आखिरकार हक़ीक़त सामने आ ही गयी। आरएसएस ने जातिवार जनगणना के विरोध की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। कुछ दिन पहले नागपुर के संघ मुख्यालय में हुई बीजेपी और शिवसेना (शिंदे गुट) के विधायकों को संबोधित करते हुए आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक और विदर्भ प्रांत के प्रमुख श्रीधर घाडने ने साफ़ कहा, “हम इसमें कोई फ़ायदा नहीं बल्कि नुकसान देखते हैं। यह असमानता की जड़ है और इसे बढ़ावा देना उचित नहीं है।”
इस बयान को ग़ौर से पढ़ने पर इसमें छिपे विरोधाभास को पकड़ना मुश्किल नहीं है। एक तरफ़ श्रीधर घाडगे मानते हैं कि जाति असमानता की जड़ है लेकिन दूसरी तरफ़ जाति जनगणना को असमानता को बढ़ावा देने वाला मानते हैं। यानी उनके अनुसार असमानता जैसी बीमारी पर बात करना, उसके इलाज के उपाय तलाशना बीमारी को बढ़ावा देना है। दिलचस्प बात ये भी है कि वे इसमें फायदा नहीं नुकसान देख रहे हैं। सवाल है कि जाति जनगणना होने से फायदा किसका है और नुकसान किसका होगा?
बिहार में हुई जाति जनगणना के निष्कर्ष आने के बाद नीतीश सरकार ने अब तक पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग को मिल रहे 30 प्रतिशत आरक्षण को 43 फीसदी आरक्षण कर दिया। अनुसूचित जाति का आरक्षण 16 फीसदी से बढ़ाकर 20 फ़ीसदी कर दिया और अनुसूचित जनजाति का आरक्षण एक फ़ीसदी से बढ़ाकर दो फ़ीसदी कर दिया। केंद्र द्वारा दिया गया आर्थिक आरक्षण 10 फ़ीसदी इसके अलावा रहेगा। यानी आरक्षण की सीमा 75 फ़ीसदी करने का प्रस्ताव किया गया है। बिहार जाति जनगणना के नतीजे बताते हैं कि वहाँ कुल आबादी का 27 फ़ीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग, 36 फ़ीसदी अत्यंत पिछड़ा वर्ग है यानी कुल आबादी का 63 फ़ीसदी। अनुसूचित जाति की आबादी 19 फ़ीसदी और जनजाति की आबादी 1.68 फ़ीसदी है। अनारक्षित वर्ग की संख्या 15.52 फ़ीसदी निकली है जिसमें ऊँची जाति के मुसलमान भी शामिल हैं। यही नहीं, जाति जनगणना से यह भी साबित हुआ है कि ज़मीन के मालिकाने से लेकर नौकरियों तक में वही वर्ग छाये हुए हैं जिनकी आबादी बेहद कम है।
स्पष्ट है कि जाति जनगणना के नतीजे में आरक्षण बढ़ने का “फायदा’ पिछड़े, दलित और जनजाति समूहों को हुआ है। अगर आरएसएस इसमें ‘नुकसान’ देख रहा है तो स्पष्ट है कि वह किसके फ़ायदे के लिए काम करता है। जाति जनगणना हजारों साल की लूट को बेपर्दा कर रही है, जिससे वह बिलबिलाया हुआ है और इस कवायद को असमानता बढ़ाने वाला बता रहा है जबकि इससे असमानता को कम करने की नीतियाँ बनाने में मदद मिलेगी।
आरएसएस की इस उलटबाँसी में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। आरएसएस शुरू से वर्णव्यवस्था का पोषक रहा है। इस शोषणकारी व्यवस्था पर उठने वाले सवालों को ‘हिंदू एकता को तोड़ने की कोशिश’ बताता रहा है। संघ शिविर के परम पूजनीय विनायक दामोदर सावरकर अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ में साफ़ कहते हैं कि ‘वर्ण व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है।’ इतना ही नहीं, वे यह भी कहते हैं कि ‘जिस देश में चातुर्यवर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है। आर्यावर्त अलग है।’
