कोरोना वायरस संक्रमण के ख़तरे के चलते जारी लाॅकडाउन की वजह से रामनवमी बिना किसी राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक शोरशराबे, भीड़भाड़ और कर्मकांडी तामझाम के मनी। ऐसे में हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों के लिए एक लिहाज से कोरोना वायरस के बहाने मिली यह शांति राम नाम के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार और अपने भीतर की आध्यात्मिकता को जगाने का अच्छा मौक़ा है। इसका रास्ता अलबत्ता रामानंद सागर के रामायण सीरियल से बाहर खोजा जाए तो बेहतर है।
राम आम धार्मिक हिंदू के लिए तो भगवान हैं, लेकिन राम का किरदार अपनी तमाम ख़ूबियों की वजह से नास्तिकों और दूसरे धर्म के मानने वालों, साहित्य, संस्कृति और सामाजिक कर्म से जुड़े लोगों के बीच भी हमेशा से बहुत लोकप्रिय और आदरणीय रहा है।
मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल ने अपनी एक नज़्म में राम के प्रति श्रद्धा जताते हुए उनको 'इमामे हिंद' का ख़िताब दिया था-
है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज़
अगले नज़र समझते हैं उसको इमामे हिंद
हिंदी कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था-
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
कोई कवि हो जाय सहज संभाव्य है
तुलसीदास ने तो रामचरित मानस जैसे अद्भुत ग्रंथ की रचना करके राम नाम को घर-घर पहुँचा दिया। राम से बड़ा राम का नाम हो गया है। तुलसी के राम धीरोदात्त नायक हैं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। मानवता के कल्याण की बात करते हैं, उनके सारे कर्म लोककल्याण के लिए ही हैं, वे करुणानिधि हैं, करुणामय हैं, सबको गले लगाने वाले, सत्य, न्याय, प्रेम, शुचिता और त्याग के प्रतीक हैं। इसलिए रामचरितमानस का स्वर समन्वयवादी है। तुलसी ने रामचरितमानस की एक चौपाई के माध्यम से धर्म की सार्वजनिक, सार्वभौमिक और सार्वकालिक परिभाषा दी है जो बेहद सरल और संक्षिप्त होते हुए भी बहुत गहरी सामाजिकता समेटे हुए है।
तुलसीदास ने लिखा है-
परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई
तुलसीदास के विचारों में उदारता और सामाजिक समन्वय की भावना है लेकिन जिन तुलसीदास ने भक्तिकाल में राम की कहानी सुनाकर को लोगों को जागृत करने के लिए आम लोगों की बोलचाल में रामचरितमानस जैसा ग्रंथ लिखा, उनके समय के काशी के धार्मिक कट्टर ब्राह्मणों ने उनको भी नहीं बख़्शा और इतना परेशान किया कि झल्लाकर उन्हें कहना पड़ा- ‘मसजिद में सो जाऊँगा, माँग कर खाऊँगा लेकिन ऐसे लोगों से कोई लेनदेन नहीं रखूँगा।’
धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जुलहा कहो कोऊ
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगार न सोऊ
तुलसी सरनाम ग़ुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ
माँगि के खइबौ, मसीत में सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ
तुलसी ने अपने दौर के कट्टर धार्मिकों से आजिज़ आकर मसजिद में सोने की बात कही थी लेकिन आज के कट्टरपंथी हिंदुत्व ने मसजिद ही गिरा दी। वो भी उन राम की नगरी में जिनके रामराज्य की कल्पना करते हुए तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा था -
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
विडम्बना यह है कि पिछले कुछ दशकों की कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति ने राम को लोकमानस में उनके प्रचलित देवत्व से इतर एक आक्रामक हिंदू राजनैतिक प्रतीक में बदल दिया है।
