में देखें तो चीजें ज़्यादा साफ़ नज़र आने लगेंगी। उन्होंने कहा था : “देश के बँटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफ़रत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। उन लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में। 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया है।”
सच्चाई यह है कि डर अब ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ देखने को लेकर नहीं बल्कि इस बात पर सोचने से ज़्यादा लग रहा है कि अब अगर विभाजन की ‘वास्तविकता’ पर फ़िल्में बनाई गईं तो वे कैसी होंगी? क्या विभाजन की त्रासदी पर (‘तमस’ सहित) अब तक बनाई गईं तमाम फ़िल्में ‘वास्तविकताओं’ से एकदम दूर थीं या फिर उनमें उस हिंदू राष्ट्रवाद का अभाव था जिसे कि इस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरी समझा जा रहा है? अगर यही सच है तो बहुत सम्भव है विभाजन की वास्तविकता का बखान करने वाली फ़िल्मों के कथानकों पर काम भी शुरू हो गया हो।
पाकिस्तान स्थित सिखों के पवित्र तीर्थ स्थल करतारपुर साहिब की यात्रा के लिए तब पंजाब में बन रहे कॉरिडोर को लेकर प्रधानमंत्री ने कोई पाँच साल पहले गुरु पर्व पर भावना व्यक्त की थी कि अगर बर्लिन की दीवार गिर सकती है तो यह दीवार क्यों नहीं?
प्रधानमंत्री का इशारा करतारपुर कॉरिडोर के लिए पाकिस्तान के साथ सीमा को खोलने को लेकर था पर उसका व्यापक अर्थ दोनों देशों के बीच विभाजन के कारण खड़ी हुई दीवार को गिराने की भावना से भी लिया गया था। विभाजन की वास्तविकताओं के घावों को सिनेमाई परदों पर दिखने का मतलब अब यही समझा जाएगा कि केवल सीमाओं पर ही नहीं घरों के बीच भी लाखों-करोड़ों नई दीवारें खड़ी हो सकती हैं।
अंत में : साल 1947 की प्रमुख घटनाओं में भारत को आज़ादी का मिलना तो सर्वज्ञात है पर एक अन्य घटना यह है कि दुनिया के सबसे घातक हथियार एके47 की पहली किस्त उसके आविष्कारक मिख़ाइल क्लाशनिकोव ने रूसी सेना को अपने हथियारों में शामिल करने के लिए सौंपी थी। अपने आविष्कार पर आजीवन गर्व करने वाले क्लाशनिकोव का जीवन के अंतिम दिनों (निधन 2013) में हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च के प्रमुख को लिखे पत्र में कहा : “मेरी आत्मा की पीड़ा असहनीय हो गई है। मैं बार-बार अपने आपसे अनुत्तरित सवाल पूछता हूँ: मेरे द्वारा बनाई गई असाल्ट राइफ़ल से लोगों की जानें गईं, इसका मतलब है उनकी मौतों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ।”
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