यह वह दौर था जब देश में न कांग्रेस की सरकार थी, न बीजेपी की। इसलिए कश्मीरी पंडितों के निष्कासन के लिए इन दोनों में से किसी भी दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। दोषी अगर ठहराया जा सकता है तो तत्कालीन जनता दल की सरकार को जिसका नेतृत्व विश्वनाथ प्रताप सिंह कर रहे थे और राज्यपाल जगमोहन को जिनके हाथ में 19 जनवरी 1990 के दिन से ही राज्य की बागडोर आ चुकी थी। आज की कड़ी में हम तत्कालीन राज्यपाल की भूमिका की पड़ताल करेंगे। लेकिन साथ ही दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को भी अपनी जाँच के दायरे में लेंगे जिन्होंने उसके बाद के 27 सालों तक देश पर राज किया लेकिन ऐसी स्थितियाँ नहीं बना पाए कि कश्मीरी पंडित वापस अपने घरों को जा सकें।
जनवरी 1990 में कश्मीरी पंडितों के निष्कासन में राज्यपाल जगमोहन की क्या भूमिका थी, इसपर दो बिल्कुल विपरीत राय हैं। एक राय यह है कि उन्होंने जानबूझकर पंडितों के पलायन को बढ़ावा दिया ताकि कश्मीरी आंदोलन को सांप्रदायिक रंग दिया जा सके और घाटी में बचे कश्मीरी मुसलमानों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए सशस्त्र बलों को खुली छूट दी जा सके।
दूसरी राय यह है कि जगमोहन तब नए-नए आए थे। न तो उनके पास इतना समय था और न ही प्रशासन पर नियंत्रण कि वह पंडितों को उग्रवादी हिंसा से बचाने के लिए तत्काल किसी रणनीति पर काम कर सकें। उनके आने के तीसरे ही दिन गावकदल गोलीकांड में सौ से ज़्यादा प्रदर्शनकारियों के मारे जाने के बाद तो स्थिति इतनी बिगड़ गई कि प्रशासन के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं बचा था कि वह पंडितों की सुरक्षित निकासी और पुनर्वास का बंदोबस्त करे ताकि वे उग्रवादियों की गोलियों का निशाना न बनें। वही उसने किया भी।
विशेषज्ञों का मानना है कि ये दोनों राय अतिरंजित हैं और सच दोनों के बीच में कहीं है।
मुसलमानों ने पूछा, पंडित क्यों जा रहे हैं?
अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने अपने एक लेख में उस समय के हालात पर पर्याप्त रोशनी डाली है। वह तब अनंतनाग में स्पेशल कमिश्नर थे। उन्होंने लिखा, ‘मार्च 1990 में मेरे कार्यालय के सामने सैकड़ों लोग जमा हो गए और पूछने लगे कि पंडित अपना घरबार छोड़कर क्यों जा रहे हैं। उनका आरोप था कि प्रशासन जानबूझकर पंडितों के पलायन को बढ़ावा दे रहा है ताकि उनके जाते ही सेना बाक़ी बचे कश्मीरियों (मुसलमानों) को अपनी गोलियों का निशाना बना सके।'
हबीबुल्ला आगे लिखते हैं, ‘मैंने उनकी आशंकाओं को ग़लत बताया और कहा कि जब हर मसजिद से पंडितों को धमकियाँ दी जा रही हैं और उनके समुदाय के लोगों की हत्या की जा रही है तो आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे यहाँ रुके रहें? मैंने उनसे कहा कि प्रशासन पंडितों की मदद तभी कर सकता है जब स्थानीय मुसलमान उनका साथ दें और उनको सुरक्षित महसूस करवाएँ।’
जब अनंतनाग के कश्मीरी मुसलमानों ने उनको सहयोग का आश्वासन दिया तो हबीबुल्ला ने राज्यपाल जगमोहन को चिट्ठी लिखी कि वह टीवी प्रसारण के माध्यम से पंडितों को कश्मीर न छोड़ने की अपील करें। लेकिन जगमोहन की तरफ़ से ऐसी कोई अपील नहीं आई। इसके बदले यह घोषणा हुई - ‘जो भी पंडित अपने-आपको असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, वे हर ज़िले में बनाए जा रहे शरणार्थी शिविरों में आ जाएँ। इसके साथ ही जो पंडित सरकारी नौकरियों में हैं, वे अपना स्थान छोड़कर (सुरक्षित जगहों में) जा सकते हैं - उनको वेतन मिलता रहेगा।’
जब इसके बाद भी पलायन नहीं रुका तो सरकार की तरफ़ से पंडितों को परिवहन की सुविधा दी गई ताकि वे सुरक्षित जम्मू पहुँच सकें।
कांग्रेस-बीजेपी सरकारों ने क्या किया?
