राजस्थान मानवाधिकार आयोग का यह कौन- सा रूप है। आयोग स्त्रियों का हितैषी है या अपमान करने वाला औजार। उन्हें स्त्रियों के हितों की इतनी चिंता होती तो क्या वे लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही किसी महिला को उपस्त्री यानी रखैल का दर्जा देते? क्या आयोग को भारतीय संस्कृति का मामूली ज्ञान भी नहीं है कि कोई बालिग स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से अपना संबंध बना सकते हैं या साथ रह सकते हैं? क़ानून इसमें अड़चन नहीं डालेगा।
सहचरी को उपस्त्री मत कहिए जनाब!
- विचार
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- गीताश्री
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- 5 Sep, 2019
राजस्थान मानवाधिकार आयोग का यह कौन- सा रूप है। उन्होंने लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही किसी महिला को उपस्त्री यानी रखैल क्यों कहा? बेहतर हो, नैतिकता के ठेकेदार अपनी प्राचीन सभ्यताओं के पन्ने पढ़ लें। संस्कृति के सारे अध्याय खंगालें। उस दौर में जाएँ जब स्त्री को कितनी आज़ादी थी कि वह अपनी मर्ज़ी से अपना साथी चुन सकती थी और चुपके से विवाह कर के संतान तक पैदा कर लेती थी। क्या हम उन्हें खारिज कर सकते हैं?

ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब सर्वोच्च न्यायालय का एक फ़ैसला आया था। इस निर्णय ने लिव-इन रिलेशनशिप के प्रति समाज और क़ानून दोनों का रवैया ही बदल दिया था। तब अदालत ने कहा था कि लिव-इन रिलेशनशिप संबंध मान्य है और उस रिश्ते में रहने वाली किसी भी स्त्री को कई सारे क़ानूनी अधिकार हासिल हैं। जैसे घरेलू हिंसा क़ानून भी लागू होगा, रिश्ते में रहते हुए अगर पुरुष साथी की मौत हो जाती है तो स्त्री उसकी संपत्ति से अपना हिस्सा माँग सकती है। संबंध में रहते हुए जो संतान होगी, वह वैध कहलाएगी और पिता की संपत्ति में उसका अधिकार होगा। लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर कोई क़ानून नहीं बना, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सबकुछ साफ़ कर दिया था। समाज में भी उसे स्वीकारने की मानसिकता बनने लगी थी। हमारे आसपास अचानक कई रिश्तों के खुलासे भी हुए। अब तक लिव-इन रिश्ते छुपाए जाते थे समाज और परिवार के भय से। दो दिलों के बीच क़ानून का भय कम होता है और समाज-परिवार का ज़्यादा। जैसे ही कोर्ट ने इस संबंध पर अपनी मुहर लगाई, उसे वैध घोषित किया, समाज का भय जाता रहा। सारी वर्जनाएँ, गोपनीयता भरभरा कर टूट गईं। कई जोड़े सामने आने लगे। ठीक वैसे ही जैसे धारा-377 के बाद समलैंगिकों ने अपने आप को उजागर किया।