समूची हिंदी पट्टी में ‘राम-राम’ सदियों से आम लोगों के बीच आपसी अभिवादन का सबसे प्रचलित तरीक़ा रहा है जो धर्म और जाति की सीमाओं से परे हिंदू-मुसलमान सभी समुदायों-जातियों, सब में बराबर लोकप्रिय रहा है। लेकिन अब ‘राम-राम’ और ‘जै सियाराम’ की जगह ‘जय श्रीराम’ का इस्तेमाल ज़्यादा होने लगा है, बाक़ायदा ज़ोर देकर। पारस्परिक अभिवादन के लिए कम, दूसरों पर दबंगई दिखाने के लिए ज़्यादा।
समाजवादी चिंतक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने राजनीति के साथ-साथ धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, हिंदू पौराणिक प्रतीकों राम, कृष्ण और शिव, द्रौपदी वग़ैरह के बारे में बहुत दिलचस्प व्याख्याएँ की हैं जिन्हें मौजूदा दौर में बार-बार पढ़े जाने और विमर्श का हिस्सा बनाने की ज़रूरत है। ‘राम, कृष्ण और शिव’ शीर्षक से अपने बहुत प्रसिद्ध लेख में डॉक्टर लोहिया ने महात्मा गाँधी को राम का महान वंशज कहा है। लोहिया इस लेख में कहते हैं कि गाँधी ने मर्यादा पुरुषोत्तम के ढाँचे में अपने जीवन को ढाला और देशवासियों का भी आह्वान किया।
महात्मा गाँधी ने 27 सितंबर 1947 को अपनी प्रार्थना सभा में कहा था -
‘मेरा ख़ास वैद्य कौन है, वह मैं आपको बतला दूँ। वह मेरे लिए भी अच्छा है और आपके लिए भी अच्छा है। आज मेरा वैद्य मन से, वचन से और कर्म से राम है, ईश्वर है, रहीम है। वह वैद्य कैसे बन सकता है? एक भजन सुनाया ‘दीनन दुखहरन नाथ’। दुख में सब दुख आ जाते हैं शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक जितने दुख एक आदमी को भुगतने पड़ते हैं। शरीर के जितने दुख हैं, उनका हरण करने वाला राम है, यह भजन में कहा गया है। सो मैंने समझ लिया कि सबसे बड़ा अचूक इलाज या उपचार है राम नाम। जो लोग मेरे पास आ जाते हैं उनके लिए मेरे पास तो दूसरी दवाई ही नहीं है। हाँ राम नाम है। ...अगर मुझको राम नाम में विश्वास है तो मुझको उसी पर क़ायम रहना चाहिए, उससे डरे तो मरे। राम तो तारणहार है। जो मनुष्य राम नाम को अपने हृदय में अंकित करता है, उसको मरना है ही कहाँ। यह शरीर क्षणभंगुर है। आज है कल नहीं, अभी है, दूसरे क्षण में नहीं। तो इसका मैं अहंकार करूँ? नाश का समय आ जाने पर उसको ज़िंदा रखने की चेष्टा करना, वह व्यर्थ है।’
अगर शुरू में ही यह ख़ुलासा न कर दिया होता कि यह महात्मा गाँधी की कही बात है तो बहुत मुमकिन है यह किसी धार्मिक हिंदू संत के प्रवचन का हिस्सा ही लगता। यह महात्मा गाँधी की अपने धर्म में प्रबल विश्वास की एक बानगी है। गाँधी जी की प्रार्थना सभाओं में गाये जाने वाले भजनों में हिंदी इलाक़ों में आम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय भजन "रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम" भी शामिल होता था। लेकिन गाँधी का हिंदुत्व लचीला था। उसमें सबके लिए जगह थी। यही बात उग्र हिंदुत्व के झंडाबरदारों को पसंद नहीं आई और अंततः गाँधी की बेरहमी से हत्या कर दी गई।
यह बात सब जानते हैं कि गोडसे की गोलियों का निशाना बने महात्मा गाँधी की ज़ुबान से मरते-मरते जो अंतिम शब्द निकले, वो थे- “हे राम”।
डॉक्टर लोहिया ने कहा था- ‘हे भारतमाता, हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
कट्टरपंथी राजनीति की बनाई छवि में यह नहीं मिलेगा।
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