यानी अगर देश में वर्णव्यवस्था (जिसका अर्थ जाति की श्रेष्ठताक्रम को स्वीकार करना ही है) नहीं होगी तो यह ‘म्लेच्छ’ बन जायेगा। सावरकर शूद्रों और स्त्रियों की गुलामी के नियम रचने वाली मनुस्मृति को ‘हिंदू लॉ’ बताते हैं जिस पर भविष्य का ‘हिंदू राष्ट्र’ आधारित होगा। 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को मंज़ूरी दी थी और आरएसएस के मुखपत्र ‘द आर्गनाइज़र’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में छपे संपादीय में कहा गया था— ‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली है। इसमें प्राचीन भारत के अद्वितीय कानूनों के विकास का भी उल्लेख नहीं है, जैसे मनु के कानूनों का, जो स्पार्टा के लाइकुर्गुस या पर्शिया के सोलोन से भी बहुत पहले लिखे गए थे। आज मनुस्मृति के कानून दुनिया को प्रेरित करते हैं. किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है।’
मनुस्मृति के प्रति यह प्रेम बीजेपी के सत्ता में आने पर कई गुना बढ़ जाता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मनुस्मृति की प्रतिष्ठा के लिए लगातार कोशिशें की गयीं। संघ से जुड़े संस्कार भारती जैसे संगठनों ने इसके लिए तमाम कार्यक्रम आयोजित किये। हद तो ये है कि 10 दिसंबर 2017 को जयपुर में ‘मनु प्रतिष्ठा समारोह’ आयोजित किया गया जिसमें आरएसएस के प्रमुख नेता इंद्रेश कुमार मुख्य अतिथि थे। उन्होंने मनु को सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में ‘विश्व का प्रथम विधिवेत्ता’ बताया था।
आरएसएस की यह कोशिश समता, समानता और बंधुत्व जैसे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के संकल्पों को उलट देने वाली है। संविधान निर्माता डॉ.आंबेडकर ने अपने सामाजिक समानता के संघर्ष में मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन किया था। यही वजह है कि डा.आंबेडकर का आरएसएस और उससे जुड़ी संस्थाओं ने उनके जीते-जी भरपूर विरोध किया। हिंदू कोड बिल लाने के विरोध में तो डॉ.आंबेडकर के पुतले तक फूँके गये थे। जिस मनुस्मृति आधारित हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को लेकर आरएसएस आगे बढ़ रहा है, वह डा.आंबेडकर की नज़र में एक विपत्ति है। डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है तो बेशक इस देश के लिए एक भारी ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा. हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है. इस आधार पर लोकतंत्र के अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।"
जाति जनगणना से ‘नुकसान’ को भाँपकर ही सार्वजनिक सभाओं में खुद को ओबीसी बताने वाले और दलित और आदिवासी को राष्ट्रपति बनाने के लिए अपनी पीठ ठोंकने वाले प्रधानमंत्री मोदी अब कह रहे हैं कि सिर्फ़ गरीब, युवा, महिला और किसान ही जाति हैं। जिस देश में दलितों को घोड़ी चढ़ने पर पीटा जाता है और आदिवासी के सर पर खुलेआम पेशाब किया जाता है वहाँ जाति और उससे जुड़े मान-अपमान का प्रधानमंत्री के लिए कोई अर्थ नहीं रह गया है। दरअसल, पीएम मोदी जानते हैं कि राहुल गाँधी की ‘जितनी आबादी उतना हक़’ का नारा अगर परवान चढ़ा तो मनुस्मृति की प्रतिष्ठा का विराट अभियान धूल-धसरित हो जाएगा।
लेकिन जातिजनगणना की जरूरत और इससे होने वाले ‘फायदे’ का अंदाज़ा देश की 85 फीसदी जनता को हो चुका है। वह जाति की मौजूदगी को नकारते हुए जाति श्रेष्ठता को बनाये रखने छल को अच्छी तरह समझती है। मनुस्मृति के पूजकों और डॉ.आंबेडकर के अनुयायियों के बीच आने वाले दिनों में तीखा संघर्ष तय है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)
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