सातवें चरण का चुनाव आते-आते प्रधानमंत्री और इस चुनाव के सबसे बड़े स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी का स्वर और तीखा हुआ है और वे अपने शासन के दस साल की उपलब्धियों की चर्चा करके चार सौ पार करने और 2047 में भारत को विश्व शक्ति बनाने से लेकर विश्व गुरु जैसी बातें करना छोड़कर घनघोर सांप्रदायिक प्रचार में जुट गए हैं। इसमें वह ऐसी-ऐसी बातें कहने और करने लगे हैं जिसे किसी प्रधानमंत्री के मुंह से सुनने का अभ्यस्त हम में से कोई नहीं रहा है। विपक्ष द्वारा सत्ता में आने पर हिन्दू महिलाओं का मंगलसूत्र छीनने से लेकर भैंस खोलने तक की बातें अब पुरानी हो गई हैं। अब तो मुजरा करने और विपक्ष के शहजादों को पाकिस्तान से समर्थन से लेकर विपक्ष के सत्ता में आने पर हिंदुओं के दोयम दर्जे का नागरिक बनाए जाने की बातें भी वे करते हैं।
उनके पीछे पीछे भाजपा की बाकी फौज भी लगी है। अब विपक्ष के परिवारवाद और भ्रष्टाचार की चर्चा भी नहीं हो रही है और न उसके जातिवाद की। इतना सीधा-सीधा हिन्दू-मुसलमान करना प्रधानमंत्री को शोभा नहीं दे रहा है, यह बात नरेंद्र मोदी जानते न हों, यह मानना मुश्किल है। लेकिन वे ऐसा कर रहे हैं तो क्या इसका कारण चुनाव का उनकी उम्मीद के अनुरूप न जाना है और यह हारे को हरिनाम जैसा मामला है?
बात इतनी सीधी नहीं है और न विपक्ष को यह मानकर बैठना चाहिए कि यह भाजपा के हारने या कमजोर पड़ने का लक्षण है। यह नरेंद्र मोदी की चुनाव लड़ने की शैली है और आखिरी दम तक और हर सीट के लिए सारा प्रयास करने की आदत का हिस्सा है। अपनी मेहनत और मैनेजमेंट से वे कुछ भी बाकी नहीं छोड़ते लेकिन रणनीति में भी बाकी से आगे हैं, यह भी इससे साबित होता है। विपक्ष जितना बिखरा और अव्यवस्थित ढंग से लड़ रहा है उसमें हर जगह, खासकर हिन्दी पट्टी या उत्तर भारत में चुनाव का नजदीकी और दिलचस्प हो जाना ही काफी महत्वपूर्ण है और यह विपक्ष की जगह आम मतदाता की अपनी बढ़ी या बदली चेतना का नतीजा है। नरेंद्र मोदी इससे बेखबर नहीं हैं। उनका स्वर बदलना मतदाताओं के मूड के साथ चुनाव का मतदान के नए इलाके में पहुंचने से भी जुड़ा है।
उत्तर भारत में देश की आधी से ज्यादा सीटें हैं और पंजाब और कश्मीर जैसे इलाक़ों की गिनती छोड़ भी दें तो हिन्दी पट्टी लगभग आधे सांसद भेजता है। अब बंगाल को जोड़ लें तो हिन्दू-मुसलमान विमर्श का मतलब और साफ़ दिखाई देगा। और यह तथ्य बना ही हुआ है कि जब चुनाव उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, कश्मीर, पंजाब और हरियाणा पहुंचा है तो उसके मिजाज में बदलाव आया है। इसकी शुरुआत राजस्थान से हुई थी और मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में बहुत कम रंग दिखा था।
यह रंग है जाति का स्वर ज्यादा तेज होना। भाजपा ने योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह और मोहन यादव जैसों के चुनावी दौरे बढ़ाकर मुकाबला करना चाहा पर वह प्रयास कम पड़ा। जातिवाद को ‘बुराई’ बताने और परिवारवाद से जोड़ना भी जमीन पर असर करता नहीं लगा। तब प्रधानमंत्री ने कांग्रेस समेत विपक्षी सरकारों द्वारा मुसलमानों को आरक्षण देने और ‘मुस्लिम पक्षधरता’ के विमर्श पर खेलना शुरू किया। कुछ दिनों तक विपक्ष को सांप्रदायिक (और मुस्लिम तुष्टीकरण चलाने वाला), जातिवादी और परिवारवादी बताने का अभियान चला। और अंत आते आते खुद को दलितों, ओबीसी आरक्षण का रक्षक और हिंदुओं के हितों के लिए जान लगाने वाला बताने का शोर मचाया गया। संयोग से या प्रबंधकीय कौशल के आधार पर यह स्वर तभी तेज किया गया जब बंगाल, पूर्वांचल और बिहार-झारखंड के उन्हीं इलाकों में चुनाव पहुंचा जहां मुसलमानों की आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा है।
कई बार लगा कि बंगाल में सीएए का मुद्दा मुसलमानों को टीएमसी के पक्ष में गोलबंद कराके नुकसान कर रहा है तब भी हिन्दू-मुसलमान राग अलापना बंद नहीं हुआ।
और इस लेखक का मानना है कि बंगाल में तो नहीं, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और झारखंड जैसे प्रदेशों में जाति का विमर्श सबसे ऊपर रहा और विपक्ष ने भी सांप्रदायिकता के सवाल पर भाजपा से उलझकर उसे ऊपर लाने की जगह महंगाई और बेरोजगारी, किसान-जवान और पहलवान जैसे मुद्दों को ही ऊपर रखा। भाजपा नेतृत्व और उसके रणनीतिकार चाहकर भी जातिगत समीकरणों को बदलने में सफल नहीं हो सके। बिहार में नीतीश कुमार के साथ आ जाने से हल्का सहारा हो गया लेकिन मायावती की अप्रत्यक्ष मदद से ज्यादा लाभ नहीं हुआ। जहां भाजपा के रणनीतिकार चार सौ पार और नरेंद्र मोदी जैसे चमत्कारी नेता को स्थापित करने की रणनीति पर काम करते रहे तभी लालू यादव और अखिलेश ने कुछ नई जातियों को साथ लाकर एक नई सोशल इंजीनियरिंग कर ली। बसपा के गिरने से भी इसमें मदद मिली। और जब शुरुआती चरणों के बाद भाजपा को इसका एहसास हुआ तो उसके पास अपने पुराने हथियार को बार बार घिस कर, पीटकर नई धार देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा। अब भाजपाई विशाल मैनेजमेंट अभियान और यह घिसा-पिटा हथियार उसकी चुनाव की नैया पार लगवाता है या बिखरा, साधनहीन और कार्यकर्त्ता-विहीन विपक्ष सिर्फ लोगों के मन बदलने को सहेजकर चुनाव जीत जाता है यह पता चलने में अब ज्यादा वक्त नहीं रहा।
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