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बीजेपी से ज़्यादा आरएसएस में ही बदलाव की ज़रूरत?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर अपने उद्बोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल में सम्पन्न लोकसभा चुनावों को लेकर जो कुछ कहा उससे असहमति मुश्किल है। अच्छी-अच्छी बातें हैं, संभवत: अच्छी मंशा से भी कही गई हैं लेकिन समय और अवसर गलत चुने जाने से उनका प्रभाव शून्य ही दिखाई दे रहा है।

टोकने-रोकने का काम समय पर होना चाहिए, ग़लती होने के बाद नहीं। मोदी विरोधी लोग (पक्ष और प्रतिपक्ष के) इन बातों से प्रसन्न हैं तो नरेंद्र मोदी शुरुआती खटकों के बाद अपने पुराने रंग में लौट गए हैं। चार सौ पार के नारे के बाद 63 सीटें गँवाकर भी उनकी भाजपा न सही एनडीए सरकार बन गई है, सब कुछ पूर्ववत हो चुका है और उनके कटाक्षपूर्ण और हवाई बातों का दौर शुरू हो गया है। पिछली सरकार के 71 में से 33 लोग ही जनता और उनका भरोसा पाकर मंत्री बने हैं लेकिन वे कब से सभी मंत्रियों से सौ दिन का एजेंडा बनाने की बात करते रहे हैं जिससे विकास की गति बढ़ाई जाए और भारत जल्दी से दुनिया की एक शक्ति बन जाए। नए मंत्रियों को उनके विभाग का पता पहली कैबिनेट की बैठक में ही चला लेकिन विजन दस्तावेज की मांग पहले से शुरू हो गई थी। एनडीए के सहयोगी दल भी उनके आभामंडल के आगे नतमस्तक लगते हैं।

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और राजनीति का क ख ग समझने वाला भी जानता है कि भागवत जी ने जिस मर्यादा का, प्रतिपक्ष के आदर का, चुनाव में घटिया और समाज को नुकसान पहुंचाने वाली बातें उठाने की शिकायत का, मणिपुर की सुनवाई का, अहंकार न करने जैसे जिन मसलों को उठाया वह सीधे सीधे भाजपा के मौजूदा नेतृत्व (खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह) को संबोधित लगती हैं। ऐसी ही एक समीक्षा संघ के मुखपत्र में भी हुई है और उसमें भी भाजपा नेतृत्व को भरपूर कोसा गया है। और ऐसा भी नहीं है कि नरेंद्र मोदी ऐंड कंपनी ने जनादेश की परवाह नहीं की है। और नतीजे आने के बाद उनकी भाव भंगिमा बदली भी थी। अमित शाह खुद ही राजनाथ सिंह, जेपी नड्डा, नीतीश और नायडू को मोदी के पास की जगह देने लगे और मोदी जी को भी अपने फ्रेम में इन चेहरों के आने से कोई परेशानी नहीं लगी। लेकिन उससे भी बड़ा बदलाव मंत्रिमंडल के गठन में सामाजिक इंजीनियरिंग का दिखा। अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव की सामाजिक इंजीनियरिंग इस बार भाजपा पर भारी पड़ी और बाद में प्रधानमंत्री ने लाख और घटिया स्तर पर उतरकर भी कोशिश की लेकिन चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हो पाया, जबकि जाति का कार्ड असरदार रहा।

सहयोगी दलों को भाव देना, ज्यादा मंत्री बनाना तो एक स्तर पर मजबूरी हो सकती है, लेकिन इस सोशल इंजीनियरिंग का श्रेय तो पूरी तरह मोदी जी को है। यह चुनावी युद्ध से निकले अनुभव का भी परिणाम है, जबकि संघ की शिक्षा जाति का कोई चीज न होना और इस चलते विशेष अवसर अर्थात आरक्षण की बात भी बेमानी होने की है। मोदी जी के अभियान में भी नई जाति की गिनती कराने की कोशिश की गई लेकिन बे-असर रही। जानकार बताते हैं कि मोदी की पहली कैबिनेट की तुलना में संघ की पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों की संख्या में बीस की कमी की गई है। यह दल बदल भर नहीं माना जा सकता-कहीं न कहीं इसमें अपने लोगों की प्रतिभा और क्षमता कम होने के एहसास के साथ बाहर के प्रतिभाशाली लोगों को अपनाने का दबाव भी काम करता है। 

