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अब तक की जाँच से यह साफ़ हो गया है कि 13 दिसंबर में संसद में घुसकर नारेबाज़ी करने वाले युवा और उनके साथियों का न कोई आपराधिक रिकॉर्ड है और न ही वे किसी संगठन के कार्यकर्ता हैं। इनमें से ज़्यादातर उच्च शिक्षित बेरोज़गार हैं और देश के हालात से चिंतित हैं। भगत सिंह को अपना आदर्श मानने वाले इन युवाओं को अच्छी तरह पता था कि पकड़े जाने पर उनके साथ क्या होगा और वे मानसिक रूप से इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार होकर संसद में गये।
इस घटना के बाद ज़्यादातर लोगों ने यह कहकर सुकून जताया कि आरोपित लड़के ‘मुसलमान’ नहीं हैं वरना बीजेपी पूरे देश में किस कदर सांप्रदायिक उन्माद फैलाती, उसकी महज़ कल्पना की जा सकती है। संसद परिसर में ‘तानाशाही मुर्दाबाद’ और ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाने वाले इन युवाओं के प्रति एक तरह की सहानुभूति भी देखी जा रही है। उनके घर वालों ने भी कहा है कि वे बेरोज़गारी से परेशान थे और दूसरे जानने वाले भी उन्हें शरीफ़ और पढ़े-लिखे नौजवान ही बता रहे हैं। अपने बयानों के लिए चर्चित रहने वाले जस्टिस मार्कंडेय काटजू सहित तमाम लोगों ने इन ‘दिग्भ्रमित’ युवाओं के साथ नरमी से पेश आने की अपील की है, हालाँकि पुलिस ने उन पर यूएपीए की धारा लगाकर उन्हें आतंकवादियों के समकक्ष रख दिया है।
इसमें कोई शक़ नहीं कि इन नौजवानों ने अपने दुस्साहस से देश भर मे सनसनी फैला दी, लेकिन वे शायद भूल गये कि यह 1929 नहीं 2023 है। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘बुलेट की जगर बैलेट’ की नीति पर चलते हुए असेंबली में नुकसान न पहुँचाने वाले बम फेंके थे। उनका इरादा गिरफ्तारी देकर अपने विचारों को फैलाने और आज़ादी के सवाल की गंभीरता को चर्चा में लाना था। उस समय चली अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग के ज़रिए मीडिया ने ये किया भी था। भगत सिंह जनमानस में छा गये थे। लेकिन 2023 में हालात उलट हैं। मीडिया का बड़ा हिस्सा किसी अपराध-कथा की तरह इस घटना की रिपोर्टिंग कर रहा है। ‘मास्टरमाइंड की तलाश’ से लेकर ‘राष्ट्रविरोधी कनेक्शन’ जैसी बातें सुर्खियों में है। अगर नहीं है तो बेरोज़गारी का वो मुद्दा जिसे केंद्र में लाने के लिए इन युवाओं ने ऐसी सनसनीख़ेज़ घटना को अंजाम दिया।
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने इस घटना को नौजवानों की हताशा और बेरोज़गारी और बढ़ती महँगाई से जोड़ा है लेकिन मीडिया में ऐसी बातों के लिए अब खास जगह नहीं है। विभाजनकारी मुद्दों को छोड़कर वह बेरोज़गारी पर चर्चा करेगा और दस साल पहले हर साल दो करोड़ नौजवानों को रोजगार देने के वायदे के साथ सत्ता संभालने वाले प्रधानमंत्री मोदी पर सवाल उठायेगा, यह सवाल ही हास्यास्पद हो चुका है। लेकिन ये शुतुरमुर्गी रवैया देश पर भारी पड़ सकता है।
मोदी सरकार बेरोज़गारी को घटाकर दिखाने के लिए आंकड़ों में जमकर हेराफेरी करती है फिर भी हक़ीक़त कहीं न कहीं से सामने आ ही जाती है। यह स्पष्ट है कि योग्यतानुसार काम मिलने की संभावना लगातार कम होती जा रही है जिससे युवाओं में हताशा बढ़ रही है।
नौजवानों की हताशा उनमें आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति से भी समझा जा सकता है। फरवरी 2022 में गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एनसीआरबी के आँकड़ों के आधार पर बताया था कि 2018 से 2020 के बीच बेरोज़गारी के कारण 9140 युवाओं ने आत्महत्या की थी। किसी भी संवेदनशील समाज के लिए इसे खतरे की घंटी की तरह लेना चाहिए। यह मसला चुनावी जीत-हार के विमर्श से अधिक ध्यान देने की माँग करता है।
संसद के अंदर घुसे सागर शर्मा की सोशल मीडिया में वायरल डायरी के एक पन्ने में लिखा है, 'मैं केवल अपने देश के लिए और इसकी पूर्ण स्वतंत्रता के लिए काम करता हूं। बलात्कार, भ्रष्टाचार, भूख, हत्या, अपहरण, तस्करी, धर्म के लिए लड़ाई जैसी चीजें देश के हित के खिलाफ हैं। मैं अमीर नहीं हूं, मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूं। मुझे कुछ ऐसे दोस्तों की जरूरत है जो देश के लिए काम करने के प्रति ईमानदार हों।“
ग़ौर करें तो इन पंक्तियों में भगत सिंह का वह ऐतिहासिक ऐलान झलक रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि “हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का हर स्वरूप खत्म नहीं हो जाता। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लूटने वाले गोरे हैं या काले।“
संसद में इस तरह घुसने की सज़ा इन नौजवानों को मिलेगी इसमें संदेह नहीं, लेकिन इनके सवालों की अनदेखी हुई तो सज़ा पूरी व्यवस्था भुगतेगी, इसमें भी संदेह नहीं है। इन युवाओं ने संसद में जो रंगीन धुआँ छोड़ा था, वह अब छँट चुका है। बेहतर है कि बेरोज़गारी के मुद्दे पर पूरी संसद गंभीरता से विचार करे वरना इस धुएँ को सड़क पर फैलने से कोई रोक नहीं सकता।
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