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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा बुनियादी सवाल खड़ा कर दिया। सवाल यह है कि कौन बड़ा है- राष्ट्रहित या विचारधारा? यह सवाल उन्होंने कोई बौद्धिक बहस चलाने के लिए नहीं खड़ा किया है। ट्रंप और मोदी जैसे नेताओं से यह आशा करना व्यर्थ है। मोदी ने इसे इसलिए उठाया है क्योंकि जेएनयू को वामपंथ का गढ़ माना जाता है।
ये बात दूसरी है कि जेएनयू में सबसे पहले पीएच.डी. करने वालों में मेरा नाम भी है। मेरा हिंदी-आग्रह, धोती-कुर्ता और लंबी चोटी देखकर मुझे भी लोग दक्षिणपंथी ही समझते थे। जेएनयू के प्रथम दीक्षांत समारोह में, जब मुझे उपाधि मिली थी, तब भी वहां विवाद उठ खड़ा हुआ था और आजकल तो वहां वामपंथियों और दक्षिणपंथियों में दंगल होता ही रहता है।
मोदी ने इसी दंगल को दरकिनार करने के लिए विचारधारा को राष्ट्रहित के मातहत बता दिया है। मोदी का कहना है, ‘जब भी कोई राष्ट्रीय संकट खड़ा होता है, भारतीय लोग इतने अच्छे हैं कि वे विचारधारा को किनारे रखकर राष्ट्रहित के पक्ष में उठ खड़े होते हैं।’
यह बात बिल्कुल ठीक है लेकिन जो लोग राष्ट्र से भी बड़ा विश्व को मानते हैं और विश्व के समस्त सर्वहारा लोगों के लिए लड़ रहे हैं, वे राष्ट्र के नाम पर किसी धर्म या संप्रदाय या जाति की संकीर्ण राजनीति का विरोध करते हैं तो वे पूछते हैं कि इसमें गलत क्या है? क्या हम लोग राष्ट्रविरोधी हैं? या अराष्ट्रीय हैं? उनका दावा तो यह होता है कि वे ही सच्चे राष्ट्रहित का संपादन कर रहे हैं।
यहां दिक्कत पैदा तब भी होती थी, जब हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी और कम्युनिस्ट पार्टियां रुसभक्ति और चीनभक्ति में डूबे रहते थे। यदि उनमें भारतभक्ति होती तो उनकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती, जैसी कि आज है। उन्हें उन दिनों रुकम्मू और चीकम्मू कहा जाता था। वे अब भाकम्मू हो गए हैं लेकिन सिर्फ केरल में ही सिमटकर रह गए हैं।
लेकिन मोदी-जैसे दक्षिणपंथियों को भी सोचना चाहिए कि सच्चा राष्ट्रवाद क्या है? सच्चा राष्ट्रवाद तब कैसे होगा, जब देश के लगभग 20-25 करोड़ लोगों को हम सांप्रदायिक आधार पर ‘अराष्ट्रीय’ मान बैठें? इन लोगों में मुसलमान, ईसाई, बहाई, यहूदी, सिख, नगा, मिजो और वामपंथी लोग भी शामिल हैं।
यदि हम इस मानसिक संकीर्णता के शिकार होते रहे तो अगले 50 साल में एक नए पाकिस्तान को जन्म दे देंगे। आज ज़रूरत इस बात की है कि देश के हर नागरिक में सच्ची भारतीयता पैदा की जाए, वह चाहे किसी भी विचारधारा या मज़हब या पंथ या संप्रदाय को माने।
मुझे खुशी है कि मेरे इस मूल विचार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत दो-टूक शब्दों में बार-बार गुंजा रहे हैं। लेकिन यह विचार शासन की नीतियों, आचरण और बयानों में भी प्रकट होना चाहिए।
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