राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आजकल बड़ी चर्चा है कि क्या डॉ. मोहन भागवत को सबसे साहसिक सरसंघचालक माना जाना चाहिए? क्या भागवत संघ के चेहरे और चरित्र को पूरी तरह बदलने की कोशिश में हैं? क्या भागवत वाक़ई हिन्दू-मुसलिम एकता के इस हद तक समर्थक हैं कि वह इस मसले पर संघ के भीतर कुछ हिस्सों में उठती विरोध की आवाज़ों का सामना करने के लिए भी तैयार हैं? या फिर वह इस विषय को आज के हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी ज़रूरत समझते हैं।
भागवत मुसलमानों से ज़्यादा स्वयंसेवकों को समझायें!
- विचार
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- 12 Sep, 2021

इमरजेंसी के बाद 1977 में आरएसएस की प्रतिनिधि सभा की बैठक हुई थी। बालासाहब देवरस उस समय सरसंघचालक थे। देवरस ने प्रतिनिधि सभा में प्रस्ताव रखा कि संघ का दरवाज़ा मुसलिम समुदाय के लोगों के लिए भी खोला जाना चाहिए। तब यादवराव जोशी, मोरोपंत पिंगले, दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे कई कद्दावर नेताओं ने इस बात का जमकर विरोध किया।
भागवत सरसंघचालक बनने के बाद से लगातार इसकी पैरवी करते रहे हैं। तीन साल पहले सितम्बर 2018 में उन्होंने कहा था कि ‘बिना मुसलमानों के हिन्दुत्व अधूरा है‘। फिर कहा कि ‘हिन्दू और मुसलमानों का डीएनए एक ही है’ और अब उन्होंने मुम्बई में मुसलिम विद्वानों से मुलाक़ात की। तब कहा कि ‘मुसलमानों को भारत में डरने की ज़रूरत नहीं। हमें मुसलिम वर्चस्व की नहीं, बल्कि भारत के वर्चस्व की सोच रखनी होगी।’