लंबे और थकाऊ चुनाव के बाद आए नतीजे हर बार की तरह कुछ नए हीरो लेकर आए हैं तो कई पुराने महारथियों की राजनैतिक विदाई का संदेश भी। ठीक इसी तरह मतदाताओं ने शासन और राजनीति के लिए भी कुछ एकदम नए संदेश दिए हैं तो कुछ पुराने ढंग-ढर्रे पर अपने अपने ढंग से निर्णय भी सुनाया है। और जाहिर तौर पर राजनेता दिन रात जनता के बीच रहकर भी इन संदेशों को ठीक से नहीं समझते या इनकी उपेक्षा करते हैं तभी हर बार लगभग आधा सदन बदल जाता है, सरकार का स्वरूप बदल जाता है और कई बार तो सरकार बदल जाती है। संयोग है कि इस बार सरकार सीधे सीधे नहीं बदली है, सरकार के मुखिया भी नहीं बदले हैं लेकिन जनादेश का सबसे ज्यादा प्रभाव उनके इकबाल पर ही दिखता है। सहमे सहमे से सरकार नजर आते हैं। और उनके कामकाज के आधार पर जनता ने उनको फेल भले न किया हो लेकिन उनको अपने रंग-ढंग बदलने का जनादेश तो दिया ही है। ऐसा संदेश या आदेश सिर्फ उनके लिए ही नहीं है। पक्ष विपक्ष के लगभग सभी नेताओं के लिए है, बहन मायावती, नवीन पटनायक, चौटाला परिवार और महबूबा मुफ्ती के लिए तो कुछ ज्यादा ही सख्त जनादेश आया है।
लेकिन जाहिर तौर पर सबसे ज्यादा प्रभावी और दूरगामी संदेश नरेंद्र मोदी और उनके जोड़ीदार अमित शाह के लिए है। उनकी उपलब्धियों को लेकर भी शंका जताई गई है लेकिन उनकी कार्यशैली पर ज्यादा सख्त निर्णय आया है। फ़ैसले लेने की प्रक्रिया, मुसलमानों के प्रति उनका रवैया, मुद्दों का चुनाव, विपक्ष से ही नहीं, अपने साथियों के साथ व्यवहार का तरीका और शासन चलाने की शैली पर बहुत साफ निर्णय आया है।
सबका साथ, सबका विकास सिर्फ नारा भर नहीं होना चाहिए यह संदेश नहीं आदेश है और एक ही दिन में प्रधान मंत्री और अमित शाह बदले बदले लगे (उनके इशारों पर नाचने वाले मीडिया में बदलाव और ज्यादा और जल्दी दिखाई दिया)। सबकी ‘फ़ाइल मेन्टेन’ करना, फिर जरूरत के हिसाब से अपनी लोकतान्त्रिक सत्ता के साथ सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग से दबाव बनाना, मीडिया के सहारे और प्रचार पर सरकारी धन खर्च करके अपने पक्ष में हवा बनाने की कोशिश करना, विरोध का निरादर ही नहीं मतदाताओं को फुसलाए जाने की चीज मानना, लोगों का उपयोग करके रद्दी की टोकरी में डालना, मौका पड़ने पर किसी का भी पैर पकड़ लेना (किसानों का उदाहरण सबसे चर्चित है) और निरंतर एक नकली विमर्श चलाते रहना ही इस कार्यशैली की मुख्य बातें हैं। लेकिन आप कुछ लोगों को पूरे समय बुद्धू बना सकते हैं, सबको कुछ समय तक बुद्धू बना सकते हैं लेकिन सबको सदा के लिए बुद्धू नहीं बना सकते।
और बड़े हिसाब से देखें तो यह चुनाव प्रबंधन कौशल से जीतने के अति आत्मविश्वास या घमंड और आम जन की भावनाओं के स्वाभाविक अभिव्यक्ति के बीच का मुकाबला था।
नतीजों ने ज़रूर झटका दिया है लेकिन बदलाव तभी शरू हो गया था जब नीतीश कुमार की पहल पर इंडिया गठबंधन की नींव पड़ी। तब तक भाजपा जाने कितने गीदड़ और एक शेर वाली लाइन चला रही थी।
राहुल, प्रियंका, अखिलेश, उद्धव ठाकरे, तेजस्वी, स्टालिन, ममता, कल्पना सोरेन और शरद पवार की राजनीति को कम नहीं आंकना चाहिए लेकिन यह कहने में हर्ज नहीं है कि यह साधन, सत्ता और मैनेजरों के सहारे चुनाव जीतने के अति आत्मविश्वास और जनता पर भरोसा करने की दो अलग अलग शैलियों की राजनीति का मुकाबला था और भले मोदी जी तिबारा प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं लेकिन उनकी शैली हार गई है। ज्यादा से ज्यादा 240 सीटों तक ही पहुँच पाई। पहले विपक्ष और लोग सहमे थे अब सत्ता पाकर भी मोदीजी और शाह जी सहमे नजर आते हैं।
और आगे इसी चीज पर गौर करना होगा कि कांग्रेस या स्टालिन या अखिलेश गठबंधन की राजनीति पर, जनता पर, देश की विविधता का आदर करने पर भरोसा करते हैं या इस बार की छोटी कामयाबी पर ऐंठकर नुकसान उठाते हैं। पर इनसे ज्यादा बड़ी जिम्मेवारी नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर आई है जिनको राजनीति के साथ सत्ता भी चलानी है। और हमारे मोदी जी को विचार विमर्श, सहयोगियों की राय लेना, उसका आदर करना, विरोध पर भी गौर करना और कम से कम लोगों की राय भी जानना आता ही नहीं जो उनके फैसलों से प्रभावित होते हैं। कश्मीर में यही हुआ, किसानों के साथ यही हुआ, धर्माचार्यों के साथ वही हुआ और मुसलमान तो हिन्दू वोट के लिए चारा ही बनाए गए थे। लोगों का आदर, देश की विविधता का आदर और सबको साथ लेकर चलना उन्हें आएगा या नहीं, यह चिंता की बात है। पर यह रिकॉर्ड भी है कि लाख सख्त दिखने के बावजूद मौका पड़ने पर कोर्स करेक्शन में वही सबसे तेज भी हैं।
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