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सरकारी दमन के प्रतिशोध में हुआ कश्मीर से पंडितों का निष्कासन?

1989 में कश्मीर में कुछ जाने-माने पंडितों को गोलियों का निशाना बनाया गया। इसके बाद जनवरी 1990 में सभी पंडितों को फ़रमान जारी कर दिया गया कि या तो धर्म बदलें या फिर घाटी से बाहर चले जाएँ। जो नहीं गए, उन्हें जान-माल का नुक़सान उठाना पड़ा। लेकिन ऐसा आख़िर क्यों हुआ? सालों से पड़ोसी की तरह रह रहे पंडित अचानक उग्रवादियों की आँखों को क्यों खटकने लगे?
नीरेंद्र नागर

पिछली कड़ी में हमने पढ़ा कि कैसे 1987 के विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर गड़बड़ियाँ करवाईं और मुसलिम यूनाइटेड फ़्रंट के विजयी उम्मीदवारों को पराजित घोषित करवा दिया। इस वजह से सरकार से नाराज़ तबक़ों और गुटों का लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से भरोसा उठ गया और उनमें से कुछ ने हथियार उठा लिए। इसी क्रम में 1988 में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट (जेकेएलएफ़) तथा दूसरे उग्रवादी गुटों ने भारत का साथ देने वालों और मुख़बिरों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया। 1989 में सौ से भी ज़्यादा सरकारी कर्मचारी आतंकी हिंसा का शिकार बने। इसी दौरान तत्कालीन गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया को अगवा किया गया और पाँच आतंकवादियों की रिहाई के बाद ही उन्हें छोड़ा गया।

इसके साथ ही कश्मीरी पंडित समुदाय के प्रमुख लोग भी आतंकवादियों के निशाने पर आ गये। 14 सितंबर, 1989 को भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता और वकील पंडित टीकालाल टपलू की उनके घर में हत्या कर दी गई। इसके दो महीने बाद दिसंबर में नीलकंठ गंजू नामक जज को गाली मार दी गई। गंजू ने ही अलगाववादी नेता मक़बूल भट्ट को फाँसी की सज़ा सुनाई थी।

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अब तक उग्रवादियों का निशाना वही लोग थे जो सरकार या व्यवस्था से जुड़े हुए थे। आम कश्मीरी पंडित उनके निशाने पर नहीं थे हालाँकि अलगाववादी उन्हें हमेशा से शत्रु-समर्थक मानते रहे थे। लेकिन 4 जनवरी, 1990 को तसवीर एकाएक बदल गई। उस दिन श्रीनगर के आफ़ताब नामक अख़बार ने हिज़्बुल मुजाहिदीन का एक संदेश प्रकाशित किया जिसमें पंडितों को चेतावनी दी गई थी कि वे तत्काल कश्मीर से चले जाएँ। दस दिन बाद एक और अख़बार अल-सफ़ा में वही चेतावनी फिर से आई।

पंडितों को नेस्तनाबूद करने की धमकी

इसके साथ ही दिवालों पर ऐसे पोस्टर भी दिखने लगे जिनमें कश्मीरियों को इस्लामी क़ायदों का पालन करने का आदेश दिया गया। सरकारी इमारतों और दफ़्तरों को हरे रंग से रंगा जाने लगा। 

हिंदुओं की दुकानों, घरों और मंदिरों को जला दिया गया या नष्ट कर दिया गया। उनके घरों के दरवाज़ों पर तुरंत कश्मीर छोड़ देने की धमकी देते हुए पोस्टर चिपका दिए गए। 18-19 जनवरी की रात को मसजिदों से पंडितों को नेस्तनाबूद करने जैसी भड़काऊ बातें कही गईं।

इन धमकियों से घबराकर 20 जनवरी को पंडितों का पहला जत्था घाटी से रवाना हुआ हालाँकि तब तक राज्य में सत्ता परिवर्तन हो चुका था। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने इस्तीफ़ा दे दिया था और जगमोहन ने राज्यपाल के रूप में शपथ ले ली थी। लेकिन राज्य की बागडोर सीधे केंद्र के हाथों में आने के बावजूद कश्मीर पंडितों को यह भरोसा नहीं हुआ कि नया निज़ाम उनकी सुरक्षा की गारंटी दे सकेगा। 

कश्मीर पंडितों का भय सही साबित हुआ। नए शासन में सशस्त्र बलों और कट्टरपंथी तबक़ों में टकराव बढ़ गया। यह इतना बढ़ा कि इस संघर्ष में पंडित समुदाय इस्लामी गुटों के हमलों का आसान शिकार बन गया।

19 जनवरी को सत्ता-बदल होते ही भारतीय सुरक्षा बलों ने हथियारों और आतंकवादियों की तलाश में श्रीनगर में तलाशी अभियान शुरू कर दिया। इस अभियान में सैकड़ों लोग गिरफ़्तार हुए। अगले दिन यानी 20 जनवरी को जब यह ख़बर फैली तो हज़ारों की संख्या में कश्मीरियों ने प्रदर्शन किया। इस दौरान आज़ादी के नारे भी लगे। राज्यपाल ने इसकी प्रतिक्रिया में श्रीनगर में कर्फ़्यू लगाने का आदेश दे दिया।