यह तो हुआ तत्कालीन सरकार का रोल। जैसा कि हमने ऊपर कहा, 1990 के बाद के 30 सालों में से 27 सालों तक भारत के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की केंद्र में सरकारें रहीं- 15 साल कांग्रेस की और क़रीब 12 साल बीजेपी की। क्या इन दोनों दलों की सरकारों ने पंडितों को राज्य में बसाने के लिए कुछ किया?
पहले देखते हैं कि कश्मीर से पलायन के बाद पंडित कहाँ गए। उनके लिए पहली सुरक्षित जगह तो जम्मू ही थी जहाँ तक ले जाने की व्यवस्था राज्य सरकार कर रही थी। कुछ हज़ार से शुरू हुई यह संख्या जल्दी ही कुछ लाख तक पहुँच गई और इतने अधिक लोगों के लिए व्यवस्था करना सरकार के लिए आसान नहीं था। नतीजतन लंबे समय तक उन्हें तंग और गंदे शिविरों में रहना पड़ा। जिनके पास पैसा था, वे दिल्ली, पुणे, मुंबई, अहमदाबाद, जयपुर और लखनऊ जैसे शहरों में चले गए। कुछ ने विदेश की ओर भी रुख़ कर लिया।
जो जम्मू में बने रहे, उनके लिए सरकार ने रहने की व्यवस्था की - छोटे-छोटे घरों में कई हज़ार परिवार रह रहे हैं। कुछ ने अपने ही घर बना लिए या किराए के मकानों में चले गए।
लेकिन कश्मीर लौटने की बात कोई नहीं कर रहा है जबकि 1990 के मुक़ाबले हालात काफ़ी सुधर गए हैं। वहाँ की बड़ी राजनीतिक पार्टियों के नेता पंडितों से लौटने की अपील कर चुके हैं। कट्टरपंथी और उग्रवादी नेता तक कह चुके हैं कि पंडित बिना किसी हिचक के लौट सकते हैं और हम उन्हें सुरक्षा की गारंटी देंगे। लेकिन भय है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा।
इस भय का पर्याप्त कारण भी है। जब-जब अलगाववादी नेता पंडितों के प्रति ऐसा आह्वान करते, उग्रवादी तत्व माहौल बिगाड़ने के लिए राज्य में रह रहे उन पंडितों पर हमले कर देते जो धमकियों के बावजूद अपना घर छोड़कर नहीं गए थे। ऐसे में बाहर रह रहा कोई भी पंडित लौटने का सोच भी कैसे सकता है?
विस्थापितों के लिए अलग बस्तियाँ?
