प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ की बात एक बार फिर पूरी कर ली। सुनने के बाद लोग काफ़ी हल्के भी हो गए। रविवार को दस बजने के पहले तक कई तरह की शंकाएँ थीं। लोगों के मन में भय था कि प्रधानमंत्री फिर से कुछ और करने के लिए नहीं कह दें। अक्षय तृतीया सहित संयोग भी कई थे। प्रधानमंत्री ने ही सारे गिनवा भी दिए। वह चाहते तो कुछ और निवेदन कर भी सकते थे। पर उन्होंने वैसा कुछ भी नहीं किया। लोगों के मन में एक और बड़ा डर ‘लॉकडाउन’ की समाप्ति को लेकर भी था। मीडिया वाले ऐसे तमाम अवसरों पर भविष्यवाणियाँ करने की तैयारी करके रखते हैं कि प्रधानमंत्री कोई बड़ी घोषणा कर सकते हैं। पर वैसा भी कुछ नहीं हुआ। लोगों ने उस समय एक लम्बी राहत की साँस ली होगी जब प्रधानमंत्री ने अपनी बात यह कहते हुए ख़त्म कर दी कि : ‘दो गज की दूरी, है बहुत ज़रूरी।’
प्रधानमंत्री को इन दिनों सुनते वक़्त इस एक बात का एहसास लगातार बना रहता है कि वे जैसे कुछ समझाना चाह रहे हैं। अपने कहे को लेकर वे देश की जनता की तरफ़ से आश्वस्त भी होना चाहते हैं। हमने अपने प्रधानमंत्री को चुनावी युद्धों के दौरान भी सुना है और सर्जिकल स्ट्राइक, आदि के दौरान भी। प्रधानमंत्री को सुनते हुए महसूस किया जा सकता है कि वे इस समय जिस युद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं वह उनके पिछले छह वर्षों के कार्यकाल के अनुभवों से काफ़ी अलग है।
इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि सामरिक युद्धों को लेकर तो मोदी के पास पूर्व प्रधानमंत्रियों द्वारा लिए गए निर्णयों, की गईं तैयारियों, उपलब्धियों और ‘हिमालयी’ ग़लतियों के प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं, किताबें हैं पर आज़ादी के बाद कोई भी प्रधानमंत्री ऐसे अनुभव और संकट से नहीं गुज़रा होगा जैसी कि स्थिति आज है।ख़राब मानसून, अकाल, सोने को गिरवी रखने जैसे आर्थिक हालात, भूकम्प, अतिवर्षा और अन्य प्राकृतिक आपदाएँ तो देखते और झेलते भी रहते हैं पर मौजूदा संकट अपने तरह का पहला अनुभव है।
इसमें दो राय नहीं है कि वर्तमान संकट ने सभी राष्ट्राध्यक्षों को हिलाकर रख दिया है। इसीलिए अपने हर सम्बोधन में मोदी इसे जनता की लड़ाई बताते हैं। सामरिक युद्धों की यह भाषा कि ‘विजय सुनिश्चित है’ का इस्तेमाल न करते हुए वे जनता को आगाह करते नज़र आते हैं कि यह लड़ाई ‘पीपुल ड्रिवन’ है। ‘अति आत्मविश्वास में न फँस जाएँ। अति उत्साह में कोई लापरवाही नहीं हो जाए।’ इससे समझा सकता है कि वे नागरिकों से अपने में सैन्य गुणों को आत्मसात् करने की बात कर रहे हैं। उनके कहे को ही अगर दोहराएँ तो: ‘देश का हर नागरिक आज एक सिपाही है।’ क्या ऐसा तो नहीं कि मोदी लॉकडाउन की समाप्ति के बाद लोगों के सम्भावित आचरण को लेकर आशंकित हैं?
यह एक बहस का विषय हो सकता है कि जिस लोकतंत्र में चुनावी राजनीति ने भीड़ को ही अपनी ताक़त बनाया हुआ हो और जिसमें नायकों और खलनायकों की पहचान केवल मुँह देखकर की जाती हो, उसमें चेहरों को गमछों से ढककर दो गज की दूरी बनाए रखने को जन समुदाय अपनी जीवन शैली कैसे बना पाएगा?
प्रधानमंत्री तो मास्क को सभ्य समाज का प्रतीक बनाना चाह रहे हैं।
और आख़िर में एक सवाल यह भी बनता है कि प्रधानमंत्री के पास तो अपने मन की बात कह देने के कई ज़रिए हैं। नागरिकों को अगर अपनी कोई बात प्रधानमंत्री से करनी हो तो कैसे करें? लोग भी बहुत कुछ कहना चाहते हैं। पर कैमरों के सामने नहीं। पुराने कथानकों में ऐसे वर्णन आते हैं कि किस तरह से राजा अपना भेस बदलकर रात के अंधेरे में राज्य की सड़कों पर निकल पड़ता था और ख़ुद ही जनता के मुँह से अपने कामकाज के बारे में बिना बिचौलियों की उपस्थिति के सबकुछ सुनता था। इस समय तो बहुत सारी जनता सड़कों पर ही है। क्या हम ऐसे ही किसी चमत्कार की उम्मीद रख सकते हैं जिसमें प्रजा भी अपने मन की बात सीधे राजा के कानों में कह सके?
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