सरकार ने तीनों कृषि-क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी, फिर भी आंदोलनकारी किसान नेता अपनी टेक पर अड़े हुए हैं। वे कह रहे हैं कि जब तक संसद स्वयं इस क़ानून को रद्द नहीं करेगी, यह आंदोलन या यह धरना चलता रहेगा। उनकी दूसरी मांग है कि सरकार उपज के सरकारी मूल्य (एमएसपी) को क़ानूनी मान्यता दे। मैं समझता हूँ कि इन दोनों बातों का हल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा में उपस्थित है।
यदि अब भी सरकार संसद के अगले सत्र में कुछ दांव-पेंच दिखाएगी और कृषि-क़ानूनों को बनाए रखेगी तो नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा पेंदे में पैठ जाएगी। क्या मोदी कभी ऐसा होने देंगे? हम ज़रा सोचें कि मोदी को कौन बाध्य कर सकता है कि वे अपने वचन से मुकर जाएँ?
किसानों को संदेह है और उन्होंने उसे खुले-आम कहा भी है कि मोदी ने कुछ बड़े पूंजीपतियों के फायदे के लिए ये क़ानून बनाए हैं। क्या इन पूंजीपतियों की इतनी हिम्मत होगी कि वे मोदी को राष्ट्र के ख़िलाफ़ वादाख़िलाफ़ी के लिए मजबूर कर सकें? इस क़ानून-वापसी का सभी विपक्षी दलों ने भी स्वागत किया है।
यह ठीक है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त कमेटी के एक सदस्य ने मोदी की वापसी की इस घोषणा की निंदा की है और एक-दो कृषि-विशेषज्ञों ने इन क़ानूनों के संभावित फ़ायदे भी गिनाए हैं लेकिन आमतौर से सभी लोग मान रहे हैं कि इन क़ानूनों को वापस लेने का फ़ैसला साहसिक और उत्तम है।
इस फ़ैसले के बावजूद किसान आंदोलन को जारी रखने का तर्क यह है कि सरकार ने अभी तक खाद्यान्न के सरकारी मूल्यों को क़ानूनी रूप नहीं दिया है। यह बड़ा पेचीदा मामला है।
यदि इस मुद्दे पर भी सरकार आनन-फानन क़ानून बना देती तो उसके दुष्परिणाम किसानों और जनता को भी भुगतने पड़ते। सरकार ने यह बिल्कुल ठीक किया कि इस मुद्दे पर विचार करने के लिए एक विशेष कमेटी बना दी है।
किसान नेता यदि यह मांग करते कि उनसे परामर्श किये बिना यह कमेटी अपनी रपट पेश नहीं करे तो यह सही मांग होती लेकिन उन्होंने आंदोलन जारी रखने की जो घोषणा की है, वह नेताओं के लिए तो स्वाभाविक है लेकिन क्या अब साधारण किसान इतनी कड़ाके की ठंड में अपने नेताओं का साथ देगा? हमारे किसान नेता भी बाद में मोदी की तरह पछता सकते हैं?
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