साफ लगता है कि आने वाले दिनों में सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों में भी बदलाव होगा। कई हो चुके फैसलों पर पुनर्विचार और समीक्षा हो सकती है। लोकसभा के साथ हुए विधानसभा चुनाव में ओडिशा में निर्णायक जीत हासिल करके भी पार्टी ने एक प्रतिभाशाली आदिवासी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी।
यह सब गिनवाने के बाद भी कहना होगा कि मोदी कैबिनेट का असंतुलन बना हुआ है, भाजपा का प्रभुत्व, मुसलमानों से दूरी और लाख नारा लगाने के बावजूद औरतों की दिखावटी भागेदारी है-कार्यक्षमता और योग्यता के मामले में भी नया प्रयोग नहीं हुआ है।
पर परिवार के बुजुर्ग भागवत के कहने का मतलब तो है ही। सबसे बड़ा मतलब तो यह है कि संघ और भाजपा के बीच सब कुछ सामान्य नहीं है। लेकिन इसका ज्यादा बड़ा मतलब यह है कि इस बार की धुलाई न होती, अगर संघ के लोग काम करते। यह असल में संघ को दोषमुक्त करने का बयान है जबकि अहंकार और निजी दुर्गुणों के अलावा ज़्यादातर गलतियां संघ की बुनियादी सोच से आई हैं। जाति को न मानना और पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के प्रति नज़रिए में तो मोदी जी संघ से काफी आगे हैं। उनका मुसलमान द्वेष संघ से मिली घुट्टी का नतीजा है जो पंद्रह-सोलह फीसदी वोटों को उनसे दूर रखता है। और अब इसके बदले कोई हिन्दू ध्रुवीकरण भी नहीं हो पा रहा है। कश्मीर की तीन सीटों की परवाह छोड़कर देश भर में उसे मुद्दा बनाकर राष्ट्रवाद और हिंदूवाद की अलख जगाने का दांव भी अब भारी पड़ रहा है तभी भाजपा को कश्मीर घाटी में उम्मीदवार उतारने की हिम्मत नहीं हुई। देश और संविधान के प्रति पक्का वफादार अब्दुल्ला परिवार और महबूबा की हार हुई और संदेहास्पद पृष्ठभूमि के लोग जीते हैं।
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खुद को विशाल सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ का छुआछूत हटाने और दलितों के प्रति ही नहीं, महिलाओं के प्रति क्या रुख रहा है, यह सर्वज्ञात है। इसलिए अब अगर मोदी को अपने उम्मीदवारों में जीतने लायक मुसलमान, महिला और पिछड़े उम्मीदवार नहीं मिलते और वे निरंतर सवर्ण, हिन्दू और पुरुष प्रधान दल और सरकार चलाते आ रहे हैं तो इसमें जितना कसूर उनका है, संघ का भी उतना ही कसूर है। उनके व्यवहार में लोकतंत्र का निरादर जरूर दिखता है लेकिन खुद संघ कितने लोकतान्त्रिक ढंग से चलता है यह भी सोचना चाहिए। अगर भाजपा और मोदी ने कुछ सार्थक बदलाव लोकतान्त्रिक और चुनावी अनुभवों से किया है तो संघ ने उतना भी नहीं किया है। और सत्ता में आई भाजपा के साथ संघ का और उसके ‘तपे-तपाए’ स्वयंसेवकों के क्या रिश्ते बने हैं, वे किस किस स्तर पर जाकर भाजपा और सत्ताधारी नेताओं की सेवा करते हैं और खुद उनका आचरण कितना बदला है, इस पर भी किसी और से ज्यादा संघ प्रमुख को ही सोचना होगा। और मोरवी या बांग्लादेश के समय वाला सेवाभाव क्यों विदा हो गया है यह तो सोचना ही चाहिए।

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अरविंद मोहन
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