पंडितों के इस भय को दूर करने के लिए कई बार यह बात उठी कि कश्मीर में उन्हें सुरक्षित घेराबंद इलाक़ों में बसाया जाए जहाँ सुरक्षा बलों का पहरा हो। 2015 में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद से कहा भी था कि वे निर्वासित जीवन जी रहे 62 हज़ार पंडित परिवारों को ऐसी बस्तियों में बसाने के लिए ज़मीन तलाशना शुरू करें। लेकिन राज्य में इसका काफ़ी विरोध हुआ। विरोधियों के अनुसार यह क़दम राज्य की जनता को हिंदू-मुसलमानों में बाँट देगा जबकि आम जनता के दिलों में ऐसा कोई विभाजन नहीं है। इसके अलावा उन्होंने यह भी आशंका जताई कि ये बस्तियाँ आतंकवादियों की नज़र और निशाने पर आ जाएँगी।
आज की तारीख़ में घाटी में केवल 3 हज़ार पंडित रह गए हैं। बाक़ी 60 हज़ार विस्थापित पंडित परिवार अभी भी बाहर हैं जिनमें से 38 हज़ार जम्मू में, 20 हज़ार दिल्ली में और शेष अन्य राज्यों में रह रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि इन विस्थापित कश्मीरियों के लिए केंद्र सरकारों ने कुछ नहीं किया या कर रहीं। यूपीए सरकार ने उनके लिए 1600 करोड़ का एक पैकेज दिया था। इसके तहत 1500 विस्थापित युवकों को सरकारी नौकरी दी गई और उनके रहने के लिए आवास बनाए गए थे। मोदी सरकार ने भी 2015 में एक दूसरे पैकेज के तहत 3000 नई नौकरियों और 6000 आवास निर्माण की घोषणा की।
पिछले साल सदन में सरकारी क़दमों की जानकारी देते हुए सरकार की तरफ़ से बताया गया कि ‘कश्मीरी पंडितों को घर बनाने के लिए भी वित्तीय सहायता दी जा रही है। 5 हज़ार परिवारों के लिए पहले ही जम्मू में दो कमरे के आवास बनाए गए हैं और 200 आवास बड़गाँव ज़िले के शेख़पुरा में बने हैं। इसके अलावा सरकार की तरफ़ से हर विस्थापित परिवार को नक़द सहायता राशि दी जाती है जो 2018 के बाद 13 हज़ार मासिक हो गई है।’
एक दीवार-सी खड़ी हो गई है
फ़िलहाल कितने परिवारों को ऐसी नौकरियाँ मिली हैं, इसका कोई आँकड़ा हमारे पास नहीं है लेकिन ऐसे जो भी लोग अभी कश्मीर के विभिन्न इलाक़ों में सुरक्षित कैंपों के अंदर रह रहे हैं, वे वहाँ रहकर ख़ुश नहीं हैं। उनकी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम भले हो गया हो लेकिन सामाजिक जीवन न के बराबर है। वे नज़रबंदी का जीवन जी रहे हैं क्योंकि बाहर निकलना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। उनके बच्चे जिन स्कूलों में जाते हैं, वहाँ उन्हें पराया समझा जाता है। जब उनके कानों में ऐसे नारे गूँजते हैं - जो भारत का साथ देगा, वह ग़द्दार है, वह ग़द्दार है - तो वे उस अभेद्य दीवार को महसूस करते हैं जो उनके और कश्मीरियों के बीच खड़ी हो गई है और जिसके टूटने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है।
5 अगस्त 2019 को कश्मीर के विशेष दर्ज़े को समाप्त करने के बाद यह दीवार और ऊँची हो गई है। इसके बाद विस्थापितों के अपने घरों को लौटने की जो थोड़ी-बहुत संभावना भी थी, वह भी ध्वस्त हो गई है। कारण, वे जानते हैं कि अगर वे लौटे तो उनको अपने पुराने पड़ोसियों की आँखों में स्वागत नहीं, शिकायत का भाव दिखेगा। शिकायत इस बात की कि उन्होंने 1947 में हस्ताक्षरित विलय पत्र के तहत कश्मीर और कश्मीरियों को मिले विशेषाधिकारों को समाप्त करने में भारत सरकार का साथ दिया - वे विशेषाधिकार जो उनको भारत में विलय से पहले भी प्राप्त थे और जिसका लाभ हिंदू पंडितों को भी उतना ही मिलता रहा था जितना कश्मीरी मुसलमानों को।
पहले कश्मीरी पंडितों को शिकायत थी। अब कश्मीरी मुसलमानों को शिकायत है। जब दोनों ही पक्षों को शिकायत हो तो वहाँ जाकर भी क्या होगा, कैसा मेल होगा, कैसा प्रेम होगा? और कौन जाने, कब कोई नया हंगामा खड़ा हो जाए और जान के लाले पड़ जाएँ! फिर से भागना पड़ जाए!
संशय और शिकायत के इस माहौल में कौन पंडित घाटी वापस लौटना चाहेगा? यही कारण है कि पंडितों को घाटी में लौटाने की बात तो होती है लेकिन लौटना कोई नहीं चाहता।
अपनी राय बतायें