गावकदल में हुआ नरसंहार 

कर्फ़्यू का कोई असर नहीं हुआ और 21 जनवरी को भी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर निकले। जम्मू-कश्मीर पुलिस के अनुसार, यह भीड़ गावकदल नामक लकड़ी के पुल पर इकट्ठा हुई और उसने सुरक्षा बलों पर पथराव किया। जवाब में सुरक्षा बलों ने ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाईं जिसमें सरकारी सूत्रों के मुताबिक़ 28 और प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार 200 से ज़्यादा लोग मारे गए। मानव अधिकार संगठन और विशेषज्ञों का अनुमान 50 से 100 के बीच लोगों के मारे जाने का है। कश्मीर में इससे पहले सुरक्षा बलों की कार्रवाई में इतने ज़्यादा लोगों की मौत नहीं हुई थी। गावकदल नरसंहार को राज्य के भीषणतम नरसंहारों में गिना जाता है।

इस गोलीकांड के बाद जन-प्रतिरोध में तेज़ी से उभार आया और जो भूमिगत आंदोलन कुछ मुट्ठीभर उग्रवादियों तक सीमित था, वह आम जनता तक फैल गया। राज्य में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई।

संपादक-पत्रकार एम. जे. अकबर ने गावकदल कांड पर टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘19 जनवरी (के बाद की घटनाओं) ने एक उत्प्रेरक का काम करते हुए कश्मीरी जन-प्रतिरोध को नई ऊँचाई तक पहुँचा दिया। सैकड़ों की संख्या में युवक पाकिस्तान-प्रशासित कश्मीर चले गए जहाँ से उन्हें हथियारों और विद्रोही गतिविधियों का प्रशिक्षण मिला। पाकिस्तान ने उनकी खुलकर मदद की और यह पहली बार था कि उसे भारत के साथ अपनी लड़ाई में अपने सैनिकों का इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। श्रीनगर में हर मसजिद आतंक का गढ़ बन गई।’

ऐसे ही हालात थे उन दिनों जब पंडितों को कश्मीर से बाहर जाने की धमकियाँ दी गईं। कुछ जाने-माने पंडित हालाँकि उससे पहले भी निशाने पर आ चुके थे जिनमें टीकालाल टपलू और जज नीलकंठ गंजू शामिल थे। लेकिन जनवरी, 1990 से हालात ऐसे बदले कि हर पंडित कश्मीरियों को भारत यानी दुश्मन का समर्थक नज़र आने लगा था। उग्रवादियों ने इसी भावना का फ़ायदा उठाया और पंडितों को घाटी से निकल जाने का फ़रमान सुना दिया। जो नहीं गए, उन्हें जान-माल का नुक़सान भी उठाना पड़ा।

70 हज़ार कश्मीरी परिवारों का पलायन

जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, कश्मीर से पंडितों का पहला जत्था जनवरी में गया। पलायन का दूसरा दौर मार्च और अप्रैल में शुरू हुआ जब कई और पंडितों की हत्याएँ हुईं। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, 1990 से 1992 के बीच 70 हज़ार कश्मीरी परिवारों ने घाटी से पलायन किया। यह पलायन 2000 तक जारी रहा। समिति के मुताबिक़, 1990 से 2011 के बीच 399 पंडित आतंकवादी हिंसा के शिकार हुए जिनमें से अधिकतर की हत्या 1989-90 के बीच हुईं।

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कश्मीर छोड़कर जा रहे पंडित यह सोचकर नहीं जा रहे थे कि वे कभी वापस नहीं लौटेंगे। आख़िर कोई कब तक अपने घरों से दूर शिविरों में रहना चाहेगा? लेकिन अगले कुछ सालों में जब हालात में विशेष सुधार नहीं हुआ तो कई लोगों ने जम्मू में या राज्य के बाहर अपना बसेरा बसा लिया। सरकार ने उनके लिए आवासों का निर्माण किया। कुछ पंडित विदेश भी चले गए।

1990 में कश्मीर के जो हालात थे, वैसे आज नहीं हैं। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को पूरी तरह निष्क्रिय करने के बाद भी राज्य में न उस स्तर की हिंसा है, न ही वैसा प्रतिरोध है। उससे पहले के सालों में तो स्थितियाँ काफ़ी हद तक सुधर चुकी थीं। 

लौटने की अपील, सुरक्षा की गारंटी

स्थिति में सुधार को देखते हुए ही राज्य का हर मुख्यमंत्री पंडितों से आह्वान कर चुका है कि वे लौट आएँ। यहाँ तक कि जिन अलगाववादी गुटों की हरकतों के कारण उन्हें राज्य छोड़ना पड़ा था, उन गुटों के नेताओं ने पंडितों को न केवल वापस आने की दावत दी है बल्कि उनकी सुरक्षा की गारंटी भी दी है। राज्य सरकार की नौकरियों में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था भी की गई थी। फिर भी निर्वासन का जीवन जी रहे लाखों पंडित कश्मीर नहीं लौट रहे हैं। वे 19 जनवरी, 1990 की तारीख़ को याद कर रहे हैं लेकिन वापस अपने घरों को लौटने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। 

लेकिन आख़िर क्यों? यह सवाल हम सबके ज़ेहन में है। इसके बारे में हम बात करेंगे कल अपनी अगली और अंतिम कड़ी में। साथ ही हम यह भी जाँचेंगे कि जब जनवरी-अप्रैल 1990 के बीच पंडित कश्मीर से पलायन कर रहे थे, तब जगमोहन के नेतृत्व में राज्य का प्रशासन क्या कर रहा था।

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